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Jul 23, 2012

आपके पत्र मेल बॉक्स

मेरा सुझाव

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गिरीश पंकज का लेख मई अंक की उपलब्धि है। उनकी पंक्तियां 'खुद को अल्लाह जो मानने लगे, ऐसे हर शख्स को इंसान करेंगे...' पत्रकारिता जगत के मूल कत्र्तव्यों में है। लेकिन खेद है कि आज इसका ठीक उल्टा हो रहा है और खुद को पत्रकार कहने वाले लोग व्यक्तियों को ईश्वर का दर्जा दिला रहे हैं तथा इस प्रक्रिया में चांदी काट रहे हैं। इसी अंक में सौंदर्य की नई परिभाषा को लेकर महिला आयोग की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती ममता शर्मा द्वारा की गई टिप्पणी पर लोकेंद्र सिंह राजपूत की प्रति-टिप्पणी सटीक लगी। ब्लॉग बुलेटिन एक अच्छा कॉलम है। मेरा सुझाव है इसमें अलग- अलग विषयों पर सक्रिय हिंदी ब्लॉगों का परिचय दिया जाए, तो ज्यादा उपयोगी होगा। मसलन इंटरनेट पर व्यक्तित्व विकास, प्रेरणा, कानूनी सलाह, मीडिया, भाषा- व्याकरण आदि पर केंद्रित कई दिलचस्प ब्लॉग हैं, जो आम पाठकों के लिए मनोरंजक, ज्ञानवर्धक और सहायक भी हैं।

- विवेक गुप्ता, भोपाल, vivekbalkrishna@gmail.com

स्कूलों में लेपटॉप

नन्हें कन्धों पर भरी बस्ता अनकही में आपकी चिंता बहुत वाजिब है। प्रतिस्पर्धा के इस युग में पलकगण विवशता से इस दु:ख को सहन और वहन करते हैं। लगता है आने वाले दिनों में स्थिति बदलेगी और इसका श्रेय भी विज्ञान को जायेगा हमारी समझ को नहीं। बहुत जल्दी स्कूलों में लेपटॉप को जगह मिलने वाली है। इसमें कोर्स की किताबें लोड होंगी, सो किताबों का बोझ समाप्त होगा। होमवर्क लेपटॉप, कम्प्यूटर, सीडी और पेन ड्राइव की सहायता से होंगे, सो कापियों का बोझ नहीं रहेगा, लेकिन तकलीफ तब भी रहेगी, बच्चों को आँखों की समस्या होगी, लिखना भूल जायेंगे। यह देखना होगा कि क्या बच्चे फायदे में रहेंगे ? बहरहाल आपका लेख सोचने पर विवश करता है।
- जवाहर चौधरी, इन्दौर, jc.indore@gmail.com

कालजयी कृतियां

उदंती का नया अंक अच्छा लगा टैगोर जी की कविता और कहानी दोनों ही कालजयी कृतियां है। इन सबसे ही साहित्य समृद्ध हुआ है। अनकही के माध्यम से जो आपने कहा है वह आज के समाज में एक बड़ी विडंबना है शारीरिक बोझ से कहीं अधिक बच्चों पर शिक्षाक्रम का भी बोझ बढ़ता जा रहा है इसका एक कारण समाज में ज्ञान का निर्माण जिस गति से हुआ है उतनी ही तीव्रता से बच्चों से भी उसे सीख जाने की अपेक्षा कर रहें है। हम अपनी महत्वाकांक्षाओं की होड़ में बच्चों को उनके बचपन से दूर कर रहें है। उनकी नैसर्गिक क्षमताओं से कहीं अधिक अपेक्षा करने लगे है। अच्छा साहित्य पढऩे के लिये उपलब्ध कराने के लिये धन्यवाद।
- श्रीदेवी, रायपुर (छ.ग.)

उम्मीद

नया अंक देखा, मुखपृष्ठ कमाल का है बधाई। सफेद शेर की कहानी में कुछ झोल है। मुझे लगा कि आपको मैत्री बाग की याद आएगी। अफसोस ऐसा नहीं हुआ। एक संपादक से इतनी उम्मीद ज्यादा तो नहीं।
अशोक कुमार सिंघई, भिलाई (छ.ग.), ashoksinghai@ymail.com

बस्ते का बोझ

अनकही: नन्हें कंधों पर भारी बस्ता में कही गई बातों से सहमति जताते हुए मैं ये कहना चाहती हूं कि ये बस्ते का बोझ और आजकल के 45 डिग्री तापमान में समर कैम्प के नाम पर नन्हें- नन्हें बच्चों के साथ जो खिलवाड़ करने का रिवाज इन पब्लिक स्कूलों में चलना शुरू कर दिया है वह कभी ही बच्चे के स्वस्थ मानसिकता या विकास के लिए जरूरी नहीं है। बच्चों पर बस्ते और मोटी- मोटी किताबों के बोझ से बच्चे अपना बचपन खो चुके है। उन्हें गर्मियों में भी इतना होम वर्क दिया जाता है कि वे नहीं जानते कि छुट्टियाँ क्या होती हैं? इसमें परिवर्तन होना जरूरी है।
-रेखा श्रीवास्तव, rekhasriva@gmail.com

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