- डॉ. कविता भट्ट
निहार रही हूँ राह, देखूँ! तू आती है कि नहीं,
ओ ज़िन्दगी! यहाँ बैठ, मुस्काती है कि नहीं।
यह मेरे पुरखों का पुराना पठाली वाला घर है,
ताला लगा, दूब उगी, अब होने को खंडहर है।
कोदे की रोटी-झंगोरे की खीर तेरे संग खानी है,
मरती हुई माँ को दी अपनी ज़ुबान निभानी है।
आ ना! संग में गुड़ की मीठी पहाड़ी चाय पिएँगे,
पीतल के गिलास से चुस्कियाँ लेकर साथ जिएँगे।
कोने पड़ा- दादाजी का हुक्का साथ गुड़गुड़ाएँगे,
आ ज़िन्दगी! साथ में पहाड़ी मांगुल गुनगुनाएँगे।
शब्दार्थ: पठाली- स्लेटनुमा पत्थर जो पहाड़ी घरों की छत पर लगती है, कोदे( कोदा) और झंगोरे (झंगोरा)- उत्तराखंड के पारम्परिक पहाड़ी अनाज, मांगुल- विवाह आदि समारोहों में गाए जाने वाले उत्तराखंड के पारम्परिक पहाड़ी लोकगीत।
सम्प्रति: फैकल्टी डेवलपमेंट सेण्टर, पी.एम.एम.एम.एन.एम.टी.टी.,प्रशासनिक भवन II, हे.न.ब.गढ़वाल
विश्वविद्यालय, श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखंड
5 comments:
बहुत सुन्दर कविता, हार्दिक शुभकामनाएँ ।
वाह
अत्यंत सुंदर रचना आद.कविता जी 🌹💐🙏
हार्दिक आभार
हार्दिक आभार मित्रो।
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