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Mar 5, 2021

संस्मरण- तुम्हारे जाने के बाद

-कल्पना मनोरमा
अगर आज तुम हमारे बीच होतीं, तो हम फरवरी में तुम्हारी छाँछठवी सालगिरह मना रहे होते। वो भी बिल्कुल नासमझ बचपन को मन में समेटे हुए क्योंकि माँ के रहते इंसान कब बड़ा हुआ है! लेकिन तुम्हारे जाने के बाद ये बातें सब हवा हो गईं। हम अचानक बेमतलब के बड़े हो गए और नादानियाँ छोड़ पतझड़ में, ठूँठों में  फूल तलाशते-से भटकने लगे। तुम थीं तो तुम्हारे दुनिया से विदा लेने की बात सोचने मात्र से हमारी आँखें भर आती थीं। न जाने कितनी बार बचपन के सपनों में हमने देखा था कि तुम हमें अकेला छोड़कर दुनिया से चली गयीं हो और हम बौराये-से घर-आँगन और खेतों में हूकते-बिलखते फिर रहे हैं। सपना टूटते-टूटते देर हो जातीतो हमारी देह पसीने-पसीने होकर आँख खुलती और जब तुम्हें अपने साथ सोया देखते तो  चैन आ जाता था। सुबह होते ही हम तुमसे पूछते थे  कि आख़िर इतने गंदे वाले सपने हमें क्यों आते हैं? तुम धीरे से हँसते हुए कहती थीं । हम जिसको जितना ज़्यादा प्यार करते हैं, उतना ही ज़्यादा उसके खोने के सपने हमें डराते रहते हैं लेकिन तुम डरना मत क्योंकि हम तो तुम्हारे बुढ़ौती तक साथ रहेंगे। तुम्हारे बच्चों का ब्याह भी करेंगे। माँ सच्ची में तुम्हारे सारे वादे कितने झूठे निकले।

13 दिसम्बर 2014 रात भर अस्पताल के एक इमरजेंसी कक्ष में ध्यानमग्न रहने के बाद ब्रम्हमुहुर्त अज़ान की बेला चुनकर तुम मौन ही मौन रुखसत हो गईं। हमारी दृष्टि के इस छोर से उस छोर तक का पसारा पलक मारते झप्प हो गया। अस्पताल के प्रतीक्षालय में खड़े हम और इमरजेंसी रूम से आती शब्दहीन तुम! सफेद कपड़े में लिपटी जब मेरी ओर बढ़ती आ रही थी तब समय के उस टुकड़े  पर विश्वास कर पाना मुश्किल हो रहा था कि वो भी हमारे जीवन का हिस्सा था। पल भर में आशा ने हमारा हाथ बेरहमी से झटक दिया था और ख़ालीपन का एक विशाल गुबार हमारी ओर एकाएक उमड़ता चला आया। हम अडोल दुःख के चक्रवात में डूबते चले गये। हमारी आँखों के सामने ममता का खेल छितराकर दाना-दाना बिखर गया। दुःख के विशाल डिब्बे में हम एक तन्हा नन्हें कंकड़ की तरह बजने लगे थे। मन भांयभांय कर हूकने को हुआ था और हमने सोचा भी था कि चिल्ला-चिल्ला कर भीड़ जुटा कर तुम्हारी कठोरता सबको दिखाएँ कि देखो-देखो ये हमारी माँ है, जो हमसे बिना कुछ कहे-सुने अंतहीन सफ़र पर निकल गई हैं। क्या कोई ऐसे जाता है भला अपनों को छोड़कर लेकिन सब कुछ शान्तभाव से सहन करो। चिल्लाने से कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। तुम्हारे बार-बार कहे चिरपरिचित वाक्य ने कान में बज-बजकर मुझे काठ हो जाने पर मजबूर कर दिया। हमने चाहा था कि कोई हमें तुम्हारी तरह सांत्वना की छाती में छिपा ले। कोई अपनेपन के कंधे आगे बढ़ाकर कह दे कि रख लो सिर, हम तुम्हारे साथ हैं। तो कम से कम हम हूक मारकर एक बार तो रो लेते लेकिन निःशब्द काल में कोई नहीं बोला। अंततोगत्वा तुम्हारी बेटी होने के नाते हमने किसी के कंधे का आसरा देखना छोड़ दिया। किसी की ओर दुःखभरी बाहें नहीं फैलाईं क्योंकि तुम्हीं तो कहती थीं कि जब दुःख उमड़कर तुम्हारी आँखें भरने लगेतो तुम किसी की ओर देखो मत, बस अपनी नजरें नीचे झुका लो। आँसू ख़ुद-ब-ख़ुद सूख जायेंगे। हमने वही किया। मन की खाइयों में दुःख का नमक जो सिर्फ़ हमारे बीच का था, झरता रहा। जिसे देख पाना साधारण की बात नहीं । माँ तुम इस खारे संसार सागर के बीच मीठी नदी थीं। कितनों ने अपने दुःख तुम में विसर्जित कर अपने को हल्का किया था। नदी का धर्म होता है निरंतर बहना। उस बात को तुमने आत्मसात कर अपना जीवन संसार को समर्पित कर दिया था और हमारी आँखों से मानो सारा पानी सूख गया था। हम आत्मा तक जड़ होते चले गये ।लोगों ने समझा था कि हम निष्ठुरता वश नहीं रोये । कहने वालों ने कहा भी था हमसे कि हमारा रोना अच्छा होगा उस आत्मा के लिए जिसने अभी-अभी  शरीर छोड़ा है। वे लोग नहीं जानते थे कि आँसू बहानालाचार दिखना तुम्हें बिल्कुल पसंद नहीं था इसलिए हमारी आँखें न डोली न डबडबाई। जैसे तुमने अपने दुख को बिना किसी के साथ साझा किए आत्मा की गहराइयों में समन किया था। बिल्कुल वैसे ही हमने कोशिश की थी और तुम्हारी बात को अमर कर लिया था, अपनी साँसों में। हाँ, हमारे प्रति कहे तुम्हारे निरे व्यक्तिगत कोमल शब्द जब मन को हूला मारते तो आँसू छर्र-छर्र फ़ैल जाते। जिन्हें हमने बहने दिया था अकेले में बेफिकरी से छाती तक। जिसमें तुम्हारा ही दिया दिल धड़क रहा था।

खैरतुम अपने आँचल में स्थिरता लिए बरामदे में हमारे सामने सोती रहीं और हमें बार-बार तुम्हारे जीवित होने का अंदेशा होता रहा। आस-पास घिरी बैठी तुम्हारी देवरानी-जेठानी, बहनें, भतीजीबहुएँ और भाभजें बखानती रही थीं तुम्हारी जिंदगी। हमारा ध्यान तो बस उस चादर के हिलने पर लगा था जिसे तुम सिर से पाँव तक ओढ़े, सारे कष्टों से मुक्त हो चैन की नींद सो रही थीं। मन फिर-फिर गुनताड़ा लगाता रहा था कि चादर हिलने का मतलब तुम्हारा जिंदा होना हो सकता है। हम एक चमत्कार होने की कामना करते जा रहे थे; उस भगवान से जिसको तुमने और हमने खुद से ज़्यादा पूजा था। लेकिन जीवन के बीहड़ में कुछ अच्छा न घट सका और तुम्हारे बिना बन रहे भीषण अकेलेपन के बीच भी न हमें रोना आयान बोलना और हँसना तो अभी तक नहीं आ पाया है तुम्हारे सामने जैसा।

हमारा भसक कर ढेर होना भले न किसी को दिख रहा था लेकिन अगरबत्तियाॅं जल-जल कर ढेर होती जा रही थीं। वे दूर से दिख रही थीं। दीया टिमटिमाता जा रहा था तुम्हारे लिए। रात बिसूरती जा रही थी कोने अन्तरे में मुँह दिए। तुम्हारे अपने लोग तुम्हारे दुःख के साथ तुम्हारे प्रति अपनी  फ़र्ज़ अदायगी की चर्चा भी हुलसित हो-होकर करते जा रहे थे। तुम्हारे परम स्नेही सेवादारों को भर-भर मुँह सराहा जा रहा था। शोक में लिपटी भेंटवार्ताएँ स्तुतिगान में कैसे बदल जाती हैं; हमने पहली बार इस मानवीय प्रपंच को नज़दीक से देखा था। बहुत अचरज हुआ था हमें। तुम बोल पातीं उस दिन, तो जरूर पूछती कि आदमी हर काम सिर्फ अपने मतलब के लिए ही क्यों करता है? गहरे शोक में भी मनुष्य कैसे झूठे जीवन का अनुलोम-विलोम, सत्य से आँख चुराकर जीता जा रहा था । धरती के इस उथले प्रपंची खेल को नजरअंदाज कर आसमान अपनी धुन में पानी गिराता जा रहा था। हवा खूंटा तुड़वाकर इधर से उधर दौड़ रही थी। मौसम में थरथराहट घुलती जा रही थी। रात के स्याह अँधेरे में गिरतीं बूँदें देख लोग डरने लगे थे कि ठौर ज़्यादा गीला हो गया तो क्या होगा...?

यज्ञ पूर्ण होने पर पानी बरसना शुभ माना जाता है। हमने सुना था कभी । उसी बिना पर हम मन ही मन उसको शुभ माने जा रहे थे क्योंकि तुमने भी तो अपने जीवनयज्ञ में साँसों की पूर्णाहुति ही डाली थी। उसी को शुभ और सत्यापित करने बादल जल-कलश लिए झुक आये थे। तुम्हारा दर्द तुम्हारे शरीर में जमता जा रहा था । तुम अविचल अडिग संन्यासियों की भाँति पलकें बन्द किये अपने होने या न होने में रमती जा रही थीं। तुम्हारे शारीर के शांत होने और वाणी मौन हो जाने से हमारा मन ही खाली नहीं हुआ था बल्कि खाली हुआ था घर-द्वार, हमारे बचपन की हर वोशाख़ जिसपर लटक रहा था ममता का झूला। तुम्हारी मानवीय चेतना जरुर निश्चेष्ट हुई थी लेकिन तुम्हारे कहे शब्द अब ज्यादा  बोल रहे थे।

सुबह होते ही सभी फुर्ती में आ गए थे सिवा तुम्हारे। जिस घर की धरती को तुम मंत्रों के साथ जगाती थीं, उस दिन वह स्वयं जाग गयी थी। तुम्हारे घर के लिए वह बड़ा काम था। उसे अपनी मालकिन को ससम्मान विदा करना था। ईंट-ईंट तुम्हारी छुवन को सवाया कर लौटा देना चाहती थी। घर मानो टेर रहा था तुम्हें लेकिन तुम न बोली थीं। फिर तुम्हारे बिना सहयोग के पहली बार उस घर का कार्य आरम्भ हुआ। तुम्हारी ज़िंदगी की दूसरी बार बारात सजने की तैयारियांँ होने लगी थीं,जो हमारे लिए निरी नई और कल्पनातीत थी।

दिन पाण्डु रोगी-सा हारा हुआ सूरज गोद लिए धीरे से निकला था लेकिन धूप ने तुम्हारा पक्ष लेते हुए जबरन पूरे साज-ओ-सामन के साथ अपने पलक पाँवड़े डाल दिये थे। जो लोग रात से चिंतित थे वे अब तुम्हारे जीवन में किये परोपकार के फलित होने की बातें करने लगे थे। बूढ़ी-पुरानी तुम्हें आशीष रही थीं। तुम्हारे त्याग और कर्मठता के खूब चर्चे होते जा रहे थे । साथ ही साथ तुम्हारे  श्रृंगार के लिए सामान जुटाया जाने लगा था। नई साड़ी और श्रृंगार के सामान के साथ तुम्हारे बेटे ने तुम्हारे लिए लाल रेशमी शॉल मंगाई थी। तुम्हारी नाक में पहने सोने के नकफूल को उतारने के लिए किसी ने कहा था लेकिन उसे न उतारा जाए,  तुम्हारे बेटे ने तुम्हारे मान में फिर से बोला था। अच्छा लगा था कि तुम सुन पाती तो तुम्हें उसपर नाज हो आता।

उसी नकफूल के साथ-साथ फूलों के हार भी तुम्हें पहनाए गए। स्वर्ग-विमान को गुलाब और गेंदों ने खूब महकाया था। तुम्हारे घर की मुंडेरें झुक-झुककर तुम्हें निहार रही थीं । दरवाज़े-चौखटें गहरी कचोट में भी तुम्हारी बलाएँ लेती जा रही थीं। तार पर फैली तुम्हारी साड़ी उड़कर तुमसे लिपट जाना चाहती थी। भीतर बरामदे से उठाकर तुम्हें सदरद्वार की उस देहरी के थोड़े भीतर रखा गया था जिसके बाहर तुम आखरी बार पाँव निकालने जा रही थीं। कभी अपनी कच्ची उम्र के साथ उसके भीतर दाख़िल हुई थीं। दिन-रात एक  कर उसको सम्हाला-सजाया और भरसक सुख दिया था बिलकुल प्रौढ़ों की तरह। मुझे हमेशा मलाल रहा कि मेरी माँ बचपन ही बूढी हो गयी थीं उसके लिए लेकिन तुम्हारे चेहरे पर इस बात का मलाल कभी नहीं देखा। मेरे साथ देहरी स्तब्ध थी लेकिन जिसका जो मन था कहता जा रहा था और रोता जा रहा था लेकिन हमारे शब्द पूर्ण शोक में डूब चुके थे। वे होठों पर स्फुरित होना भूल गए थे। मन का आकाश पूरी तरह से मौन हो चुका था। मन का एक भावुक और पूर्णरूपेण स्नेह आप्लावित तुम्हारे नाम का कोना रिक्त हो चला था ।

तुम्हारी अंतिम विदाई में तुम्हें जो जानता था वो भी आया नहीं जानता था वो भी आया। तुम्हें छू-छूकर ताई-चाचियांँ तुम्हारे हाथ-पाँव की नरमाहट और लुच-लुच हथेलियों के गुदास की तारीफ़ करती जा रही थीं । तुम्हें दुल्हन की तरह सजाया गया था। तुम्हारे जीवन साथी ने सगर्व एक चुटकी सिंदूर तुम्हारी माँग में भरकर अपने प्रति तुम्हारे स्नेहिल समर्पण को सम्मानित कर दिया था। हमेशा की तरह तुम्हारे छोटे-छोटे गेहुँआ पीले पाँवों में गुलाबी रंग खिल उठा था । तुम्हें सजाने के दौरान किसी ने हमें तुमको छूने नहीं दिया था या हमने खुद ही चेष्टा नहीं की थी। हमें लग रहा था जितनी देर और हो जाये तुम सोई रहो यूँ ही सही उतना ही ठीक रहेगा। पहले कभी तुम अपने मायके जाने के लिए पाँवों में रंग लगाती थीं तो भी मेरा हाल बेहाल होने लगता था कि अब तुम्हारे बिना दिन कैसे कटेगा।

वो अभागा दिन था जो तुम हमेशा के लिए हमसे विदा लेने जा रही थीं और हम हमेशा के लिए अनाथ होने जा रहे थे फिर भी हम ज़िंदा थे। बेकार है ये संसार माँ! यहाँ कोई किसी के लिए नहीं रुकता और चलता है। सब अपनी खुशी के लिए मेला देखते हैं। इस सबके बावजूद तुमने क्या-क्या न सहा लेकिन हमें कभी अपनी छाती से अलग न होने दिया। उस दिन हमारे प्रेम का संसार हमारी आँखों के सामने लुट रहा था और हम बेबस लाचार बने सबों को ताक रहे थे। तुम क्या थीं हमारे लिए कहना मुश्किल है लेकिन जो थीं बहुत जरूरी और कीमती थीं।

जीवन के सारे विमर्शों और द्वंद्वों को तुम अपनी खुली हथेलियों पर रखे थीं। फिर भी जमीन से उठाकर तुम्हें चार कन्धों पर चढ़ा लिया गया था। तुम्हारे ऊपर बताशे, मखाने और पैसे बरसाये जाने की रस्म निभाई जा रही थी जो हमें दो कौड़ी की लग रही थी लेकिन रस्में तो खोखली और रूढ़िवादिता से बंधीं होती हैं। उनमें प्रखरता की बात हम सोच भी कैसे सकते थे इसलिए जो होना था होता गया।

बहुत कुछ कहे और अनकहे के बीच आख़िरकार एक स्त्री संसार के हाथों में गुमराह होने छूटती जा रही थी और दूसरी स्त्री संसार को अपने में तिरोहित कर उड़ती जा रही थी।जिनके लिए तुमने फूल चुने थे वे तुम्हें रामनामी अभीष्ठ-अमर ध्वनि में राख होने के लिए जा रहे थे। अग्नि पूरे मनोयोग से तुम्हें अपनाने के लिए तैयार हो चुकी थी। हमारे बीच कभी न पूरने वाली मीलों लंबी दूरी पसरती जा रही थी।ये कैसी विदाई थी माँ? मन आज भी उस अनुत्तरित प्रश्न को सुलझाने में ढेर उलझ जाता है कि हम कैसे लुटे बंजारे से पीछे छूट गए थे और तुमने मुड़कर भी नहीं देखा था। बहुत कुछ कहना है तुम्हारे औदार्य के लिये। कहती रहूँगी जब तक रहूँगी। तुम्हें केवल प्रेम ही मिले; जिस रूप में भी तुम हो।

लेखक के बारे में- जन्म - 04 जून 1972,  शिक्षा- कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक एवं बी.एड. इग्नू से एम.ए, (हिंदी भाषा), सम्प्रति-अध्यापन व स्वतंत्र लेखन, प्रकाशित कृतियाँ - प्रथम नवगीत संग्रह –कब तक सूरजमुखी बनें  हम’, दो काव्य संग्रह एवं एक कथा संग्रह प्रकाशनाधीन , सम्मान- दोहा शिरोमणि 2014 सम्मान , वनिका पब्लिकेशन द्वारा (लघुकथा लहरी सम्मान 2016), वैसबरा शोध संस्थान द्वारा (नवगीत गौरव सम्मान 2018 ), प्रथम कृति पर- सर्व भाषा ट्रस्ट द्वारा (सूर्यकान्त निराला 2019 सम्मान) सम्पर्कः बी 24 ऐश्वर्ययम आपर्टमेंट , प्लाट न.17, द्वारका सेक्टर 4 नई दिल्ली , पिन-110075, फोन नं. 8953654363,  Email-kalpanamanorama@gmail.com

1 comment:

Sudershan Ratnakar said...

बहुत सुंदर मर्मस्पर्शी संस्मरण।