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Aug 1, 2022

कविताः ओ ज़िन्दगी!

  - डॉ. कविता भट्ट 

निहार रही हूँ राह, देखूँ! तू आती है कि नहीं,

ओ ज़िन्दगी! यहाँ बैठ, मुस्काती है कि नहीं।


यह मेरे पुरखों का पुराना पठाली वाला घर है,

ताला लगा, दूब उगी, अब होने को खंडहर है।


कोदे की रोटी-झंगोरे की खीर तेरे संग खानी है,

मरती हुई माँ को दी अपनी ज़ुबान निभानी है।


आ ना! संग में गुड़ की मीठी पहाड़ी चाय पिएँगे,

पीतल के गिलास से चुस्कियाँ लेकर साथ जिएँगे।


कोने पड़ा- दादाजी का हुक्का साथ गुड़गुड़ाएँगे,

आ ज़िन्दगी! साथ में पहाड़ी मांगुल गुनगुनाएँगे।


शब्दार्थ: पठाली- स्लेटनुमा पत्थर जो पहाड़ी घरों की छत पर लगती है, कोदे( कोदा) और झंगोरे (झंगोरा)- उत्तराखंड के पारम्परिक पहाड़ी अनाज, मांगुल- विवाह आदि समारोहों में गाए जाने वाले उत्तराखंड के पारम्परिक पहाड़ी लोकगीत।

सम्प्रति: फैकल्टी डेवलपमेंट सेण्टर, पी.एम.एम.एम.एन.एम.टी.टी.,प्रशासनिक भवन II, हे.न.ब.गढ़वाल 
विश्वविद्यालय, श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखंड

5 comments:

भीकम सिंह said...

बहुत सुन्दर कविता, हार्दिक शुभकामनाएँ ।

Anonymous said...

वाह

Sonneteer Anima Das said...

अत्यंत सुंदर रचना आद.कविता जी 🌹💐🙏

www.shailputri.Nilambara.in said...

हार्दिक आभार

www.nilambara.shailputri.in said...

हार्दिक आभार मित्रो।