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Aug 1, 2022

आजादी का अमृत महोत्सवः यह आत्ममंथन की भी बेला

-गिरीश पंकज

आजादी का यह अमृत महोत्सव है। मगर उत्सव मनाने के साथ यह आत्ममंथन का भी समय है कि पिछले पचहत्तर वर्षों में हमारे लोकतंत्र ने क्या खोया, क्या पाया।  क्या हमने आजादी का सकारात्मक इस्तेमाल किया अथवा आजादी को हमने स्वच्छंदता या अराजकता में बदलने की भी कोशिश की? सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद मिली स्वतंत्रता के बाद जिस महान राष्ट्र की कल्पना तमाम शहीदों ने की थी, क्या वह राष्ट्र सही मायने में हम विकसित कर सके? इस पर भी विचार करने की जरूरत है।

आत्ममंथन के लिए सबसे पहले हमें यह सोचना और देखना चाहिए कि आजाद भारत के बाद भी हमारे अपने कानून क्यों नहीं लागू हैं? क्यों आज भी हम अंग्रेजों के समय के बनाए गए  कुछ काले कानूनों को जस-का-तस लागू किए हुए हैं।  चाहे वह भारतीय दंड संहिता हो या वन कानून अथवा तरह-तरह की कर प्रणालियाँ । यानी आयकर, विक्रय कर आदि । आजादी के पहले तक 20-25 टैक्स ही इस देश की जनता पर थोपे गए थे, लेकिन अब तो इसकी संख्या लगभग सत्तर हो चुकी है।  तो हमें विचार करना होगा कि  यह लोकतंत्र है या टैक्स-तंत्र? आजादी के पहले  कामकाज की भाषा अँग्रेज़ी थी, जो अब तक कायम है। यह तो हिन्दी भाषा का सौभाग्य है कि दबाव के चलते  अंततः उसे राजभाषा का दर्जा देना पड़ गया लेकिन आज भी उच्चतम न्यायालय में अंग्रेजी का ही राज है । तो कैसे मान लें कि हम पूरी तरह से स्वतंत्र हो चुके हैं । अंग्रेजों के समय की ही पुलिस वर्दी, उसी समय के पुलिसिया कानून और उसी तरह की दमन की नीतियाँ।  गुलाम भारत में स्वतंत्रता सेनानी सरकार के विरुद्ध कुछ न बोल सकें;  इसलिए राजद्रोह के मुकदमे उन पर ठोक दिए जाते थे। दुर्भाग्य की बात है कि आजाद भारत में भी उसी तरह राजद्रोह के मामले समय-समय पर दर्ज होते रहते हैं । किसी भी सरकार के शीर्ष व्यक्ति पर अगर कोई आरोप लगा देता है,  तो फौरन उस पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हो जाता है। लोकतंत्र में यह अपने आप में बहुत बड़ा अन्याय है। राष्ट्रद्रोह कानून तो होना ही चाहिए। अगर कोई देश के विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करता है, तो उस पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज होना चाहिए । जैसे ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाअल्लाह’ कहने वालों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा जायज है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति सरकार के खिलाफ या केंद्र अथवा राज्य सरकार में बैठे शीर्ष व्यक्ति के विरुद्ध कोई निंदनीय बात करता है, तो उस पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा कायम नहीं होना चाहिए।  उसे हम अवमानना की श्रेणी में रख सकते हैं और उस तरह की धारा लगाई जा सकती है;  लेकिन सरकार की निंदा को राजद्रोह कहना लोकतंत्र का अपमान है। इस कानून को खत्म करने की आवश्यकता है। 

हमारी न्याय व्यवस्था काफी लचर है और अंग्रेजी सिस्टम के अनुसार ही अब तक संचालित हो रही है।  मामले मुकदमों की हालत यह है कि आज देशभर में करोड़ों मामले न्यायालय में लंबित पड़े हैं। और ज्यादातर न्यायालयों में संवाद की भाषा अंग्रेजी हो गई है, जो आम लोगों को पल्ले नहीं पड़ती।

अंग्रेज़ों के समय का सिस्टम...

हम जब देखते हैं कि 1947 के बाद भी अंग्रेजों के जमाने के कानून कायम हैं, तो किसी भी देशभक्त व्यक्ति को पीड़ा हो सकती है । अंग्रेजों के आने के पहले तक यहाँ पुलिस व्यवस्था नहीं थी । उनके आने के बाद ऐसी पुलिस व्यवस्था यहाँ संचालित हुई, जिसके द्वारा गुलाम भारतीयों पर दमन के हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं । स्वतंत्रता सेनानियों का दमन करने के लिए पुलिस की लाठी- गोली निरंतर चलती रही है । धारा 144 इसीलिए लागू की गई कि  स्वतन्त्रता सेनानी आपस में मिल न सकें। कोई धरना प्रदर्शन सरकार के खिलाफ न किया जा सके। हम देखते हैं कि यह धारा और अन्य धाराएँ भी, अब तक लागू हैं और आजाद भारत के नागरिकों के दमन का एक बड़ा माध्यम बन चुकी हैं। मैं तो इस बात को देखकर हैरत में भर जाता हूँ कि अगर किसी को धरना-प्रदर्शन करना है,तो उसे पुलिस की इजाजत लेनी पड़ती है।  यह अंग्रेजों के समय तक के लिए तो ठीक था; लेकिन आजाद देश में नागरिक अपनी माँगों को लेकर अगर प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो उन्हें  पुलिस की अनुमति क्यों लेनी चाहिए?  वहाँ सिर्फ सूचना दी जानी चाहिए, ताकि पुलिस से स्थल पर पहुँचकर स्थिति को नियंत्रित में रख सके।

इसी तरह इंडियन सिविल सर्विस एक्ट स्थापित करने के बाद पूरे देश में कलेक्टर थोपे गए। इनका काम था राजस्व वसूली करना, लेकिन आजादी के बाद वही कलेक्ट्री व्यवस्था जस की तस लागू है। और उल्टे अब तो पहले से ज्यादा अधिकार कलेक्टर को दे दिए गए हैं। उसे हमने जिला दंडाधिकारी तक बना दिया है। इस कारण हर जिले में कलेक्टर अपनी मनमानी करते हैं। आईएएस के साथ आईपीएस की भी बेहद मजबूत व्यवस्था कर दी गई है, जो लोकतंत्र के लिए घातक साबित हुई है।  हालत यह है कि ये लोग निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों की बातें भी नहीं सुनते। उनका अपमान करते हैं।  हालत यह है कि इन अफसरों को बर्खास्त करने का अधिकार राज्यों के पास नहीं है।  इस कारण के नौकरशाह निरंकुश होकर राज कर रहे हैं । अपवाद स्वरूप कभी-कभी किसी गंभीर मामले का संज्ञान लेकर केंद्र की अनुशंसा पर उन्हें बर्खास्त किया जाता है, लेकिन ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं। ज्यादातर मामले में यह नौकरशाह जन-प्रतिनिधियों पर भारी है। मैं इसे लोकतंत्र की विफलता मानता हूँ। इनको पॉवरफुल बनाने के कारण यह न केवल केंद्र या राज्य वरन स्थानीय निकायों तक में पॉवरफुल बने हुए हैं। कहने को हमारे यहाँ पंचायती राज व्यवस्था लागू हो गई है;  लेकिन आज भी निर्णायक भूमिका अफसरों के हाथों में ही है।

काले कानून खत्म हों-

काले कानूनों में सबसे महत्त्वपूर्ण कानून वन कानून है, जिसकी सहायता से आज भी लाखों आदिवासियों और ग्रामीणों को उनके हक से बेदखल कर दिया जाता है । वे गाँव छोड़ने पर मजबूर होते हैं।  अंग्रेजों से आने के पहले जंगल में रहने वाले लोग अपनी जरूरतों की लकड़ी काट लिया करते थे और उससे गुजर-बसर करते थे । वक्त आने पर वे पेड़ भी लगाया करते थे । तब  पूरे देश में सघन जंगल हुआ करते थे लेकिन अंग्रेज आए और उन्होंने वन कानून लागू (1872) करके लोगों को जड़ों से दूर कर दिया। जंगल बचाने के नाम पर आदिवासियों को गाँव से दूर खदेड़ दिया और जब जंगल में आदिवासी वहाँ नहीं रहे , तो अंग्रेजों ने मनमाने तरीके से पेड़ों को काटना शुरू किया। विकास के नाम पर पेड़ काटे जाते रहे और आज इस देश में वनों की क्या हालत है, यह किसी से छिपी नहीं है । तथाकथित विकास के नाम पर आज भी लोकतांत्रिक सरकारें भूमि अधिगृहीत करके जितना चाहे उतना पेड़ काट लेती है और फोरलेन, सिक्स लेन सड़कें बनाकर वाहवाही लूट रही हैं।  तो यह नए किस्म का लोकतंत्र है ।  आजादी के अमृत महोत्सव के बहाने इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों है ? क्यों जंगल में रहने वाला आदिवासी ग्रामीण अपने ही जड़ों से काट दिया गया है? उसे उसके जंगल फिर वापस मिलेंगे। जंगल उसकी आत्मा थी। जंगल उसका घर था।  जहाँ पशु भी रहते थे और मनुष्य भी रहा करते थे। दोनों अपनी-अपनी भोजन व्यवस्था और सुरक्षा कर लिया करते थे।

इसी तरह भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) ने इस देश में आजादी के पहले ऐसा दमन चक्र लागू किया  था, जो दुर्भाग्यवश आजादी के बाद से अब तक जारी है।  हम अमृत महोत्सव मना रहे हैं और इस अमृत महोत्सव के दौरान भी अगर वही अंग्रेजों के दंड व्यवस्था लागू है, तो यह हमारे लोकतंत्र की विफलता है । हम अपना मौलिक ढाँचा विकसित नहीं कर सके कि हमें किस तरह देश की व्यवस्था संचालित करनी चाहिए । कानून व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था मैकाले जैसे शातिर दिमाग लोगों ने चौपट कर दी। मैकाले ने इस देश के सारे गुरुकुलों को नष्ट करके विश्वविद्यालयों की एक नई संस्कृति विकसित कर दी । डलहौजी जैसे लोगों ने जो हड़प नीति लागू की थी, वह बाद में स्वतंत्र भारत में भू-अधिग्रहण नियम में तब्दील हो गई।  आज भी सरकारें जब चाहे विकास के नाम पर किसी भी व्यक्ति को उसके घर से, जमीन से या गाँव से बेदखल कर सकती है। क्या इसे हम लोकतांत्रिक व्यवस्था कहेंगे? 

आश्चर्य होता है कि हमारी अदालत है फरमान जारी कर के आदिवासियों को उनके गाँव से बेदखल कर देती है। मेरे पास प्रामाणिक आँकड़े तो नहीं है;  लेकिन यह अतिरंजित नहीं है कि आज इस देश में लाखों आदिवासी अपने-अपने इलाके छोड़ने पर मजबूर हुए हैं;  क्योंकि वहाँ सरकारों को विकास करना है। भले ही हमारा आदिवासी ग्रामीण अपनी मुख्यधारा से कट जाए। आज भी फर्जी ग्राम सभाएँ होती हैं और भोले-भाले ग्रामीणों को थककर उनकी जमीनें अधिगृहीत कर ली जाती हैं और उन्हें मुआवजे के नाम पर थोड़ी बहुत राशि टिका दी जाती है । वादे किए जाते हैं कि आपके बच्चों को हम नौकरी देंगे, रोजगार मुहैया करवाएँगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। और सीधे सादे ग्रामीण वर्षों तक आंदोलन करते रह जाते हैं।

अफसरशाही को नियंत्रित करना होगा-

यह ऐसे कुछ मुद्दे हैं, जिन पर एक नागरिक होने के नाते में अक्सर अपने विचार रखता हूँ, तब मुझे निराशा हाथ लगती है।  आजादी के इन 75 वर्षों में भी हमने लोकतंत्र को सही मायने में मजबूत करने का काम नहीं किया। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह सब चुने हुए जन-प्रतिनिधियों की उदासीनता के कारण हुआ। जब हमारे राजनीतिज्ञ विपक्ष में होते हैं, तब वे लोकतंत्र की खूब बात करते हैं;  लेकिन जैसे ही वे सत्ता में आते हैं, लोकतंत्र के वस्त्र को तानाशाही-खूँटी पर लटका देते हैं।  और उसके बाद वे भी बिल्कुल दमनकारी नीति अपनाते हुए अपने विरोधियों पर अंकुश लगाने की कोशिश करते हैं।  अगर ईमानदारी के साथ इस देश में लोकतंत्र लागू करना है, तो  निष्कर्ष रूप में कहूँ, तो सबसे पहले इस देश की अफसरशाही की बेहिसाब ताकत को खत्म करना होगा।  जनप्रतिनिधियों को और पॉवरफुल बनाना होगा । हर हाल में अफसरशाही जन-प्रतिनिधियों के द्वारा ही नियंत्रित रहे । हर अफसर में समस्त जन-प्रतिनिधियों का डर होना चाहिए । उनकी एक अनुशंसा पर अफसरों का निलंबन और उनकी बर्खास्तगी होनी चाहिए।  अगर हमने इतना भी कर लिया, तो लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में यह एक बड़ा कदम होगा। आजादी का अमृत महोत्सव हमें धूमधाम से मनाना है;  लेकिन लोकतंत्र की आत्मा कभी आहत न हो, इस दृष्टि से जितने भी सुधार संभव हो करने चाहिए। इसलिए इस अमृत महोत्सव को मैं आत्ममंथन की बेला भी कहता हूँ। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियों का सहारा लेकर  अंत में कहना चाहता हूँ -

हम कौन थे क्या हो गए, और क्या होंगे अभी।

आओ विचारे आज मिलकर, ये समस्याएँ  सभी।

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सम्पर्कः संपादक सद्भावना दर्पण, सेक्टर -3, एचआईजी 2/2, दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर 492010, मो.- 87709 69 574


2 comments:

Sonneteer Anima Das said...

अत्यंत सार्थक आलोचना सर 🌹🙏

Anonymous said...

सार्थक विश्लेषण। परिवर्तन आवश्यक हैं। सुदर्शन रत्नाकर