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Aug 1, 2022

कहानीः चोर

- संजय कुमार सिंह

वह गर्मी की एक बेहद ऊबाऊ दोपहर थी।

इस समय तक  वह घर के  रोज के काम से निबट चुकी होती है। बस विवेक और बच्चे के आने का इन्तजार रहता है। कभी पंखे नीचे निढाल बैठने का मन होता है उसका, तो कभी टी.वी.देखने का। जाने क्यों उकवास लगा रहता है। एक अजीब सी बेचैनी !अखबार और पत्रिकाएँ सब उलट- पुलट लेती है वह। पर जैसे किसी चीज में कोई अटकाव नहीं।

ऐसा रोज होता है। सिर्फ रविवार को उसे सुकून मिलता है। कम से कम वैसी तन्हाई में रोज का इन्तजार नहीं रहता। औरत का जीवन भी कमाल होता है। उसका मन खुद पर हँसने का होता है, पर वह हँसती नहीं है! विवेक उस पर भले हँस ले। बच्चे उस पर कितना भी तंज कर लें, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।

...वैसे भी उसकी परेशानी बढ़ी हुई थी । राजू गाँव गया हुआ था। उसकी माँ बीमार थी। कह कर तो गया था जल्दी लौट आएगा,पर आ नहीं पा रहा था। एक अनजानी आशंका उसे घेरे हुए थी। किसी की भी माँ को बीमार नहीं होना चाहिए। मरना तो एकदम नहीं! माँ के बिना घर और बच्चे का वजूद ही क्या है?वह बाबा के कहने पर आया था। माँ तो राजी भी नहीं थी उसकी। बेचारा भोला लड़का!

उसने घड़ी देखी, सवा बारह बज रहे थे।

महरी सुबह और शाम आती थी। उसके आने में अभी बहुत देर थी। धरती बरक रही थी। आसमान तंदूर की तरह लहक रहा था। बाहर दरख्तों की जान निकल रही थी। हवा बिल्कुल ठहरी हुई! लू और तपिश की ऐसी मार कि पूरा मोहल्ला खामोश!पेड़ तक उकठे हुए। उसने खिड़की से बाहर झाँक कर देखा,इक्के-दुक्के लोग सड़क पर चलते नजर आए। यहाँ का मौसम गर्मी में ऐसा ही रहता है। सुबह के साथ तेज चमकती धूप निकल आती है और फिर दिन भर यही हाल। बार-बार काम काज करते हुए वदन के पसीने से कपड़े के चिपकने से उसे और ऊब होती है। वह बेसिन के पास जाकर मुँह-हाथ धोती है, आँख पर छींटे मारती है...और आकर बैठ जाती है कुर्सी पर...पर  मन और विरस जाता है।

रोज का वही हाल!

वह उठी और बाथरूम में घुस गई।

नल खोल कर नहाने लगी ।देर तक नहाती रही। बाहर निकल कर केश झाड़ने के बाद चटाई पर वह लेट गई...

तभी उसकी नजर मकड़ी के जाले पर पड़ी। इस मकड़ी को अब वह क्या करे, कितना भी हटाओ, फिर लगा देती है...वह उठ कर फेन बंद करती है, और फिर जाले हटाने लगती है...मकड़ियाँ उतनी ही शैतान! आज हटाओ, पर कल फिर वही जाल!

जाल हटा कर थकान से वह फिर लेट गई। उसे लगा उसकी आँखें झुप रही हैं... नींद के साथ चेतना पर मकड़जाल...खट!

वह हड़बड़ाकर उठी और किचन की तरफ दौड़ी। किचन की खिड़की का वाल टूटा था, उसने किसी तरह खींच कर दरवाजा लगाया। फिर वापस मेन गेट को बन्द किया, फिर उस आवाज के बारे में सोचा, हो सकता है कोई बिल्ली हो...बिल्ली उस रास्ते से आती है, उसने देखा था, पर उसे चोर की आशंका हुई...

चोर! चोर!! चोर!!!

आजकल मुहल्ले में चोरियाँ हो रही थीं।

चोर प्राय: दिन में दोपहर में या फिर आधी रात बीतने के बाद आते थे और चोरी कर गायब हो जाते थे। पिछले दिनों चोरी की एक कोशिश में एक लड़का बिजली के तार से सट कर मर गया था। उससे पहले कॉलरा साहब की कोठी में रात वक्त जिस आदमी को पकड़ा गया था।  बाद में पता चला कोई पगला था। ।लेकिन तबतक उसकी इतनी पिटाई हो चुकी थी कि वह ठीक से चल भी नहीं पा रहा था। मार-कूटकर लोगों ने उसे नीम के पेड़ के पास मरने के लिए छोड़ दिया था, वह वहीं कई दिनों तक पड़ा रहा चक्कर काटता हुआ । उसके कपड़े फट गए थे। पूरे वदन पर चोट के गहरे निशान थे। आँखें सूजी हुईं, नील स्याह!उसे दया हो आई थी। उसने महरी के हाथों खाना भिजवा दिया था। लौट कर महरी कह रही थी,"आदमी को कहीं इस तरह मारा जाता है, बाबा रे, बाबा..."

"चोर को, बोलो।" वह फुसफुसाई।

काहे चोर आदमी नहीं होता है क्या?"

"तो मारने वाले से पूछो।"

"क्या होगा पूछ कर!" उसका स्वर दुखी था।

उस दिन के बाद घिसटते हुए वह कहीं खो गया।...

उसे याद आया।

उसके पिता वाई. के. मेडिकल स्टोर में नौकरी करते थे। वाई. के. मेडिकल स्टोर के मालिक सेठ रामपाल का शहर मे बड़ा नाम था। वे दवाओं के सबसे बड़े होल सेलर थे। पिता यानी राम बाबू उनके सबसे विश्वस्त कर्मचारी, जिन पर लाखों के कारोबार का जिम्मा था। उनकी तनख्वाह भी सबसे अधिक थी। परिवार मौज से चल रहा था। पढ़ाई-लिखाई। दवा-दारू सब। माँ बहुत खुश थी, पर एक दिन ऐसा कुछ हुआ, सेठ जी के गल्ले से पचास हजार रुपये गायब हो गए। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि संदेह राम बाबू पर गया।

पिता घबड़ा कर भाग आए। किसी से कुछ नहीं कहा। बस कमरा बन्द कर लिया। माँ से भी कुछ नहीं। वे बहुत नर्वस थे। किसी को कुछ पता ही नहीं चला। थोड़ी देर बाद उनके पीछे पुलिस आई।

कमरा खुलवा कर जबरन घसीट कर ले गई," साला चोर! जिस पत्तल में खाता है, उसी में छेद करता है।" दारोगा ने कहा।

तमाशा लग गया। उन्हें मार और गालियाँ पड़ रही थीं। वे गिड़गिड़ा रहे थे। अपनी बेगुनाही का रोना रो रहे थे। अपमान और जलालत! माँ रो रही थी। हम सब डर और भय से काठ! पिता ने चोरी नहीं की होगी। यह हमारा खयाल था, पर उनके छूट कर आने के बाद भी मुहल्ले वाले हमें चोर कहते।  राजन का स्कूल जाना भी  भी दूभर हो गया था। पिता चुप और खामोश! किसी से कुछ बोलते ही नहीं। सब टूट-बिखर रहा था। हम गाँव लौटने वाले थे, तभी मोटर गाड़ी पर शाम को रामपाल सेठ आए। उन्होंने पिता जी से अपनी गलती मानी। रुपये लेकर उनका बड़ा लड़का श्याम पाल कलकत्ता चला गया था। लौटा, तो घटना घट चुकी थी। कुछ दिनों बाद उसने पिता से सच्चाई बताई, तो वे भी दुखी हुए।

पिता रोते रहे। रामपाल हाथ पकड़ कर ले गए। वे क्या कर सकते थे, उनके पास विकल्प ही क्या था। पर उनकी अपनी आँखों में भी वह इज्जत नहीं लौटी। चोर का ठप्पा क्या लगा घर में वह खुशी नहीं लौटी। वे बाद के दिनों में भी सूखते चले गए।

उसने अपनी सोच को झटका दिया, फिर वही बात! कोई बात उसके दिमाग से निकलती क्यों नहीं है? उसके पीछे पड़ जाती है। वह सोचती है, तो सोचती चली जाती है रेल गाड़ी की तरह...

बुआ की बेटी की शादी में माँ के साथ  वह रेल गाड़ी पर बैठ कर जमशेदपुर गई हुई थी। बुआ की बेटी का विवाह था। फूफा वहीं टाटा की  किसी फैक्ट्री में काम करते थे। अनीता दी, किन्नी दी, और डोली दी पूरे परिवार के साथ आई हुई थीं। पूरा जमघट था। और भी बहुत से लोग आए हुए थे। गीत-नाद का माहौल और हँसी-खुशी का माहौल-

मेरी लाडो की शादी में लाज रखना।

ओ दूल्हे राजा मेरी लाडो की शादी में

एक नहीं, दो नहीं सात बहना

बस मेरी लाडो का हाथ गहना......

 गिनती की बहन वह!

उसने फिर सिर को झटका दिया, वह क्या सोच रही है? मुहल्ले में चोरी हो रही है, तो यह चोर-चोर क्या हो रहा है उसके दिमाग में? वह उठी और टहलने लगी। तुम जो नहीं चाहते हो, वही होता है,

तुम्हारे साथ तुम्हारा दिमाग चलता है, तुम बैठो तब भी...चीजें कहाँ भूलती हैं। कोई न कोई बात ऐसी हो जाती है कि सारी बातें नासूर बन जाती हैं। कितनी खुश थी वह, पर उसकी खुशी पर काले धब्बे लग गए। अवसाद को कितना भी धोओ, कहाँ धुलता है...

... 

उस भीड में अचानक बुआ की एक चेन चोरी चली गई। दुर्भागय से संदेह उसी पर गया। उन लोगों की तुलना में सबसे गरीब परिवार  उन्हीं लोगों का था; इसलिए शक की उँगली!

वह रात भर रोती रही। भगवान -भगवत्ती को हाथ जोड़ती रही कि चेन मिल जाए। अपमान और शर्म से लाज के मारे उसका मरण हो रहा था। उसे लग रहा था, जैसे सब की आँखें उसी पर हैं, सब उसे  देख कर हँस रहे हों ।

बुआ बार-बार कह रही थी," देखो रमा जरा चेन ढूँढना। नजर पड़े तो कहना। वैसे भी वह चेन तुम्हारे लिए ही बनवा रखा था..."

अब क्या कहे वह?सवेरे भी वही ताना। वही चुटकी। वही तिक्त बोल आखिर माँ ने तड़प कर कहा," लाल दाय हमारी गरीबी का इतना मजाक नहीं उड़ाइए। हम लोग अभी चले जाते हैं। गिफ्ट तो मिल ही गया। रमा के भाग में सोना-जेवर कहाँ?"

माँ सामान समेटने लगी, "ट्रेन कब है?"

"जग घिना रही हो?" फूफा कड़के, "देखोगी?"

उनका  ड्रामा शुरू हुआ। वह  बुआ को डाँटने लगे, हाथ पकड़ लिया फूफा ने। बुआ भी माफी माँगने लगी। पर विवाह में उसका मन उदास रहा। वहाँ से आने के बाद भी कान में बुआ के बोल कसैल घोलते रहे। पिता से बात छुपाई गई। वे जानते, तो उन पर क्या बीतता.....

अचानक उसका ध्यान भंग हुआ। बाहर बहुत से लोग एक साथ चिल्ला रहे थे," चोर- चोर- चोर पकड़ो, भागे नहीं पकड़ो। "वह दौड़ी  जानें क्यों, दहशत से बेजान और जाकर सामने के गेस्ट रूम में बन्द हो गई। झुरझुरी सी हो रही थी पूरी देह में! उसे लगा जैसे डर से उसकी साँसें घुट रही हों...धीरे-धीर शोर गुम होता रहा उसकी चेतना में...खट!

उसका दिल धड़का। खट! वह और दुबक गई ,खट!

"रमा दरवाजा खोलो।" विवेक और बच्चे स्कूल से लौट कर दरवाजा पीट रहे थे।

"कौन?" उसकी आवाज घुट रही थी ।

"दरवाजा खोलो।" उधर आवाज तेज हो रही थी।

"मम्मी..."  राजू चिल्ला रहा था," दरवाजा खोलो..."

दरवाजा सहमते हुए खोला उसने," चो…र..."

"कहाँ है चोर?" विवेक और बच्चे हँस रहे थे।

वह पसीने से लथपथ थी," बाहर बहुत शोर हो रहा था। चिल्लाने की आवाजें...लोग दौर रहे थे, मारो, पकड़ो।"

" तुम क्यों परेशान हो रही हो?" विवेक ने घबरा कर कहा," मेरा मतलब है तुम अंदर क्यों बन्द हो गई ?"

" मैं डर गई..." वह दम लेकर बोली," हल्ला-गुल्ला इधर ही तो हो रहा था.."

"अरे क्या कह रही हो, कोई बच्चा था , सिन्हा साहब की दीवार पर चढ कर नींबू तोड़ रहा था,।डर कर नींबू भी फेंक कर कर भागा। लोगों ने पकड़ लिया, फिर छोड़ भी दिया।"

वह किसी अंदेशे से चौकी," फिर सब चीख-चिल्ला क्यों रहे थे... इतना शोर... मैं तो हलकान हो गई .... मैं दौडकर भागी...."

"तुम डरपोक हो.."  विवेक ने हँस कर कहा," तुम्हें पुलिस पकड़कर ले जाएगी..."

"क्या कह रहे हो?" अविश्वास से उसने कहा, "चोर नहीं था?... कहीं छिप गया हो, बच्चा नहीं भाग सका हो..."

" इसलिए पुलिस दूसरे को पकड़े।"

" क्या?" रमा हैरान हुई," पुलिस..."

"चुप भी करो।" विवेक ने तंज से कहा," मुहल्ले के लोग पागल हो गए हैं। एक दिन चोर क्या आया...किसी को चोर कह कर पकड़ने के लिए दौड़ पड़ते हैं.... तुम  इतना मानसिक रूप से तुरत परेशान क्यों हो जाती हो...."

" चोओओर..." वह बुदबुदायी,पर उसे लगा अभी भी कोई उसके अंदर चोर-चोर चीख रहा हो.... उसने फ्रीज से निकाल कर पानी पीया, तो उसका मन थोड़ा सहज हुआ...

...

महरी आ गई थी। कह रही थी," एक नींबू के लिए इतना चोर-चोर का हल्ला...मुआ पकड़ना है, तो अपने मन के चोर को पकड़ो, तब जानों।बीस बरस से बर्त्तन घिस रही हूँ  घर-घर।सब जानती हूँ। खाली गरीब-गुरबा ही चोर होवे है क्या?"

"तुम अपना काम करो।" विवेक ने कहा,।

"मैंने कुछ गलत कहा क्या?" महरी तुनककर बोली," मेहरा साहब के घर छापा पड़ा, तो बाथरूम से , बिस्तर से कचड़ा घर से नोटों की बंडल निकले, पर छूट गए... कोई बोले तो चोर...  गरीब  चोरी नहीं भी करे, तो सब उसी पर शक करे... एक बार मुझे भी एक घर में चोर  बनाया लोगों ने, दूसरे दिन सामान मिल गया , तो निहोरा करने लगे, पर मैंने काम छोड़ दिया.... गरीब की इज्जत नहीं होवे क्या? अमीरों की चोरी के नौ रंग... गरीब पर मूसरचंद..."

"कहा न तुम चुप रहो।" विवेक ने डाँटा, तो वह चुप हो गई।

रमा जाने कहाँ खो हुई थी। उसका मन हुआ कहे, "महरी ठीक तो कह रही है विवेक।" पर वह  महरी के साथ  काम में मशरूफ़ हो गई। 

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सम्पर्कः प्रिंसिपल, पूर्णिया महिला कॉलेज पूर्णिया- 854301 रचनात्मक उपलब्धियाँ- हंस, कथादेश, वागर्थ, आजकल, पाखी, नवनीत, कथाबिंब, अहा जिंदगी, परिंदे,  वर्त्तमान साहित्य, पाखी, साखी, कहन कला, किताब, दैनिक हिन्दुस्तान, प्रभात खबर आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।, 9431867283

1 comment:

रश्मि लहर said...

बहुत बढ़िया