पुस्तकः जीवनी- सूरज प्रकाश, लेखक- विजय अरोड़ा, प्रकाशक- इंडिया नेटबुक्स, सी 122 सेक्टर 19, नोयडा- 201301,
मूल्य-200 रु. (पेपर बैक), 350 रु. (हार्ड बॉन्ड)
उम्र भर देखा किए… हिन्दी के
जाने-माने कथाकार सूरज प्रकाश की जीवनी है। इसे उन्हीं के छोटे भाई विजय अरोड़ा ने, जो स्वयं भी एक कथाकार हैं, बड़े मनोयोग से लिखा है।
एक जीवित लेखक अक्सर आत्मकथा लिखते हैं। हिन्दी में राजनेताओं या सेठों की
जीवनियाँ तो मिलती हैं लेकिन किसी जीवित लेखक की जीवनी विरल ही होगी।
यह सत्य है कि इसे लिखने के लिए
बहुत सारे इनपुट स्वयं सूरज ने ही अपने छोटे भाई को दिए होंगे लेकिन जिस तरह से
विजय ने उन्हें पिरोया है,
वह तो उन्हीं का कौशल है। सूरज प्रकाश की पारिवारिक पृष्ठभूमि,
भारत-विभाजन के समय परिवार का तभी बने पूर्वी पाकिस्तान के बन्नू से
भारत आना और दुर्धर्ष संघर्ष से इस जीवनी की शुरुआत हुई है। पुनर्स्थापन के इसी
दौर में 1952 में सूरज प्रकाश का जन्म होता है। विजय अरोड़ा
उनसे लगभग आठ साल छोटे हैं। अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि एक बड़े भाई और प्रख्यात
कथाकार सूरज को एक दूसरे कथाकार और छोटे भाई विजय ने किस तरह से अपने अंदर उतारा
होगा और फिर उसे शब्द-चित्रों में सृजित किया होगा।
विजय ने बहुत सधे हुए ढंग से अपने
इस लेखन में त्वरा-शैली का इस्तेमाल किया है। छोटे-छोटे खंडों में सूरज प्रकाश के
जीवन की घटनाएँ एक-दूसरी से लिपटी चली आती हैं। देहरादून से बम्बई, बम्बई से अहमदाबाद और फिर पुणे में ही उनके जीवन का अधिक हिस्सा कटा है।
कुछ इधर-उधर काम करने के बाद उन्होंने सबसे लंबी नौकरी रिज़र्व बैंक आफ इंडिया में
ही की है। यह सब तो ब्यौरे हैं। इन ब्यौरों को दिलचस्प तरीके से उदघाटित करना,
न सिर्फ उदघाटित, बल्कि उन्हें सर्जनात्मक
आख्यान के रूप में शब्दों में बाँधना। इस अभियान में विजय विजयी साबित होते हैं।
उम्र भर देखा किए सूरज प्रकाश के
जीवन एवं लेखकीय-संघर्ष को समानंतर रूप से साधते हुए चलती हुई जीवनी है। बीच-बीच
में कुछ दोस्तों का ज़िक़्र भी आता है लेकिन वह केवल ज़िक़्र भर होता है। मुझे लगता है
कि दोस्तों के साथ हुई बैठकें, साहित्यिक अथवा दूसरी मुठभेड़ें,
उनके सर्जनात्मक तनाव, वैचारिक मतभेद, महत्वाकांक्षाओं की टकराहटें भी इस जीवनी का हिस्सा बनतीं तो शायद यह
जीवनी एक लेखक के अंतर्लोक को खोलने में और अधिक सक्षम होती। यह हिस्सा मुझे
अनुपस्थित लगा। इसी तरह से उनकी पत्नी मधु, जो स्वयं भी एक
लेखक हैं, उनके साथ भी हुई होंगी कभी कुछ वैचारिक असहमतियाँ।
अगर हुई हैं तो वे भी यहाँ दर्ज नहीं हैं। पारिवारिक संघर्ष है, सूरज प्रकाश के दफ्तरी जीवन में होने वाली ऊठा-पटक भी है। इस सारे माहौल में
सृजन करने की छटपटाहट भी है। अहमदाबाद प्रवास सृजनात्मक दृष्टि से सर्वाधिक उपजाऊ
रहा है तो पुणे प्रवास सबसे अधिक खुष्क। इस जीवनी से ही पता चलता है कि सूरज ने एक
ही जीवन में दो जीवन जिए हैं। एक उस भयानक रात की जानलेवा घटना से पहले और एक जीवन
उसके बाद। इस दुर्घटना ने उनके जीवन को देखने-परखने का नज़रिया भी बदला।
यह जीवन सूरज प्रकाश के बहुत सारी
अज्ञात अथवा अल्प-ज्ञात तथ्यों को हमारे सामने खोलती है। उनकी जीवनी में एक आम
पाठक की क्या दिलचस्पी हो सकती है। उनकी जीवनी कोई क्यों पढ़े? इस सवाल का जवाब भी लेखकीय संघर्ष और उसे बयान करने के अंदाज़ के साथ जुड़ा
हुआ है। यह दोनों ही बातें इस जीवनी के पक्ष में जाती हैं। विजय ने छोटे-छोटे
लेकिन महत्वपूर्ण प्रसंगों का कहानी की तरह से बयान किया है। पढ़ने का जो सुख मिलना
चाहिए, वह इसे पढ़ते हुए मिलता है। इसीलिए इसकी भूमिका लिखते
हुए प्रेम जनमेजय ने लिखा है ‘एक एक पेज सिप करते हुए’। यह सिपकॉफी का हो सकता हो और एक पैग का भी। लेकिन यहाँ यह सिप एक-एक
पृष्ठ और एक-एक शब्द का है। जितने मनोयोग से विजय ने इस जीवनी को अपने शब्दों से
संवारा है, उतनी ही संलग्नता और शिद्द्त के साथ प्रेम ने
अपनी भूमिका दर्ज की है।
कोई भी जीवनी या आत्मकथा कभी भी
पूरी नहीं होती। वस्तुत: पूर्णता तो कहीं होती ही नहीं। पूर्णता मिथ है। इसलिए यह
जीवनी भी बहुत कुछ कहने के बावजूद कुछ और कहने के लिए छोड़ देती है। उसके लिए सूरज
प्रकाश को शायद आत्मकथा लिखनी पड़ेगी। यह तो भविष्य की बात है फिलहाल आप जीवनी को
पढ़कर एक लेखक के संघर्ष के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं। पढ़ने का आनंद, सो अलग। इसके लिए विजय अरोड़ा को बधाई।
आपके मन में इसे पढ़ने की इच्छा जगी हो तो तुरंत कार्रवाई करें। सराहनीय पुस्तक। हर एक के पढ़ने योग्य। अमेजन पर उपलब्ध।
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