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Jul 25, 2012

जन्म शताब्दी वर्षः मैं क्यों लिखता हूँ?

- सआदत हसन मंटो
मैं क्यों लिखता हूँ? यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूँ... मैं क्यों पीता हूँ... लेकिन इस दृष्टि से मुखतलिफ है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च करने पड़ते हैं और जब लिखता हूँ तो मुझे नकदी की सूरत में कुछ खर्च करना नहीं पड़ता। पर जब गहराई में जाता हूँ तो पता चलता है कि यह बात गलत है इसलिए कि मैं रुपए के बलबूते पर ही लिखता हूँ।
अगर मुझे खाना-पीना न मिले तो जाहिर है कि मेरे अंग इस हालत में नहीं होंगे कि मैं कलम हाथ में पकड़ सकूँ। हो सकता है, $फाकाकशी की हालत में दिमाग चलता रहे, मगर हाथ का चलना तो जरूरी है। हाथ न चले तो जबान ही चलनी चाहिए यह कितनी बड़ी ट्रेजडी है कि इंसान खाए-पिए बगैर कुछ भी नहीं कर सकता।
लोग कला को इतना ऊँचा रूतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें आसमान से मिला देते हैं। मगर क्या यह हकीकत नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज एक सूखी रोटी की मोहताज है?
मैं लिखता हूँ इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं लिखता हूँ इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूँ ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूँ।
रोटी और कला का संबंध प्रगट रूप से अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए कि ख़ुदाबंद ताला को यही मंजूर है। वह ख़ुद को हर चीज से निरपेक्ष कहता है- यह गलत है। वह निरपेक्ष हरगिज नहीं है। इसको इबादत चाहिए। और इबादत बड़ी ही नर्म और नाजुक रोटी है बल्कि यूँ कहिए, चुपड़ी हुई रोटी है जिससे वह अपना पेट भरता है।
मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज खाविंद से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए जर्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत अपने खाविंद से लड़कर और खुदकशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं खाविंद को दो घंटे सख्त परेशानी की हालत में देखता हूँ तो मुझे दोनों से एक अजीब व गरीब किस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है। किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए तो मैं उसे जुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ जरूर खींचेगा जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ों लड़कियाँ जान देती हैं लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीडि़त वाशिंदा। इस बजाहिर कामयाब आशिक की रंगीन बातों में जो ट्रेजडी सिसकियाँ भरती होगी, उसको मैं अपने दिल के कानों से सुनूंगा और दूसरों को सुनाऊंगा।
चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मिनान से सो जाती है, मेरे अ$फसानों की हीरोइन नहीं हो सकती। मेरी हीरोइन चकले की एक टखयाई रंडी हो सकती है। जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी- कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाजे पर दस्तक देने आ रहा है। उसके भारी- भारी पपोटे, जिनमें वर्षों की उचटी हुई नींद जम गई है, मेरे अ$फसानों का मौजूँ (विषय) बन सकते हैं। उसकी गलाजत, उसकी बीमारियाँ, उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ-ये सब मुझे भाती हैं- मैं उसके मुताल्लिक लिखता हूँ और घरेलू औरतों की शस्ताकलामियों, उनकी सेहत और उनकी न$फासत पसंदी को नजरअंदाज कर जाता हूँ।
सआदत हसन मंटो लिखता है इसलिए कि यह खुदा जितना बड़ा अ$फसाना साज और शायर नहीं, यह उसकी आजिजी जो उससे लिखवाती है।
मैं जानता हूँ कि मेरी शख्सियत बहुत बड़ी है और उर्दू साहित्य में मेरा बड़ा नाम है। अगर यह ख़ुशफ़हमी न हो तो जिंदगी और भी मुश्किल बन जाए। पर मेरे लिए यह एक तल्$ख हकीकत है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूंढ नहीं पाया हूँ। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है।
मुझसे पूछा जाता है कि मैं शराब से अपना पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेता? मैं अपनी जिंदगी का तीन- चौथाई हिस्सा बदपरहेजियों की भेंट चढ़ा चुका हूँ। अब तो यह हालत है- मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ।
मैं समझता हूँ कि जिंदगी अगर परहेज से गुजारी जाए तो एक कैद है। अगर वह बदपरहेजियों से गुजारी जाए तो भी एक कैद है। किसी न किसी तरह हमें इस जुराब के धागे का एक सिरा पकड़कर उधेड़ते जाना है और बस।

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