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Aug 1, 2022

लघुकथाः आशीर्वाद

- आशमा कौल

शनिवार की भीगी-सी शाम में सुनील अपने बीवी-बच्चों के साथ खूबसूरत पलों का लुत्फ उठा रहा  था। बाहर हल्की-हल्की बारिश हो रही थी और अंदर सब गर्म-गर्म पकोड़े और चाय का मज़ा ले रहे थे।  चाय पीकर राधिका लूडो ले आई और सब उस खेल में मस्त हो गए ।

कहीं से फिल्म आनंद का गीत -“कहीं दूर जब दिन ढल जाए ” धीमा- धीमा सुनाई दे रहा था ।

खेल के बीच – बीच में छवि चिल्लाती -“ पापा आपका टर्न है, आप कहाँ खो जाते हो बार-बार।”

“ बेटा तुम खेलो, मैं थक गया हूँ”- कहते हुए सुनील उठने को हुए तो छवि ने हाथ पकड़कर लाड़ जताया- “ मुझे तो अपने पापा के साथ खेलना अच्छा लगता है; लेकिन पापा तो जाने कहाँ गुम हैं, मुझे प्यार भी नहीं करते।”

“ नहीं बेटा ऐसा कुछ नहीं है” अपनी भीगी आँखों को दूसरी तरफ छिपाते हुए सुनील ने कहा । नीरज घूरते हुए बोला- “अरे! पापा रो रहे हैं। उनकी आँखें गीली हैं।”- सभी एक स्वर में चिल्लाए-

 “ पापा क्या हुआ ?” अब तो सुनील की आँखें छम-छम बहने लगी। अपने आँसू छिपाते हुए सुनील ने कहा- “ देखो बच्चों, जैसे तुम्हें मुझसे प्यार है, मेरे साथ समय बिताना अच्छा लगता है, उसी तरह मुझे भी अपने पापा से बहुत प्यार था और ऐसे मौसम में वह मेरे लिए समोसे जरूर लाते थे। आज तुम्हारा लाड़ देखकर मेरा बालमन भी भावुक हो उठा हैं।”

बच्चों, आज अगर पिताजी हमारे बीच होते तो वह तुम सबका प्यार देख कर कितने खुश होते। बस, यही सोचकर मेरी आँखें भर आईं हैं।”

दादी जो सब देख सुन रही थी, बोली- “बेटा, आज तुम्हारे पिताजी नहीं हैं, लेकिन उनका पूरा आशीर्वाद हम सब पर साये की तरह है, इसीलिए तो यह घर इतना खुशहाल है। ”

सुनील को ऐसा महसूस हो रहा था की बाहर वातावरण में फैली नमी और खुशबू उसके भीतर अंतर्मन को सुखद एहसास से भिगो रही है । 

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