वह स्टेशन के बेंच पर बैठा अपनी पगड़ी सँभाल रहा था जब मैंने पहली बार उसे देखा। सूती कपड़े की वह धूलभरी पगड़ी उसके काँपते हाथों में किसी अंतिम विरासत की तरह लिपटी हुई थी।
"बाबूजी, ये पगड़ी..." मैंने हिचकिचाते हुए पूछा।
उसकी आँखों में एक झरना फूट पड़ा - "बेटा, ये मेरे बेटे की है। आज से ठीक एक साल पहले, जब वह इसी स्टेशन पर उतरा था, किसी ने सिर्फ़ इसी पगड़ी के लिए उसे..."
उसका गला भर आया। मैं जानता था कि पिछले साल यहाँ के स्टेशन पर एक युवक की हत्या सिर्फ़ इसलिए कर दी गई थी; क्योंकि उसकी पगड़ी ‘गैर-स्थानीय’ लग रही थी।
"बेटा, मैं हर हफ़्ते यहाँ आकर इसे बाँधता हूँ," उसने कहा, "जैसे इसी तरह बाँधता हुआ वह कभी मुझे दिख जाएगा।"
अचानक उसने पगड़ी खोली। मैं चौंक गया - उसके सिर पर गहरे निशान थे, जैसे कोई ताज़ा ज़ख़्म।
"ये?"
"वही दिन...जब मैंने अपनी पगड़ी उतारकर उसके सिर पर रखी थी...लोगों ने मेरे ही सिर पर पत्थर मार दिए थे।"
ट्रेन के आने की आवाज़ ने हमें चौंकाया। उसने फिर से पगड़ी बाँधनी शुरू की। मैंने देखा - उसकी हर गाँठ में एक नाम बँधा हुआ था: सहिष्णुता, संस्कृति, मानवता...
और अंतिम गाँठ जो बची थी, उसमें बस एक ही शब्द था – ‘इंसान‘।
2. बची हुई हवा का हिसाब
एक आदमी ने सबसे ऊँची इमारत से छलाँग लगा दी। उसके गिरने की आवाज किसी ने नहीं सुनी; क्योंकि सबके कानों में बज रहा था बाजार का शोर। हवा तक नहीं हिली। नीचे फुटपाथ पर एक कुत्ता था, जिसने सिर्फ़ नाक सिकोड़ी और सामने पड़े रोटी के टुकड़े की ओर बढ़ गया। एक बच्चे ने इशारा किया- "मम्मी, वह चुप क्यों है?"माँ ने उसका हाथ झटक दिया - "चुपचाप चलो। यह कोई फुटपाथ नहीं।’’
सुबह अख़बार वाले ने खबर छापी—"शहर का AQI सुधरा, एक कम हुआ साँस लेने वाला।" पुलिस वाले ने लाश उठाई, दफ़नाया, और रिपोर्ट में लिखा—"कोई शक नहीं, स्वाभाविक मौत।"
उसकी जेब से एक डायरी मिली। आख़िरी पन्ने पर लिखा था- "मैं जब गिरूँगा, तो हवा में जगह बन जाएगी। किसी और की साँस चलेगी इस ख़ालीपन में।"
डायरी को कचरे के ढेर में फेंक दिया गया। उसी शाम एक कागज़ उड़ता हुआ किसी की बालकनी में जा घुसा। वहाँ एक आदमी ने उसे पढ़ा, सोचा, और खिड़की बंद कर ली। बाहर शहर की हवा में अब भी वही गंध थी- आधी सड़ी हुई, आधी बची हुई।
3. प्रयोगशालापहले दिन उन्होंने प्रयोगशाला में एक पिंजड़ा रखा। उसमें एक चूहा था। बोर्ड पर लिखा गया - ‘स्वच्छता अभियान’।
दूसरे दिन चूहे के गले में एक छोटी-सी घंटी बाँध दी गई। बोर्ड बदला गया — ‘आत्मनिर्भर चूहा’।
तीसरे दिन पिंजड़े के बाहर एक बिल्ली की मूर्ति रख दी। चूहा सहमकर कोने में दुबक गया। बोर्ड पर लिखा - ‘सुरक्षित चूहा’।
चौथे दिन मूर्ति हटाकर असली बिल्ली ले आए। चूहे ने घंटी बजा-बजाकर आत्महत्या कर ली। बोर्ड पर लिखा गया— "दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना"।
पाँचवें दिन नया चूहा लाया गया। इस बार पिंजड़े में एक छोटा- सा झंडा रख दिया। बोर्ड पर लिखा — ‘राष्ट्रभक्त चूहा’।
छठे दिन जब बिल्ली ने चूहे को खा लिया, तो प्रयोगकर्ताओं ने एक दूसरे की ओर देखा। फिर बोर्ड पर लिखा गया — ‘चूहे की मृत्यु नहीं, बल्कि बिल्ली के पेट में देश-सेवा’।
सातवें दिन प्रयोगशाला के बाहर एक नया बोर्ड लगा - ‘चूहा मुक्त प्रयोगशाला’।
अंदर, एक नए पिंजड़े में बंद बंदर ने अपनी आँखें मूँद लीं ।4. अंतिम बिल
उस दिन अस्पताल के गेट पर जो हुआ, वह कोई नई बात नहीं थी। प्राइवेट वार्ड नंबर 5 के बाहर खड़े डॉक्टर ने फाइल खोली - "तीन लाख बीस हज़ार रुपये बकाया हैं।" परिवार वाले एक-दूसरे का चेहरा देखते रहे, जैसे उनकी आँखों में ही कोई जवाब छिपा हो।
मृतक का बेटा अपनी जेब टटोल रहा था - वहाँ सिर्फ़ एक पुराना रुमाल और दो सिक्के थे। उसकी बहन ने अपने गले से चेन उतारी, पर नर्स ने नाक सिकोड़कर कहा - "यह तो नकली है।"
तभी अस्पताल के गार्ड ने शव को ले जाने से मना कर दिया। "बिना पेमेंट रसीद के लाश भी नहीं जाएगी," उन्होंने कहा, जैसे कोई नियम पढ़ रहे हों। मृतक की पत्नी ने दीवार से सिर टकराया - उसके सिर से खून बह रहा था, पर कोई डॉक्टर नहीं आया।
अगले दिन सुबह जब अस्पताल का सफाईकर्मी वार्ड साफ करने आया, तो उसने देखा - शव अभी भी वहीं पड़ा था, और परिवार वाले फर्श पर सोए हुए थे। उनके हाथों में एक ख़ाली थैला था - शायद किसी से उधार माँगने जाने की तैयारी में।
जब अख़बार वालों ने पूछा कि शव क्यों नहीं उठाया गया, तो अस्पताल प्रबंधन ने बयान दिया - "हमारी नीति है कि बकाया बिना शव नहीं दिया जाएगा। मृत्यु के बाद भी मरीज हमारी जिम्मेदारी है।"
लेखक के बारे में- जन्म 2 अक्टूबर, 1965, शिक्षा- एम.ए (भाषा विज्ञान) एमएससी (आईटी), भारतीय एवं विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में अनेक रचनाओं का प्रकाशन। विभिन्न विधाओं पर अनेक कृतियाँ । संप्रति: छ.ग.शासन में वरिष्ठ अधिकारी। सम्पर्क: एफ-3, आवासीय परिसर, छग माध्यमिक शिक्षा मंडल (पेंशनवाड़ा), रायपुर, छत्तीसगढ़, 492001, ईमेल: srijan2samman@gmail.com, मोबाइल- 94241-82664
जयप्रकाश मानस की लघुकथाएँ व्यवस्था के विद्रूप पर तीव्र प्रहार करती हुई स्तब्ध करती हैं,बधाई मानस जी
ReplyDeleteबेहतरीन लघुकथाएँ-जयप्रकाश जी की मंजी हुई लेखनी से आयी है-बधाई।
ReplyDeleteसभी में विविधता है साथ ही लीक से हटकर हैं।