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Sep 10, 2011

प्रकृति का प्रतिशोध

यह तो हम सब जान ही गए हैं कि प्रकृति से छेड़छाड़ मानव सभ्यता के विनाश का कारण है। जब भी हमने प्रकृति के नियमों में दखलअंदाजी की है प्रकृति ने बाढ़, सूनामी, भूकंप जैसी विनाशकारी आपदाओं के जरिए हमें दंड दिया है। इन दिनों सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया प्रकृति की नाराजगी के रूप में हमें इशारा कर रही है कि हमने अब भी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बंद नहीं की तो मानवता का सर्वनाश अवश्यंभावी है।
प्रकृति के साथ जिस तरह का व्यवहार हम कर रहे हैं उसी तरह का व्यवहार वह भी हमारे साथ कर रही है। दरअसल प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा जलवायु परिवर्तन के किस रूप में हमारे सामने होगा यह नहीं कहा जा सकता। जलवायु परिवर्तन का एक ही जगह पर अलग-अलग असर हो सकता है। यही कारण है कि इस बार हम मौसम विभाग की भविष्यवाणियों के बावजूद बाढ़ और बारिश का ऐसा पूर्वानुमान नहीं लगा पाए जिससे कि लोगों के जान-माल की पर्याप्त सुरक्षा की जा सके। मौसम विभाग के अनुसार भारत में सितम्बर के आरंभ में मानसून समाप्त हो जाता है लेकिन इस वर्ष यह आज तक जारी है, यही नहीं यह मानसूनी वर्षा अक्टूबर तक भी खिंच सकती है, जो असमान्य बात है।
दिल्ली में एक ही दिन तीन घंटे तक हुई बारिश में इतना पानी बरस गया जितना पूरे महीने में बरसता है। परिणामत: दिल्ली की सभी सड़कें नदियों में परिवर्तित हो गईं। यहां तक कि सबसे आधुनिक हवाई अड्डा ढाई फुट पानी में डूब गया। आज कुछ ही घंटों की बारिश में रेल, बसें सभी कुछ बंद हो जाती हैं जिससे जन- जीवन अस्त- व्यस्त हो जाता है। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार जैसे अनेक राज्यों में इस वर्ष हुई बाढ़ की तबाही से जान- माल का इतना भयानक नुकसान हुआ है कि उसका अनुमान लगाना भी संभव नहीं है।
ऐसा ही कुछ मंजर पूरे एशिया में नजर आया है पाकिस्तान का सिन्ध क्षेत्र और थाईलैंड जैसे देश भयानक बाढ़ की आपदा से ग्रसित हैं। सिन्ध में बाढग़्रस्त पीडि़तों की संख्या 65 लाख से ज्यादा हो गई है। और चीन की बात करें तो वहां के इतिहास में सबसे विकराल बढ़ इस बार आई है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार वहां 12 करोड़ 30 लाख लोग बाढ़ से पीडि़त हैं। प्रकृति अपना रंग कैसे- कैसे दिखाती है उसका ज्वलंत उदाहरण है भूटान जहां एक हिस्से में तो बाढ़ ने तबाही मचा दी पर वहीं दूसरे हिस्से को जरा भी नुकसान नहीं पंहुचा। वैज्ञानिक उसका एकमात्र कारण उस हिस्से के जंगलों का बचा रहना मानते हंै। तो हम सबको यह स्पष्ट तौर पर जान लेना होगा कि प्रकृति का प्रकोप अकल्पनीय व विकराल होता है।
जहां तक नगरों और महानगरों में बाढ़ से होने वाली तबाही है तो जल निकासी की माकूल व्यवस्था का न होना उसका स्थाई कारण बनता है। मुंबई में 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकार भी स्वीकार करती रही है। जब कभी शहरों में बाढ़ आती है तो सरकार का पहला और अंतिम कदम राहत कार्य पहुंचाता होता है, जो कि तात्कालिक उपाय होता है, लेकिन बाढ़ के कारणों पर शासन और प्रशासन स्थाई रूप से रोक लगाने में अक्षम होता है। बाढ़ को हम प्राकृतिक आपदा के रूप में देखते हैं लेकिन जब हमारे नगरों की सड़कें नदियां बन जाती हैं तो इसका कारण प्राकृतिक नहीं मनुष्य स्वयं जिम्मेदार होता है। नगर-निर्माण के दौरान भविष्य में होने वाली ऐसी प्राकृतिक आपदाओं को ध्यान में रखकर कोई भी योजना नहीं बनाई जाती। बाढ़ के संदर्भ में देखें तो आधारभूत सुविधा के लिए सड़क और नाले तो बना दिए जाते हैं परंतु प्रति वर्ष किए जाने वाले उनके रख- रखाव की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता। नतीजा दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में साल दर साल आ रही बाढ़ की समस्या है जिसका एकमात्र सबसे बड़ा और प्रमुख कारण सीवरों और नालों की सफाई- व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार है।
आज हम यह भूल चुके हैं कि सदियों से प्रकृति भारी बारिश के माध्यम से धरती को उपजाऊ बनाने का पावन कार्य करती थी। बारिश का पानी पहाड़ों से बहता हुआ अपने साथ पहाड़ों की उपजाऊ मिट्टी भी फसल वाली धरती तक फैलाता हुआ चला जाता था, तभी तो हमारी धरती शस्य- श्यामला और सुजला- सुफला बनी हुई थी। भारत को सोने की चिडिय़ा यूं ही नहीं कहा जाता था। लेकिन तब मनुष्य अपनी बुद्धिमता का प्रयोग अपनी धरती मां की उन्नति और उसे बचाए रखने के लिए करता था न कि अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए।
वर्तमान में अपने क्षणिक लाभ के लिए मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का जिस बेदर्दी से अंधाधुंध दोहन किया है, उसका लाभ तो उसे त्वरित नजर आया लेकिन वह लाभ उस नुकसान की तुलना में नगण्य है जो समूचे पर्यावरण, प्रकृति एवं उसमें रहने वाले प्राणियों को उठाना पड़ रहा है। इन दिनों जैसा दृश्य समूचे विश्व में प्राकृतिक-असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण के रूप में दिखाई दे रहा है वह सब मानवीय भूलों का ही परिणाम है, अत: दुनिया में मानवता को यदि बचा कर रखना है तो सबकी भलाई इसी में है कि हम जिस डाल पर खड़े हैं, उसी को काट गिराने का आत्मघाती कदम न उठाएं। हम इस तथ्य को भली-भाँति समझ लें कि प्रकृति का संतुलन ही समस्त मानवता की प्राणवायु है।


-डॉ. रत्ना वर्मा

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