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May 10, 2016

सबकी पीर मैं हर लूँ

मैं घर लौटा: कुछ अनुभूतियाँ

सबकी पीर मैं हर लूँ
             - भावना सक्सैना
            भावों की सरिता
            शब्दों का सागर
            जीवन के रंग सब
            समेट लाई गागर।
यह गागर है रामेश्वर काम्बोज हिमांशुजी का नया काव्य संग्रह मैं घर लौटा। इस काव्य संग्रह को पढऩा सहज ही भावनाओं के सागर में डूबते चले जाना है। 184 पृष्ठों के इस संग्रह में 86 कविताएँ हैं। कविताएँ क्या हैं, विभिन्न अवसरों पर मन में उपजी संवेदनाएँ हैं, जो दिल से निकलकर सीधे दिल में उतरती हैं। समाज को देखता परखता इस संग्रह का संवेदनशील कवि- हृदय अपने सदाशयता के गुण को सहेज दूसरों को प्रेरित करता सम्बल प्रदान करता है।
मानव जीवन एक अंतहीन खोज है। मैं घर लौटा उसी खोज का अनुभूत सत्य हैप्रबोधन है, कि शान्ति अपने आसपास के वातावरण से भागने में नहीं उसे आत्मसात् कर लेने में है।
एक कुशल  चित्रकार की तरह हिमांशुजी कैनवस पर न सिर्फ प्रकृति के चित्र उकेरते हैं, जिनमें एक ओर पीले फूलों (अमलतास) के गजरे हैं (45) तो दूसरी ओर पाग आग की सिर पर बाँधे (134) पलाश हैं, गुलमोहर हैं सिर पर बाँधे फूल-मुरैठा। काम्बोज जी सुख-दु:ख आशा निराशा प्रेम के रंग भरते कभी हिम्मत और साहस से भरते हैं मंजिले उसको मिलेंगी जो निराशा से लड़े/चाँद सूरज की तरह उगता रहे ढलता रहे (113); तो कहीं समाज के बिगड़ते हालात पर  चिंतातुर दिखाई हैं; क्योंकि बीहड़ से चल हर घर तक आ चुके हैं भेडि़ए (56)। वह समाज के दुश्चरितों से बचने की सलाह देते हुए कहते हैं - चारों ओर रेंगते विषधर बचकर रहना (137) आज़ादी के नाम पर हो रही मनमानी पर कटाक्ष करते है (47)
इन कविताओं में जहाँ एक ओर तपने का,चलते रहने का आह्वाहन है वहीं यह सम्बल भी है की काँटो का वन पार करते ही है चन्दन वन। गहरे दर्द से भरी कविता  पुरबिया मजदूरतो चलचित्र के सामान चित्र उकेरती चली जाती है।
भावों की गहराइयों में उतरकर अनुभूत सत्य से रू-ब-रू कराती इस संग्रह की कविताएँ अनायास ही मन पर गहरी छाप छोड़ जाती हैं। इनका सबसे बड़ा गुण है कि संग्रह की सभी कविताएँ सहज सम्प्रेषणीय तो हैं ही, कई कविताएँ अपने समय का सच भी बयान करती हैं - पहली कविता ही मानो समाज को प्रतिबिंबित करती कहती है अंधकार यह कैसा छाया /सूरज भी रह गया सहमकर (41)
काम्बोज जी का स्वभाव है -सबको साथ लेकर चलने का, सबकी सहायता करने का। उनकी यह अभिलाषा कविताओं में भी मुखर हो उठती है- जो मिल जाए आगे पथ में उनके लिए भी कुछ कर जाएँ (99) वे चाहते हैं - सबकी हर पीर मैं हर लूँ (92)  और जब तक बची दीप में बाती....तब तक जलते ही जाना है साँसों का यह खेल है (95)। वह कहते हैं मैं कुछ भी बन जाऊँ पाषाण नहीं बन सकता (112)। उनकी कामना है हर देहरी पर दिया जलता रहे (113)
इन कविताओं में सामाजिक परिस्थितियों पर चिंतन मनन तो है किन्तु लेशमात्र भी संदेह नहीं है। वह अपने परोपकार के सिद्धांतों पर आगे बढ़ते रहते हैं। उन्हें संतोष है-मैं बहुत खुश हूँ; क्योंकि मेरे पास अहंकार नहीं है जिसे ढोने के लिए गाड़ी खरीदनी पड़े’ (158)। वस्तुत: यह आज के समाज पर गजब का कटाक्ष है!
पाठकों को प्रेरणा देते वह कहते हैं- मत मन में अभिमान करो/अच्छे काम करो जी भरकर/बुरे काम से सदा डरो। और रचने से ही आ पाता है जीवन में विश्वास नया(100)
कवि की आँखें समाज को निहारतीं हैं और अनायास ही एक यक्ष प्रश्न करती हैं- क्या संस्कार बदल पाएँगे? (121), हृदय समाज के भावों, विचारों या कार्यकलाप को दर्शाता आईना बन जाता है और तब सब जगह नज़र आने लगे हैं गिद्ध। नारी कहाँ नहीं हारी कविता में वह स्त्री की पीड़ा को समझते हैं फिर भी- नितांत एकाकी कोने छुपकर/ दबे स्वर में खुद रो पडऩा/अपनी विवशता पर है (112) तुमने कहा था शीर्षक की इस कविता में स्त्रीके मन में उठते भाव, उसकी विवशता, दर्द, तड़प व गहन संवेदनाएँ बार-बार पाठक को उद्वेलित कर जाती हैं। समाज तथा मानव-मन की तस्वीर उकेरती जीवन के कई पक्षों को निहारती कविताएँ कवि को श्रेष्ठता प्रदान करती हैं।
डॉ. सुधा गुप्ता जी के विषय प्रवेश, जो उनके ही शब्दों में न भूमिका है , न प्रस्तावना और न परिचय ने जहाँ इस संग्रह को गरिमा प्रदान की है; वहीं डॉ. भावना कुँअर व डॉ.हरदीप कौर सन्धु के विवेचन ने पाठकों के लिए ठोस भावनात्मक धरातल तैयार किया है।
कवि को शुभकामनाएँ देते हुए आशा करती हूँ कि वह भविष्य में भी हमें अपने श्रेष्ठ सर्जन से लाभान्वित करते रहेंगे और उसकी प्रतीक्षा इतने लम्बे समय (22 वर्ष) तक नहीं करनी होगी।
काव्य-संग्रह: मैं घर लौटा, कवि: रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
पृष्ठ: 184, मूल्य:360, अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-110030 
सम्पर्क: 64, प्रथम तल, इंद्रप्रस्थ कॉलोनी,सेक्टर 30-33, फरीदाबाद, हरियाणा 121003

5 comments:

sushila said...

आपका काव्य-संग्रह पढ़ा तब भी कविताओं की भाव-भूमि में डूबती चली गई थी मैं। कवि के प्रति श्रद्धा भाव द्विगुणित हो गया था। कविताएँ भाव-प्रधान तो हैं ही शिल्प भी सुंदर है। मन कविताओं में सहज ही रम जाता है।
कवि को श्रेष्ठ संग्रह के लिए बधाई!

Vibha Rashmi said...

'मैं घर लौटा'आ .काम्बोज भाई का सुंदर काव्य संग्रह है , दार्शनिक भाव दर्शाती कवर की तस्वीर अपने गहन संजीदा रंग में है आसमानी , स्लेटी । सभी कविताएँ जीवन के विभिन्न पलों की गवाह हैं ।सभी संजीदा हैं ।जीवन के अनुभवों से पगी कविताएँ में भावप्रणवता है। सुन्दर ,जीवन दर्शन को दुख-सुख को उकेरती रचनाओं में काव्यात्मकता व भाव सौंदर्यबोध भरा है ।बधाई काम्बोज भाई को तथा सटीक समीक्षा के लिए भावना सक्सेना जी को बधाई ।

sunita pahuja said...

भावना द्वारा हिमांशु जी के काव्य संग्रह "मैं घर लौटा" की समीक्षा एक ओर नए पाठकों को इसे पढ़ने की ओर प्रेरित करती है तो वहीं दूसरी ओर पहले इसका आनंद ले चुके पाठकों को एक बार फिर या यूँ कहें बार-बार इसकी ओर लौट चलने और दोबारा पढ़ने को विवश करती है, हर बार एक नए नज़रिए से। आप दोनों को हार्दिक बधाई ।

Sudershan Ratnakar said...

मैं घर लौटा कविता संग्रह ' कई बार पढ़ा था भावना जी आपकी समीक्षा को भी बार बार पढ़ा है । जैसे कविताएँ दिल की गहराइयों में उतर गई थी ? आपकी समीक्षा भी दिल में उतर गई है। कविताओं के भाव और स्पष्ट हो गये हैं। ऐसे संग्रह कभी कभी आते हैं। काम्बोज जी एवं दोनों को बहुत बहुत बधाई।

Dr.Bhawna Kunwar said...

kamboj ji rachnayen eaksebadhkar eak hai hi puri book ek nigah men padh dali samiksha bhi bahut achhi likhi hai meri hardik badhai..