देश गंभीर सूखे की चपेट में है। लगातार दो मानसून कमज़ोर रहे हैं और भीषण गर्मी ने हालात को और बिगाड़ दिया है। बताते हैं कि देश के जल भंडार अपनी क्षमता से 20 प्रतिशत ही भरे हैं।
उम्मीद यह की जा रही है कि इस वर्ष का अच्छा मानसून हालात को बेहतर बनाएगा। मगर कई लोग मानते हैं कि बात सिर्फ मानसून की नहीं है बल्कि विकास की प्राथमिकताओं की भी है। भारत की अर्थव्यवस्था आज भी काफी हद तक बरसात पर निर्भर है। आज भी करीब दो-तिहाई खेती बरसात के पानी पर टिकी है। कुछ हिस्सों में ज़रूर सिंचाई का विकास हुआ है मगर इसकी वजह से देश में भूजल भंडारों का अति दोहन हो रहा है, भूजल भंडार खाली होते जा रहे हैं।
खेती को सूखे से सुरक्षित करने के प्रयासों में गंभीरता नजऱ नहीं आती। विशेषज्ञों ने सलाह दी है कि सरकार को चाहिए कि वह किसानों को कम पानी से उगने वाली फसलों को अपनाने के लिए प्रोत्साहन दे, मगर सरकार गन्ने जैसी पानी डकारने वाली फसलों को सबसिडी दे-देकर पानी के दुरुपयोग को बढ़ावा दे रही है।
नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर साइन्स, टेक्नॉलॉजी एंड डेवलपमेंट स्टडीज़ की राजेकारी रैना का मत है कि सघन सिंचाई पर आश्रित खेती से परहेज़ करने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए हैं जबकि ज़रूरत इस बात की है कि हम स्थानीय फसली विविधता का लाभ उठाएँ।

विकास बैंक ने 2013 के एक अध्ययन में बताया था कि भारत में ग्लोबल वार्मिंग के असर दिखने भी लगे हैं। यदि धरती का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो तीक्ष्ण गर्मी की अवधियाँ बढ़ेंगी और मानसून का पूर्वानुमान भी मुश्किल होता जाएगा। मानसून के बेतरतीब होने की संभावना भी ज़ाहिर की गई है, और कुछ हद तक इसके प्रमाण मिलने भी लगे हैं। विकास बैंक की रिपोर्ट के अनुसार तापमान बढऩे की वजह से 2040 तक फसलों के उत्पादन में उल्लेखनीय कमी आ सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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