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Oct 1, 2025

पर्व- संस्कृतिः छत्तीसगढ़ की दीपावली में मिट्टी कला

- डॉ. सुनीता वर्मा

दीपावली सारे उत्तर भारत का एक प्रमुख पर्व है। छत्तीसगढ़ में भी यह सर्वत्र मनाया जाता है। उत्तर भारत में यह लक्ष्मी पूजा का दिन है। बंगाल में इसे काली पूजा के दिन के रूप में मनाते हैं। स्पष्ट है कि यह उत्सव, देवी-पूजा की तरह शक्ति की आराधना है। सामान्यजन के बीच लक्ष्मी घन-धान्य और सुख- सम्पदा का प्रतीक है। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ में अनेक जगहों में मिट्टी की लक्ष्मी बना जाती है, पर अनेक जगहों पर तस्वीरों या काँसे- पीतल की मूर्तियों से भी काम चलाया जाता है। लक्ष्मी पूजा और प्रतिमा निर्माण की प्राचीनता का उल्लेख करते हुए डॉ. ब्रजभूषण श्रीवास्तव ने लिखा है - “'सैन्धव, सभ्यता में समृद्धि की देवी या देवता के रूप में किसी की प्रतिष्ठा थी या नहीं थी, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता.... । ऋग्वेद में श्री और लक्ष्मी का प्रयोग अमूर्त संज्ञा के रूप में किया गया है। श्री शब्द का प्रयोग तेज, सौन्दर्य, शोभा, कान्ति, कीर्ति, विभूति तथा सम्पदा के अर्थों में हुआ है। लक्ष्मी का प्रयोग संज्ञा के रूप में किया गया है... श्री अथवा लक्ष्मी की प्रतिष्ठा ईसवी सन्‌ आरंभ होने के पूर्व ही देवी के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी । मौर्य शुंग काल में अलंकारों से सुशोभित अनेक देवियों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं ...। प्राचीन भारतीय कला में लक्ष्मी का गजलक्ष्मी रूप सर्वाधिक लोकप्रिय है।  श्री शुक्त में इस देवी को हस्तिनाद प्रमोदिनी अर्थात्‌ हाथी की चिंघाड़ से प्रसन्न होने वाली कहा गया है । (ब्रजभूषण श्रीवास्तव, प्राचीन भारतीय प्रतिमा विज्ञान व मूर्ति कला)

बाद में पुराणों में गजलक्ष्मी के इस रूप को विस्तार दिया गया। “छत्तीसगढ़ अंचल में भी गजलक्ष्मी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई  हैं।  पहली प्रतिमा राजीव लोचन मंदिर के प्राकार के प्रवेश द्वार के सिरदल के ललाट बिन्दु पर बना गई है। तथा दूसरी प्रतिमा इसी मंदिर के एक महामण्डप के एक स्तम्भ पर उकेरी ग है। ( डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर : राजिम, मूर्तिकला, हिन्दी ग्रन्थ अकादमीभोपाल )

दूसरी शती ईसवी पूर्व के भरहुत स्तूप की वेदिका पर ऐसी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जो लक्ष्मी की ही जान पड़ती हैं। इसमें कहीं देवी पद्मस्थिता है और कहीं पद्मग्रहा है। इसी रूप में साँची और बोध गया में अंकन हुआ है ....। गुप्तकाल तक आते-आते लक्ष्मी का विष्णु पत्नी रूप प्रतिष्ठित हो गया। गुप्तकालीन देवगढ़ के मंदिर में एक प्रतिमा उपलब्ध है, जिसमें विष्णु शेष-शय्या पर शयन कर रहे है और लक्ष्मी उनके चरण दबा रही हैं.... श्री ब्रजेन्द्र नाथ शुक्ल ने खजुराहों मंदिर में स्थित सिंहवाहिनी प्रतिमा का उल्लेख किया है।

छत्तीसगढ़ में दीपावली के अवसर पर बनने वाली तथा पूजित होने वाली मूर्तियों को देखकर यह स्प्ष्ट
होने लगता है कि इन मूर्तियों में भी गजलक्ष्मी की परम्परा का अत्यंत प्राचीन रूप आज तक सुरक्षित है।

ग्रामीण कुम्हारों द्वारा बनाई जाने वाली इनमें से अधिकतर मूर्तियाँ, सवर्णो से भिन्न अनेक जातियों के घरों में इस अवसर पर पूजा के उपयोग में लाई जाती हैं। दीपावली के पर्व पर पूजित देवी श्री लक्ष्मी के युगलरूप को अथवा विष्णु के साथ उसकी प्रतिमा को इस अंचल में संभवत: इस अवसर पर कहीं दिखाया नहीं जाता

, पर चतुर्भुजी लक्ष्मी का रूप अंचल के विभिन्न रूप में सर्वत्र देखने को मिलता है। इससे यह सूचित होता कि दीपावली के पर्व पर श्री सम्पदा की देवी लक्ष्मी अपने स्वतंत्र रूप में जनमानस द्वारा लम्बे अवसर पर लम्बे अरसे से पूजित होती रही है। इस अवसर पर बनने वाली लक्ष्मी की मूर्तियों आधी पकी मूर्तियाँ कहीं जा सकती हैं। नवाचार के रूप में इन मूर्तियों में किए गए रंग के काम को लिया जा सकता है। इनमें से ज्यादातर रंग, रंग-संयोजन के सुन्दर कलात्मक उदाहरण नहीं कहे जा सकते। चित्र में प्रदर्शित लक्ष्मी मूर्तियाँ इस तथ्य का प्रमाण हैं कि कलाकारों की सहज मानसिकता से ये निर्मित हैं। बेशक इनमें अनुपात की सुघड़ता कहीं भी कम नहीं हैं; लेकिन परम्परा से भिन्न किसी प्रतिमा का सृजन करना इस कलाकारों का उद्देश्य नहीं रहा है। इसमें इतनी बारीकी तो है ही कि वे प्रतिमा निर्माण की परंपरा को ध्यान में रखते हुए अपनी मूर्ति के अंगों को उचित रूप दें । इसीलिए चतुर्भुजी लक्ष्मी के दो हाथों में पैसा गिराने वाले लोटे को रखा गया है। पद्महस्त धारिणी की यह कल्पना ग्रामीण सरलता की सूचक तो है ही, एक अर्थ में वह आधुनिक प्रभाव की सूचक भी है। श्री की देवी के रूप में समृद्धि की स्वामिनी होने के बावजूद अतीत की मूर्तियों में लक्ष्मी मुद्रा के रूप में धन देती हुई नहीं दिखाई गई है। अतः यह कल्पना तो आधुनिक युग की कल्पना ही कही जा सकती है। हो सकता है कि मौद्रिक विनिमय के व्यापक प्रसार के बाद मध्ययुग में ही इस कल्पना को रूप मिल चुका हो। इन मूर्तियों के मुख पर कुछ भी ऐसा विशिष्ट भाव नहीं होता । मुख और नेत्रों के माध्यम से कलाकार प्रायः ही एक शान्त छवि संप्रेषित करता लगता है। प्रचुर परिमाण में बनाई जाने वाली इन मूर्तियों में ज्यादातर कुम्हार एक व्यावसायिक भूमिका निभाते नजर आते हैं। मूर्ति के स्त्री रूप के गढ़न में ही नहीं वरन उनके रंगों में भी ग्रामीण स्त्रियों की झलक पाई जाती है। छत्तीसगढ़ में जिस तरह के चटक रंग वाले कपड़े बहुतायत से पहने जाते हैं, इन मूर्तियों के रंग उसकी याद भी दिलाते हैं । कहा जा सकता है कि आमतौर पर इन मूर्तियों में समसामयिक सभ्यता का प्रभाव रंग लेपन के स्तर पर ही पड़ा है। इस कारण से ग्रामीण खरीददारों के बीच उनकी लोकप्रियता संभवत: बढ़ी है; लेकिन पहले के सादे रंगों की अनगढ़ कलात्मकता इससे कम ही हुई है।

दीपावली के अवसर पर कुम्हार कलाकारों के काम को लक्ष्मी की मूर्तियों के अतिरिक्त उसी की पूजा के लिए बनाए जाने वाले विशिष्ट प्रकार के दीयों में भी देखा जा सकता है। ये दीये घर-घर में जला जाने वाले दीयों से भिन्न होते हैं और इसकी कलात्मकता स्पष्ट रूप से उजागर होती है। इनके निर्माण में परम्परागत रूढ़ि का पालन नहीं किया गया है। लगभग डेढ़ फुट ऊँचे बेलनाकार आधार पर टिके ये दिये चाक्षुष और स्पर्श दोनों ही अनुभवों को एक कलात्मक सृजन के रूप में बदलते हैं। दीयों के छोटे बर्तन जैसे आकार होते है उन्हें ऐसे वर्तुल ढंग से सजाया जाता जाता है, जिससे वे सुन्दरता और उपयोगिता दोनों ही दृष्टि से विशिष्ट लगते हैं। बेलनाकार स्तंभ और बीच की जगह यानी गर्दन आनुपातिक ढंग से पतली होती है। पूरा स्तंभ बीच-बीच में उँगलियों से दबाया जाकर सुनहरे रंगों से रँगा जाता है, जबकि संपूर्ण स्तंभ लाल मिट्टी के रंग का होता है। इसके साथ नजर आने वाले कलश सामान्य छोटे घड़ों जैसे होते हैं। सारांश यह कि दीयों में कलाकार अपने कौशल का भरपूर प्रदर्शन करते नजर आते है। डोंगरगाँव में प्राप्त इन दीयों के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ के पूर्वी अंचल में भी इस तरह के दीये प्राप्त होते हैं। ऊँचाई में तो वे इन्हीं दीयों के समान होते है ; किन्तु उनकी बनावट और रंगों में थोड़ा प्रभाव ओड़िसा से उन दीयों का होता है, जिसे पर्व के अतिरिक्त अन्य दिनों में भी उपयोग में लाया जाता हैपूर्वी अंचल में इन दीयों को रूखा कहा जाता है। ऐसे दीये रायगढ़ अंचल में अधिक प्राप्त होते हैं। इस संदर्भ में यह भी ध्यातव्य है कि रायगढ़ अंचल में कुम्हारों की एक जाति ओड़िसा से आकर बसी हुई है।

लक्ष्मी की पूजा के इन दीयों के अतिरिक्त जानवरों को, विशेषकर हाथी को भी एक साथ कई दीयों वाला रूप दिया जाता हैपक्षियों को भी दीपक धारण किए हुए बनाये जाने की प्रथा इस अंचल में प्रचलित है। इसके कल्पनात्मक सौन्दर्य की कल्पना तो इसके त्रिआयामी स्वरूप को देखकर ही की जा सकती है, जिसमें यह कारीगरी का ही नहीं; बल्कि कला का भी उत्कृष्ट प्रतीक बन जाता है। इस तरह के दीये सारे छत्तीसगढ़ में प्राप्त होते हैं; जिनमें दीयों के अतिरिक्त हाथी की विभिन्न मुद्राएँ बड़ी रोचक होती है।

अपने रायगढ़ प्रवास के दौरान मैंने हाथी दीये देखे थे, जो महावत विहीन थे पर, जिनमें हाथी की सूँ
वराह के थूथन से थोड़ी ही लम्बी मालूम पड़ती थी। मूलतः जनजातीय कल्पना से जुड़ी ये प्रतिमाएँ विशिष्ट प्रतिभाशाली कलाकारों के द्वारा तरह-तरह से बनाई जाती
हैं। यह भी एक रोचक तथ्य है कि लक्ष्मी पूजा से जुड़े इन दीयों को लक्ष्मी की प्रतिमा के साथ ही जोड़कर बनाया जाता है। और इन लक्ष्मी मूर्तियों को दीपाधार की तरह बनाया जाता है।  इसके बावजूद इसमें पद्मस्थित लक्ष्मी की प्रतिमा विधि को सुरक्षित रखा गया है। विशिष्ट परम्परा के अनुकूल पद्मस्थित लक्ष्मी के पूर्णांग सौन्दर्य को इन दीयों के जलने के बाद ही परिलक्षित किया जा सकता है। यह कहना थोड़ा मुश्किल है कि दीपाधार के रूप में या दीये के रूप में स्वयं लक्ष्मी की प्रतिमा के उपयोग की परम्परा कितनी पुरानी है। यह जरूर है कि आर्य पूर्व समय से मातृ-देवी की परंपरा को जोड़ते हुए निशा वर्मा के कुछ ऐसी देवी मूर्तियों की मौजूदगी अत्यंत प्राचीन काल से जारी रहने की बात की है, "जिसमें स्त्री मूर्ति के सिर के भाग के दोनों तरफ दीयों की आकृतियाँ भी मौजूद है। गौरतलब है कि ये मूर्तियाँ मिट्ठी के शिल्प के रूप में ही प्राप्त हुई है।''! (निशा वर्मा - द टेराकोटाज ऑफ बिहार)

कल्पना और कला के रूप में बेशक थोड़ी ग्रामीण अनगढ़पन के साथ ये दीये विशिष्ट प्रदर्शककारी कला के गुणों से संपन्न हैं। अनुष्ठान विषय के आशयों से सहज भाव से प्रतिबद्ध इस कलात्मक निर्माण को अगर विशिष्ट संरक्षण प्राप्त हो सके, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि इन्हें कला की स्मरणीय उपलब्धि के रूप में स्वीकार किया जा सकता हैं।

 दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी की पूजा के अन्य उपादानों में लक्ष्मी के निवास को मंदिर के रूप में मिट्टी का बनाया जाता है। राजनांदगाँव के मोहारा गाँव से प्राप्त मंदिर भी अपने आप में ग्रामीण कलात्मकता का ही प्रतीक है। अपने रंग और आकार दोनों में ही प्रस्तुत चित्र का यह मंदिर, मंदिर स्थापत्य कला का सहज अनुकरण मात्र नहीं है। इसमें देव खटोली और मंदिर के शिल्प का समन्वय दिखाई पड़ता है। पक्की मिट्टी का यह निर्माण अपने आकार अनुकूल रंग के कारण ही नहीं; बल्कि आकार के मौजूद विशिष्ट कल्पनाशीलता के कारण अधिक आकर्षक लगता है । इसका आकर्षण उन खाली जगहों में है जहाँ वे परिप्रेक्ष्य के साथ अधिक उन्मुक्त रिश्ता बनाती है। अगर यह मंदिर दीवारों से घिरा होता, तो संभवत: इतना आकर्षक नहीं लगता। छूटी हुई जगहों के कारण लालित्य ही नहीं यह उपयोगिता भी संभव होती है कि इन पोली जगहों के द्वारा मूर्ति को ठीक से प्रकाश मिल सके । अविकसित कली और विकसित पुष्पों को मंदिर के स्तम्भों और शीर्ष भाग पर लाल, हल्का पीला, हल्का हरा चित्रित करने के कारण सफेद छुही के रंग के मंदिर का आकर्षण और भी अधिक बढ़ गया है। वास्तव में कलाकार ने इस मंदिर को अटपटी कल्पनाशीलता में बनाया है; लेकिन इसकी ज्यामिती अनगढ़पन इसे इसके स्थिर धार्मिक आशय से मुक्त करती है।

झलमला- यह एक प्रकार की झरोखे दार हंडी होती है। इस हंडी को निर्माण के दौरान गीले में ही
आकर्षक ढंग से चाकू से काट दिया जाता है और यह आकर्षक झरोखेनुमा हंडी बन जाती है। हंडी को पका लिया जाता है
, जिस पर लाल रंग करने के बाद फूल-पत्ती, ज्यामितिक आलेखन द्वारा सजा दिए जाते हैं। रात में इसमें जलता दिया रखकर घर के ऊँचे हिस्से में टाँग दिया जाता है। इसी संदर्भ में छत्तीसगढ़ के मूर्धन्य साहित्यकार श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी की झलमला कहानी सर्वप्रसिद्ध है।

दीपावली के त्योहार पर मिट्टी के काम की जो चर्चा अभी तक की गई है, उसमें सर्व भारतीय पौराणिकता का तत्व अधिक प्रमुख है। मिट्टी की मूर्तियों के निर्माण में या दीपकों के निर्माण में कलाकारों की प्रतिभा अभिव्यक्त जरूर हुई हैं

; लेकिन इन निर्माणों में अन्तर्निहित सर्वभारतीय धार्मिक आशय ही इन निर्माणों के प्रमुख उद्देश्य है। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि दीपावली के समय ही छत्तीसगढ़ में दीप पर्व  से जुड़े और कई पर्व मना जाते है। जिनमें मिट्टी के काम को विशिष्ट प्रतीकों के रूप में देखा जा सकता है। इस पर्व के बारे में अपने आप में ही यह तथ्य दिलचस्प है कि लक्ष्मी की पूजा के उत्सव के समय ही छत्तीसगढ़ में गौरा- गौरी का पर्व मनाया जाता है।  इस पर्व के संदर्भ में टिप्पणी करते हुए राजेश कुमार कश्यप पांडे ने लिखा है-  “छत्तीसगढ़ क्षेत्र की भी अपनी अलग पहचान है जहाँ तीज-त्योहार के अलावा कुछ पर्व ऐसे भी है, जिन्हें क्षेत्र की जन- जातियाँ बड़े धूमधाम एवं उत्साह से मनाती हैं। इन्हीं पर्वों में एक पर्व है- गौराजो कि 'शिव-पार्वती' अर्थात्‌ गौरा-गौरी के विवाह की कथा है। गाँव-देहात में इसे गौरा बैठाना भी कहते हैं। इस पर्व के साथ-साथ एक और भी परंपरा जुड़ी हुई है, जिसके बगैर ये पर्व अधूरा- सा लगता है और वो है सुआ नाच, जिसके माध्यम से ग्रामीण महिलाएँ इस पर्व में होने वाले खर्च के लिए आवश्यक घन राशि एकत्रित करती है। सुआ नाच आपसी सहयोग और विश्वास पर आधारित एक ऐसी स्वस्थ परम्परा है, जो कि आजकल के जबरिया चंदा उगाही जैसी दूषित परम्परा से बिल्कुल भिन्न है।'  ( राजेश कुमार पांडेय- नवभारत दैनिक- 1 दिसम्बर 1992)

इन उत्सवों का जिक्र इसलिए किया जा रहा है; क्योंकि इन दोनों में ही छत्तीसगढ़ी कला के उदाहरण देखे जा सकते हैं। गौरा-गौरी के त्योहार में शिव और पार्वती की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। ये मूर्तियाँ बहुत बड़े आकार की नहीं होती । जहाँ पर गौरा-गौरी की स्थापना की जाती है, वहाँ पर स्तंभ भी मिट्ठी के बनाये जाते हैं । विवाह के इस उत्सव में इस उत्सव का रूप जन- जातिगत विशेषताओं से परिपूर्ण है। वाद्य यंत्रों से लेकर स्त्रियों और पुरुषों के उन्मत्त नृत्य तक सभी दृश्यों में इन मिट्ठी की मूर्तियों के प्रति जो भाव व्यक्त किए जाते हैं

, वे सवर्ण पूजा परम्परा से भिन्न मालूम पड़ती है। वैसे भी इसमें मुख्य कार्य का संपादन बैगा और गोंड़ जाति के लोग करते हैं। प्रमुख रूप से यह गोड़ों का त्योहार है । गौरा-गौरी की मूर्तियों को उत्सव के रूप में ही अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस उत्सव में जनजाति का मन उन्मुक्त होकर सामने आता है। स्त्रियाँ बाल खोलकर झूमती हैं मानों साक्षात् देवी की ऊर्जा उनके भीतर भर गई हो । पुरुष भी गाते- बजाते- नाचते अपने शरीर को कोड़ों से पीटते हैं। इन सबके दौरान मूर्ति को एक प्रतीक के रूप में ही माटी के बने मंदिर में रखा जाता है। ये मूर्तियाँ कच्ची मिट्टी की बनी होती हैं तथा इन मूर्तियों को कलात्मक दृष्टि से किसी विशेष महत्त्व की मूर्ति की तरह नहीं देखा जा सकता | शिव की अत्यंत प्राचीन परंपरागत प्रतिमाओं से तो इसका संबंध स्थापित कर सकना संभव ही नहीं है । उदाहरण के लिए डॉ. व्ही.पी. सिं ने पटना संग्रहालय में गुप्त काल की प्रतिमा का चित्रण करते हुए कहा है- “इसमें शिव और पार्वती के विवाह का दृश्य उपस्थित किया गया है। शिव के बाईं ओर पार्वती खड़ी है पार्वती के हाथ में एक दर्पण है और दूसरा हाथ शिव के हाथ में है। शिव चतुर्भुजी है। उनके चारों हाथों में से तीन में त्रिशूल, डमरू और कपाल है तथा एक दाहिना हाथ पार्वती का दाहिना हाथ पकड़े हुए है। शिव- पार्वती के विवाह की इस प्रतिमा को कल्याण सुन्दर प्रतिमा कहा जाता है।( डॉ. व्ही.पी. सिं – भारतीय कला को बिहार की देन- बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना)

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस पर्व में लोक ने प्रतिमा निर्माण में सिर्फ अपनी कला को व्यक्त करने की कोशिश नहीं की है,  बल्कि इस पर्व में व्यवहृत गीत-संगीत और नृत्य में उनकी कला चेतना की भी अभिव्यक्ति हुई है।

रचनाकार के बारे मेः शिक्षा : इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से मास्टर ऑफ फाइन आर्ट्स में पी.एच.डी., पुरस्कार : मध्य दक्षिणी सांस्कृतिक केंद्र नागपुर में फोक एंड ट्राइबल पेंटिंग पुरस्कार।, अखिल भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला में कालिदास पुरस्कार तथा कई राज्य स्तरीय सम्मान, प्रदर्शनीः  रायपुर, भिलाई, भोपाल, जबलपुर, उज्जैन, इंदौर के साथ देश के सभी बड़े शहरों दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, केरल, कोलकाता, कोचीन, नागपुर आदि में चित्रकला प्रर्दशनी के साथ ही कई राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी प्रतियोगिता एवं चित्रशाला में भागीदारी।   सम्पर्कः फ्लैट नं.-242, ब्लाक नं.-11, आर्किड अपार्टमेंटतालपुरीभिलाई (छत्तीसगढ़) , मो. 094064 22222   

2 comments:

  1. Sunita Verma02 October

    रत्ना जी ,हार्दिक धन्यवाद ।लेख को बहुत ख़ूबसूरती से पत्रिका में स्थान देने एवं प्रस्तुत करने के लिए।

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  2. Anonymous06 October

    छत्तीसगढ़ की दीवाली में मिट्टी कला -विस्तृत जानकारी देता बेहतरीन आलेख। सुदर्शन रत्नाकर

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