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Jul 25, 2012

उसने कहा था

  उसने कहा था
- चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
बड़े- बड़े शहरों के इक्के- गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगावे। जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन- संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगो से डाक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखो के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरो की अंगुलियों के पोरों की चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार भर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में हर एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर... बचो खालसाजी, हटो भाई, ठहरना भाई, आने दो लालाजी, हटो बाछा कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बतको, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं, चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढिय़ा बार- बार चिटौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं- हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमाँ वालिए, हट जा, पुत्तां प्यारिए। बच जा लम्बी वालिए। समष्टि में इसका अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियों के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे बम्बू कार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बडिय़ाँ। दुकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी गिने बिना हटता न था।
- तेरा घर कहाँ है?
- मगरे में। ...और तेरा?
- माँझे में, यहाँ कहाँ रहती है?
- अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं।
- मैं भी मामा के आया हूँ, उनका घर गुरु बाजार में है।
इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ- साथ चले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकरा कर पूछा- तेरी कुड़माई हो गई? इस पर लड़की कुछ आँखे चढ़ाकर धत कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह देखता रह गया।
दूसरे तीसरे दिन सब्जी वाले के यहाँ, या दूध वाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना भर यही हाल रहा। दो- तीन बार लड़के ने फिर पूछा- तेरे कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही धत मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली- हाँ, हो गई।
- कब?
- कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू। ... लड़की भाग गई।
लड़के ने घर की सीध ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले में दूध उंडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
- होश में आओ। कयामत आयी है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आयी है।
क्या? लपटन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गये हैं। उनकी वर्दी पहन कर कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा है, और बातें की हैं। सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।
तो अब? अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा उधर उन पर खुले में धावा होगा। उठो, एक काम करो। पलटन में पैरो के निशान देखते- देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गये होंगे। सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ। पत्ता तक न खुड़के। देर मत करो।
हुकुम तो यह है कि यहीं...
ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम है... जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।
पर यहाँ तो तुम आठ ही हो।
आठ नहीं, दस लाख। एक एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।
लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह- जगह खंदक की दीवारों मे घुसेड़ दिया और तीनों मे एक तार सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी रखने... बिजली की तरह दोनों हाथों से उलटी बन्दूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा । धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी । लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब आँख! मीन गाट्ट कहते हुए चित हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन- चार लिफाफें और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएँ एक- एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते है, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है। लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह धत कहकर भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा हाँ, कल हो गयी, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू?
साहब की मूर्छा हटी। लहना सिह हँसकर बोला- क्यों, लपटन साहब, मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिना डैम के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।
लहनासिंह ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनों हाथ जेबो में डाले। लहनासिंह कहता गया चालाक तो बड़े हो, पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखे चाहिएँ। तीन महीने हुए एक तुर्की मौलवी मेरे गाँव में आया था। औरतों को बच्चे होने का ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़- पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपये निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है। डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था। मैंने मुल्ला की दाढी मूंड़ दी थी और गाँव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रखा तो साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल- क्रिया कर दी।
धड़ाका सुनकर सब दौड़ आये।
बोधा चिल्लाया क्या है?
लहनासिंह में उसे तो यह कह कर सुला दिया कि एक हड़का कुत्ता आया था, मार दिया और औरो से सब हाल कह दिया। बंदूके लेकर सब तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कसकर बांधी। घाव माँस में ही था। पट्टियो के कसने से लहू बन्द हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहना, सिंह तक- तक कर मार रहा था। वह खड़ा था और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाईयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े मिनटों में वे... अचानक आवाज आयी वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दी खालसा! और धड़ाधड़ बंदूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पडऩे लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्कों के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालो ने भी संगीन पिरोना शुरु कर दिया।
एक किलकारी और  अकाल सिक्खाँ दी फौज आयी। वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दी खालसा! सत्त सिरी अकाल पुरुष! और लड़ाई खत्म हो गई। तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर-पार निकल गयी। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया। और बाकी का साफा कसकर कमर बन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर नहीं हुई कि लहना के दूसरा घाव भारी घाव लगा है। लड़ाई के समय चांद निकल आया था। ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में दंतवीणो पदेशाचार्य कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन- मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटो से चिपक रही थी जब मैं दौड़ा- दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर उसकी तुरन्त बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते। इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलिफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडिय़ाँ चली, जो कोई डेढ़ घंटे के अन्दर पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते- होते वहाँ पहुँच जाएंगे, इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गए और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिह की जाँघ में पट्टी बंधवानी चाही। बोधसिंह ज्वर से बर्रा रहा था। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जायेगा। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा तुम्हें बोधा की कसम हैं और सूबेदारनी जी की सौगन्द है तो इस गाड़ी में न चले जाओ।
  और तुम?
  मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना। और जर्मन मुर्दो के लिए भी तो गाडिय़ाँ आती होगीं। मेरा हाल बुरा नहीं हैं। देखते नहीं मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।
  अच्छा, पर...
  बोधा गाड़ी पर लेट गया। भला, आप भी चढ़ आओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को चि_ी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना।
और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझ से जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया।
गाडिय़ाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते- चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?
अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना।
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया।  वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएँ एक- एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते है, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है। लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह धत कहकर भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा हाँ, कल हो गयी, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू? यह सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ । क्यों हुआ?
वजीरासिंह पानी पिला दे।
पच्चीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं. 77 राइफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमे की पैरवी करने वह घर गया। वहाँ रेजीमेंट के अफसर की चि_ी मिली। फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चि_ी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं, लौटते हुए हमारे घर होते आना। साथ चलेंगे।
सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा। जब चलने लगे तब सूबेदार बेड़े में निकल कर आया। बोला लहनासिंह, सूबेदारनी तुमको जानती है। बुलाती है। जा मिल आ।
लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजीमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जाकर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
  मुझे पहचाना?
  नहीं।
तेरी कुड़माई हो गयी? ... धत... कल हो गयी... देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू... अमृतसर में...
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
  वजीरासिंह, पानी पिला उसने कहा था ।
स्वप्न चल रहा हैं। सूबेदारनी कह रही है मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोड़ों की लातो पर चले गये थे। और मुझे उठाकर दुकान के तख्त के पास खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ।
रोती- रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गयी। लहनासिंह भी आँसू पोछता हुआ बाहर आया।
वजीरासिंह, पानी पिला उसने कहा था।
लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरासिंह बैठा है। जब मांगता है, तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना फिर चुप रहा, फिर बोला कौन? कीरतसिंह?
वजीरा ने कुछ समझकर कहा हाँ।
भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।
वजीरा ने वैसा ही किया।
हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस। अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा- भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही बड़ा यह आम, जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैंने इसे लगाया था।
वजीरासिंह के आँसू टप- टप टपक रहे थे। कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा - फ्रांस और बेलजियम 67वीं सूची मैदान में घावों से मरा न. 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ऐसे अकेले कथा लेखक थे जिन्होंने मात्र तीन कहानियां लिखकर कथा साहित्य को नई दिशा और आयाम प्रदान किये। गुलेरी की साहित्यिक सक्रियता की अवधि कम है। उनका जन्म 1883 ई. में हुआ और 1922 ई. में उनका निधन हो गया। उनकी तीन कहानियों में - पहला सुखमय जीवन 1911 ई. में भारत मित्र में छपी। दूसरा उसने कहा था जो उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण और हिंदी साहित्य की अब तक की श्रेष्ठ कहानी मानी जाती है, 1915 ई. में छपी। उनकी तीसरी कहानी बुद्धू का कांटा है। यह हिंदी कहानी के विकास का आरंभिक समय था।

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