उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Aug 1, 2022

यात्रा संस्मरणः सरहदें दिलों को नहीं बाँट सकतीं

-  नीरज मनजीत

2017 के अक्टूबर माह में कुछ रचनाकार मित्रों ने अगले साल फरवरी में बोनगाँव (कोलकाता) जाना तय कर लिया था। तब से ही मन में एक दोहरी उत्सुकता आकार लेने लगी थी। पहली उत्सुकता थी बोनगाँव में कुछ वक़्त बिताने की, जिसके बारे में बताया गया कि यह भारत-बांग्लादेश की सरहद पर स्थित एक गाँव है। यहाँ हर साल 21 फरवरी को बंग भाषा दिवस मनाया जाता है। यह एक उत्सव की तरह होता है, जिसमें दोनों देशों के लोग शामिल होते हैं।

 दूसरी उत्सुकता थी कोलकाता के प्रवास की। मैं पहली दफ़ा कोलकाता जा रहा था। कोलकाता के बारे में कुछ सुनी-सुनाई बातें मेरे जेहन में थी... कि कोलकाता एक भीड़-भड़क्के से भरा शहर है, जहाँ की तंग सड़कों में अभी भी सुस्त रफ़्तार ट्रामें चलती हैं और तपती सड़क पर पैदल रिक्शा खींचते हाँफते-झुलसते रिक्शा पुलर बलराज साहनी की फ़िल्म 'दो बीघा जमीन' की याद दिला जाते हैं।

कोलकाता की भीड़ का बड़ा ही रोचक चित्रण 1969 में भारत के दौरे पर आई ऑस्ट्रेलियाई टीम के उप कप्तान इयान चैपल ने किया था। ऑस्ट्रेलियाई टीम टेस्ट खेलने बस में स्टेडियम के लिए रवाना हुई। स्टेडियम पहुँचते-पहुँचते चैपल ने अपने कप्तान बिल लारी से कहा, ' हमने न्यूज़ीलैंड की आबादी के बराबर लोग तो देख ही लिए।'  पहले दिन का खेल समाप्त होने के बाद होटल लौटते वक़्त शाम की भीड़ देखकर टीम के वरिष्ठ खिलाड़ी डग वॉल्टर्स ने कहा, 'अब तो हमने ऑस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर लोग देख लिए।'

कोलकाता के बारे में मेरे कुछ सैलानी दोस्तों के ख़्यालात भी अच्छे नहीं दिखे, लेकिन मैं उनकी बातों पर यकीन नहीं कर सकता था। क्योंकि वे खूबसूरत समुद्रतटों और भव्य शॉपिंग मॉल वाले शहरों को ही बड़ा पर्यटन स्थल मानते हैं, जबकि मेरे लिए तो एक अच्छे दोस्त का किसी नगर में होना ही उस नगर को चाहने का सबब बन सकता है। फिर कोलकाता को चाहने के तो दसियों सबब थे। सो, मैं इस प्रवास के हफ़्तों पहले से इन दोनों आकर्षणों की गिरफ़्त में था।

यात्राओं के बीच, यात्राओं के साथ-साथ कुछ नोट्स अपने-आप तैयार होने लगते हैं। ऐसे ही कुछ नोट्स, जो इस प्रवास के संदर्भ में हैं....

कवर्धा छत्तीसगढ़, 9 फरवरी, 2018

20 फरवरी को कोलकाता जाना है। बोनगाँव एक सरहदी गाँव है, भारत बांग्लादेश की सरहद पर कोलकाता से 80 किमी दूर। 21 फरवरी को सारे रचनाकार वहाँ जाएँगे। यह एक विशेष दिन है, कुछ-कुछ त्योहार जैसा, जिसे दोनों देश के लोग मिलकर मनाते हैं। यह गाँव इच्छामती नदी के किनारे बसा है और इसी नदी को दोनों देशों की सीमारेखा मान लिया गया है। 22 फरवरी को कोलकाता में मेल-मुलाकात और कुछ खास जगहों का प्रवास तय हुआ है। बोनगाँव के बारे में गूगल पर सर्च किया तो कुछ ख़ास जानकारी हासिल नहीं हुई। सो, कुल मिलाकर एक अनजान सी यात्रा पर निकलना है। और यही बात ही तो है जो रोमांचित करती है।

कोलकाता के लिए ट्रेन की कन्फर्म टिकट लेने में भी थोड़ी मुश्क़िल दरपेश आई। इरादा था 20 फरवरी को रायपुर से ज्ञानेश्वरी या मेल पकड़ने का, ताकि 21 की अलस्सुबह हावड़ा पहुँच जाएँ और तैयार होकर 10 बजे तक बोनगाँव के लिए निकल जाएँ। लेकिन दोनों गाड़ियों के एसी कोच में बर्थ नही मिली। खैर, उसी दिन सुबह राजकोट-संतरागाछी स्पेशल एसी का वक़्त भी है। उसमें आसानी से बर्थ मिल गई। यह गाड़ी दोपहर बाद 4 बजे तक हावड़ा पहुँच जाती है। इरादा था रात को हावड़ा ब्रिज से हुगली नदी के नज़ारे का। पर किसे पता था कि रेलवे की लेट-लतीफ़ी इस इरादे पर पानी फेर देगी।

20 फरवरी, 2018

आज सुबह 5 बजे दुर्ग से राजकोट-संतरागाछी एसी विशेष ट्रेन पकड़ी, कोलकाता जाने के लिए। यह गाड़ी पूरे 3 घंटे विलंब से आई। बताया गया कि राजनांदगाँव के पास मेगा ब्लॉक की वजह से इस मार्ग की सभी गाड़ियाँ देर से चल रही हैं। चूँकि नेट पर ट्रेन की सही स्थिति पता नहीं चल रही थी, इसलिए मैं ठीक दो बजे स्टेशन पहुँच गया। वहाँ भी सही वक़्त पता नहीं चला। इन्क्वायरी से इतना ही बताया जा रहा था कि ट्रेन विलंब से आएगी। कितने विलंब से, यह किसी को पता नहीं था। नतीजतन ढाई घंटे  रिटायरिंग रूम में ऊँघते बैठना पड़ा। डिब्बे में 3-4 घंटे की नींद लेने का इरादा काफूर हो चुका था। खैर, फिर भी दो-ढाई घंटे की नींद ले ही ली। अभी ट्रेन चक्रधरपुर पहुँचने वाली है, तीन-साढ़े तीन घण्टे विलम्ब से। हावड़ा 8 बजे तक पहुँचना हो पाएगा। समय पर पहुँचे तो हुगली नदी और हावड़ा ब्रिज की दृश्यावलियाँ देख सकते हैं।

ट्रेन साढ़े नौ बजे संतरागाछी स्टेशन पहुँची, साढ़े चार घण्टे देर से। जिस प्लेटफार्म पर ट्रेन लगी, उसकी मरम्मत चल रही है। गाड़ी से उतरा तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अमूमन प्लेटफार्म पर दिखने वाली चाय-नाश्ते की दुकानें वहाँ एक भी नहीं थी। धीरे-धीरे चलते प्लेटफॉर्म से बाहर निकला। वहाँ प्रीपेड टैक्सी का स्टाल खाली पड़ा था और सामने लंबी लाइन लगी थी। मैं तक़रीबन उन्नीस घंटों से सफ़र में था, सो मुझमें अब वहाँ कतार में खड़े होकर इंतज़ार करने का धैर्य नहीं बचा था। थोड़ा आगे बढ़ा तो एक टैक्सीवाला हावड़ा स्टेशन के पास स्थित होटल में छोड़ने के लिए तैयार हुआ, मुँहमाँगे किराए पर। होटल पहुँचते 11 बज चुके हैं। सुबह जल्दी तैयार होकर कोलकाता के न्यू टाउन स्थित आर्किड इन गेस्ट हाउस में पहुँचना है। वहीं से हम सभी को एक साथ बोनगाँव के लिए रवाना होना है।

कोलकाता, 21 अप्रैल, 2018

सुबह 6 बजे मित्रों का फ़ोन आ गया। वे उसी वक़्त हावड़ा पहुँचे थे। कहा कि जल्दी तैयार होकर ऑर्किड गेस्ट हाउस पहुँचो, नाश्ता हम सब एक साथ करेंगे।  सुबह 8 बजे तक मैं तैयार हो गया। रात 6 घंटे की गाढ़ी नींद ले ली थी, इसलिए सुबह ताज़ा और ख़ुशगवार लग रही थी। मित्र को फोन किया। वे भी तैयार होकर हावड़ा स्टेशन के पास पहुँच चुके थे। बड़ी मुश्क़िल से एक बैटरी रिक्शा ढूँढा और उससे भी ज़्यादा मुश्क़िल से मित्र मिले। खैर, देर से ही सही हम कार से वहाँ से तकरीबन 15 किमी दूर ऑर्किड के लिए रवाना हुए। यह गेस्ट हाउस दमदम एयरपोर्ट के नज़दीक न्यू टाउन में स्थित है। यह इलाका अभी-अभी विकसित हुआ है, इसलिए बिल्कुल ताज़े खिले फूल की तरह सुंदर और आकर्षक दिखाई दे रहा है।  बिल्कुल नई-नकोर बनी इमारतें-कालोनियाँ, साफ़-सुथरी सड़कें, किनारों पर व्यवस्थित तरीके से लगाए गए हरे-भरे वृक्ष और बाग-बगीचे।

हम गेस्ट हाउस पहुँचे तो अधिकतर साथी नाश्ता कर चुके थे। मैंने जल्दी नाश्ता किया और नीचे लॉबी में बैठे साथियों के साथ हो लिया। हम तीन गाड़ियों में बोनगाँव के लिए निकल पड़े। कोलकाता के ट्रैफिक से जूझते हमें शहर से बाहर निकलने में एक घंटा लग गया। उसके बाद इकहरी सड़क पर हम बोनगाँव की ओर बढ़ने लगे। एक साथी ने बताया कि बोनगाँव का बांग्ला में असली उच्चारण है-- "बोनगाँ"। बांग्ला में गाँव को गाँ कहा जाता है। मैंने उन्हें बताया कि यह ठीक वैसा ही है, जैसे पंजाबी में गाँव को ' ग्रां ' कहा जाता है। वे बता रहे थे कि बोनगाँव को बांग्ला के ख्यात साहित्यकार बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के गृहनगर के रूप में भी जाना जाता है, जिन्होंने मर्मस्पर्शी उपन्यास 'इचामती' लिखा है। दरअसल इच्छामती नदी का बांग्ला में उच्चारण इचामती ही है।

रास्ते में हमें दोनों ओर बड़े ही भारी तने के सैकड़ों वृक्ष दिखे। ऐसे मोटे तने मैंने पहले कभी नहीं देखे थे। पूछने पर कुछ पता भी नहीं चला। इनके अलावा एक बड़ी ही रोचक बात हमने देखी। रास्ते में कई गाँव मिले। इन गाँवों के तक़रीबन हर घर में एक तलैया थी और साथ लगी छोटी-सी बाड़ी में इमारती लकड़ी के वृक्ष लगे थे। उन्होंने बताया कि चूँकि मछली बंगाल का प्रमुख आहार है, इसलिए तलैया में मछलियाँ पाली जाती हैं। इमारती लकड़ियों के वृक्ष लगाना यहाँ की परंपरा है। यह परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। इसके लिए सरकार की ओर से कोई रोकटोक नहीं है।

बातचीत के दौरान हम कब बोनगाँव पहुँच गए, मालूम ही नहीं पड़ा। गाँव के बीच से होते हुए हम सरहद के पास जा पहुँचे, लेकिन हमें थोड़ा आश्चर्य इस बात को लेकर हुआ कि जिसे हम गाँव समझे थे, वह एक अच्छा-खासा बड़ा नगर है। काफी बड़े बाज़ार हमें वहाँ दिखे। दूसरा आश्चर्य हमें इच्छामती नदी की हालत देखकर हुआ। वह बिल्कुल सूखी हुई थी, कुछ पतली गंदली धाराएँ बहती दिखीं। हमने नेट पर तो इसे एक दरिया के रूप में देखा था, जिस पर स्टीमर चल रहे थे। ख़ैर, मैंने वहाँ खड़े एक ट्रैफिक हवलदार से पूछना शुरू किया तो इस क्षेत्र के बारे में बहुत सी जानकारियाँ मिलती चली गईं--दरअसल बनगाँव लोकसभा का नाम है, जबकि बोनगाँव उत्तर 24 परगना ज़िले का एक ब्लॉक है, जो बनगाँव उत्तर विधानसभा में आता है। बोनगाँव की आबादी एक लाख दस हजार की है और यह ईस्टर्न रेलवे के सियालदह सेक्शन का आखिरी स्टेशन है। विभूतिभूषण के अलावा इस नगर को राजनेता जीबोन रतन धर, पुरातत्त्ववेत्ता राखालदास बंद्योपाध्याय और आधुनिक कविता के कवि विभाष रॉय चौधरी के लिए भी जाना जाता है।

बंग भाषा दिवस को लेकर हमने वहाँ काफी उत्सह देखा। इस त्यौहार में दोनों देशों के लोग शामिल थे। बांग्लादेश के बहुत से सरहदी गाँवों के लोगों के रिश्तेदार बोनगाँव में रहते हैं। इसी तरह सरहदी भारतीय गाँवों- गोपाल नगर, दुमा, पल्ला, चाँदपारा, फुलसारा- के लोगों के रिश्तेदार सीमांत बांग्लादेश में रहते हैं। इस दिन दोनों देशों की सरहदें खोल दी गई थीं और वीज़ा धारी लोग निर्बाध रूप से आ-जा रहे थे। उस दिन हमने देखा और शिद्दत से महसूस किया कि सरहदें देशों को तो विभाजित कर सकती हैं लेकिन लोगों के दिलों को नही बाँट सकतीं। दोनों देशों के पुरुषों, स्त्रियों, बच्चों का उत्साह देखने लायक था, उनके जज़्बात जैसे छलक रहे थे। जिनके पास वीज़ा नहीं था उनके लिए एक बड़े मैदान के बराबर एक ऐसा स्थान बनाया गया था, जहाँ वे पहचान पत्र दिखाकर जा सकते थे और एक-दूसरे से मिलजुल सकते थे। किसी भी तरह का कोई तनाव हमने वहाँ महसूस नहीं किया।

शाम के समय वहाँ दोनों देशों के सैनिकों की परेड हुई। यह परेड अनोखी थी, जो दोनों देश के लोगों के ऐन बीच में हो रही थी। जैसे ही परेड खत्म हुई लोग सैनिकों के साथ फ़ोटो लेने लगे, उनसे हाथ मिलाने लगे। ये सारे सैनिक एक-दूसरे देशों के लोगों से हाथ मिला रहे थे, उनसे मिलजुल रहे थे। बड़ा ही अविस्मरणीय था सब कुछ। दोनों देशों के सैनिक भी खुलकर एक दूसरे से मिलजुल रहे थे, कहीं कोई तनाव नहीं था, जैसा हमने वाघा बॉर्डर में महसूस किया था।

और मैं सोच रहा था कि काग़ज़ों पर खींची गई रेखाएँ और नक्शे अंततः क्यों इतने ताक़तवर हो जाते है कि वे महायुद्धों और विश्वयुद्ध के बायस बनकर इस धरती पर बदनुमा दाग़ छोड़ देते हैं ? इन बेजान रेखाओं के पीछे छिपे शातिर दिमागों ने लहूलुहान मानवता को और ज़्यादा... और ज़्यादा जख़्मी करने... और ज़्यादा... और ज़्यादा खून बहाने में कोई क़सर नहीं छोड़ी है। इन नक्शों ने वास्तविक दीवारें खड़ी की हैं और हजारों वर्षों के खूंरेज़ इतिहास से गुज़रती जो एक शांतिवादी वैश्विक व्यवस्था बनती दिखाई पड़ रही थी, वह फिर उसी खूनी दौर में वापस जा रही है।

यूरोप के एकीकरण के बाद जरूरत एशिया को एक सूत्र में बाँधने की थी, ताकि एक युद्ध रहित विश्व के सपने को साकार करने की दिशा में सामूहिक प्रयत्न किए जाते। लेकिन एशिया को ही रणभूमि बनाकर अमन-पसंदगी के सारे सपनों को तार-तार किया जा रहा है। यह एक कड़वी वास्तविकता है कि दक्षिण एशिया दुनिया का सर्वाधिक खतरनाक इलाका है, जहाँ एटमी ताकतें सर्वनाश के लिए उतारू हैं। क्या इस इलाके में कभी उस तरह दीवारें टूटेंगी, जिस तरह जर्मनी के लोग दीवार तोड़कर एक-दूसरे के गले जा मिले थे? सपनों और वास्तविकताओं में क्या फ़र्क़ हो सकता है, यह हम सब देख रहे हैं... कि कड़वी सियासी हक़ीक़तें सपनों को रौंद रही हैं !

रात्रि भोज हमें न्यू टाउन स्थित एक चार सितारा होटल 'स्विसोटल' में लेना था। यह एक बड़ा ही यादगार और आनंददायी अनुभव था। हम सभी साथी डाइनिंग हॉल में एक बड़ी टेबल से लगी कुर्सियों पर जम गए। उस बड़े हॉल में दसियों किस्म के सामिष-निरामिष स्वादिष्ट व्यंजन, फल, ड्राई फ्रूट्स, आइसक्रीम, पेस्ट्रीज, केक, मिठाइयाँ आदि रखे गए थे। मैं तो बस वहाँ के नए व्यंजनों का स्वाद चखने में लग गया। मुख्य भोजन के लिए सभी साथी जमे तो हमारे एक वरिष्ठ साथी के रोचक संचालन में एक कवि-गोष्ठी की शुरुआत हो गई। तरह-तरह के व्यंजन और बड़ी ही सुंदर, प्रभावी कविताएँ... बस सब कुछ अविस्मरणीय! बदक़िस्मती से मैं अपनी कोई कविता नहीं सुना पाया। दरअसल उस रात नेटवर्क की ख़राबी की वजह से मेरी फेसबुक वॉल नहीं चल रही थी, जबकि मेरी बहुत-सी कविताएँ उसमें मौजूद हैं। खैर, आख़िर में इन सारी कविताओं पर मुझे एक संक्षिप्त टिप्पणी कहने का सुअवसर देकर मित्रों ने इसकी भरपाई कर दी।

कुछ दोस्त ऐसे होते हैं, जो दिलो-दिमाग़ के खुले कपाट पर भी बड़ी ही शाइस्तगी से दस्तक देते हैं और अंदर आने की इजाज़त चाहते हैं, जबकि उन्हें किसी भी वक़्त आने का अधिकार पहले से ही हासिल होता है। कुछ शहर भी ऐसे ही होते हैं। कोलकाता ऐसा ही एक शहर है। पकी उम्र में कोलकाता पहली बार जाने पर कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ। एक दिन में आप किसी महानगर को कितना जान सकते हैं! लेकिन जितना भी जाना, देखा... बड़ा ही खूबसूरत लगा। और कोलकाता के लोग, वे तो खूबसूरत हैं ही। कार से आते-जाते कुछ तस्वीरें लीं। वो 64 मंजिला इमारत भी देखी, जो अभी बन रही है और पूरी होने के बाद उसे भारत की सबसे ऊंची इमारत का दर्जा हासिल हो जाएगा।

सुबह का नाश्ता लेकर हम सभी कोलकाता की कुछ ख़ास जगहों पर गए। हमारे एक साथी वरिष्ठ पत्रकार-संपादक पारिवारिक वजहों से एक विश्राम गृह में रुके थे। वहीं उनसे और उनकी पत्नी से भेंट हुई। उनके बैठक कक्ष में सभी साथी रचनाकारों के बीच विचार-विमर्श का दौर चला। उसके बाद शेक्सपियर सरणी स्थित भारतीय भाषा परिषद के कार्यालय में बैठक जमी। दोपहर के खाने के बाद सफ़र शुरू हुआ पुराने लेकिन भव्य कोलकाता का। तंग किंतु साफ़-सुथरी सड़कों पर आराम से चलती ट्रामों औऱ पैदल रिक्शा खींचनेवालों के बीच रास्ता बनाती हमारी गाड़ियाँ कॉफी हाउस के समीप रुकीं। कोलकाता का कॉफी हाउस एक बहुत ही पुरानी इमारत की पहली मंज़िल पर स्थित है। यहाँ सब कुछ वैसा का वैसा ही है, जैसा वर्षों से चला आ रहा है। स्मृतियों को बदलने की कोई कोशिश नहीं की गई है और संभवतः यही इसकी गरिमा और सुंदरता है। कॉफी पीकर हम सब निकले और एक-दूसरे के गले मिले, हाथ मिलाए और फिर मिलने के वादे के साथ विदा ली।

सम्पर्कः हैप्पीनेस प्लाज़ा, नवीन मार्केट, कवर्धा, छत्तीसगढ़ 491995, मो. 96694 10338, 70240 13555, email- neerajmanjeet@gmail.com

1 comment:

Sonneteer Anima Das said...

अति सुंदर संस्मरण आद. 🌹🙏 अत्यंत जीवंत 🙏