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Aug 1, 2022

कविताः फिर भी बाबूजी कहते हैं

  - रश्मि लहर

शूल सजे पथ, घायल हर पग

बेबस पीड़ा, साथ-साथ है ।

फिर भी बाबू जी कहते  हैं..

यहाँ तो सब कुछ ठीक-ठाक है!

 

कुएँ की सूखी दीवारें भी

चीत्कारती मिलती हैं..

सूखी शाखें नीम की अनगिन

बाट जोहती सिसकी हैं।

 

पिछली बार बसंत गया जो

लौट कहाँ आ पाया है…

सिंदूरी शामों से उठता

अब सपनों का साया है!

नन्हे बच्चे भूख से मिटते

नहीं हाथ में स्लेट–चाक है!

फिर भी बाबू जी कहते हैं..

यहाँ तो सब कुछ ठीक-ठाक है..

 

हाथों की रेखा–रेखा में

अनुभव दर्द भरे लौटा है..

दृग के झिलमिल - से कोनों पर

आकृति बन बचपन चौंका है!

 

था उजास जिनकी वाणी से

वो गूँगे बन डरवाए है..

फटी–फटी आँखों में उनकी

लहू के कतरे भर आए हैं।

सोंधेपन की खुशबू गुम है

निर्धनता से ढका ताख है

फिर भी बाबू जी कहते हैं

यहाँ तो सब कुछ ठीक-ठाक है

2 comments:

रश्मि लहर said...

सादर धन्यवाद

Anonymous said...

बेहतरीन पंक्तियाँ, शब्दों का संयोजन गजब, साधुवाद