उफ ये गर्मी!!!
- डॉ. रत्ना वर्मा
आजकल बातचीत में राजनीति के
अलावा किसी बात पर सबसे ज्यादा चर्चा होती है तो वो है गर्मी या फिर कभी भी किसी
भी समय आ जाने वाले अंधड़ और छींटे- बौछार के बाद बिजली के बंद हो जाने से भीषण गर्मी
से परेशान लोगों की व्यथा। अब तो सोशल मीडिया किसी भी विषय पर बातचीत करने का सबसे
अच्छा माध्यम बन गया है। कुछ सेकेंड में ही हम दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक
अपनी बात पहुँचा सकते हैं और लोगों की राय जान सकते हैं।
अत: वहाँ भी गर्मी पर चिंतन
जारी है। कुछ लोग गंभीरता से इस विषय पर बात कर रहे हैं और काम भी कर रहे हैं साथ
ही दुनिया भर में हो रहे मौसम के बदलाव के लिए चेतावनी दे रहे हैं। जैसे फेसबुक
में हाशिये पर हमारे एक पत्रकार साथी ने
चिंता जताते हुए लिखा है- उफ गरमी है, पर क्यों है- इसलिए कि कांक्रीट- सीमेंट के मकानों
में हवा कहाँ, बंद गुब्बारे की तरह... दरअसल ये नकल उन ठंडे देशों
की है, जहाँ थोड़ी गरमाहट के लिए तरसते हैं... मुझे याद आता
है गाँव का मकान,
खपरैल वाला, मिट्टी की मोटी दीवारें, छन कर आती धूप और हवा... जब जाती है बिजली कूलर, पंखे की अनुपयोगिता पता चलती है... कुछ सोचने के लिए
तैयार है क्या हम...
इस संदर्भ में मुझे भी याद
आ रहा है- 80 के दशक में पर्यावरण को लेकर पत्र- पत्रिकाओं में जो लेख प्रकाशित
होते उसमें हमारे जाने- माने पर्यावरणविद् चिन्तक चेतावनी देते नजर आते थे कि धरती को हरा- भरा, स्वच्छ, हवादार और साँस लेने
लायक बनाकर रखना है और आने वाली पीढ़ी हमें न कोसे इसके लिए अभी से बचाव के साधन
अपनाने होंगे। सबसे ज्यादा जोर इस बात पर दिया जाता था कि जंगलों को बचाया जाए, ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए जाएँ, बड़े बाँधों पर रोक लगाई जाए, धुँआँ उगलते कल-कारखानों पर लगाम कसी जाए, मोटर-गाडिय़ों से निकलने वाले ज़हरीले
गैसों को रोका जाए और बढ़ते हुए शहरीकरण में उग आए कांक्रीट के कई- कई मंज़िला
भवनों को न बनाने दिया जाए। यह वह दौर था जब ग्लोबल वार्मिंग पर चिंता प्रकट करने
की शुरूआत नहीं हुई थी।
पर आज जो स्थिति है वह सबके सामने है। हमने धरती
का इतना दोहन किया कि आज पीने के पानी के लिए तरस रहे हैं, पानी के सारे परम्परागत स्रोतों को हमने खत्म कर
दिया है। तालाबों को पाट कर बड़े- बड़े व्यावसायिक मॉल बना दिए। पेड़ काट- काट कर धरती को हमने बंजर बना दिया
है, शहर तो शहर अब तो गाँव में भी कांक्रीट के मकान बनने
लगे हैं, वहाँ भी अब खपरैल वाले छप्पर बनाना मँहगा पडऩे लगा
है। शहरीकरण, औद्यौगीकरण और विकास की दौड़ में हमारे परम्परागत
व्यवसाय भी तो विलुप्त होते जा रहे हैं। हमारे घरेलू उद्योगों को बड़े- बड़े कल-कारखानों ने लील जो लिया
है।
पहले गाँव में जो घर बनाए जाते थे उनमें मिट्टी
को पोटी परत से छबाई की जाती थी, ताकि गर्मी के
मौसम में घर ठंडा रहे। धूप, हवा, पानी के लिए भी पर्याप्त व्यवस्था रहती थी। अब तो ए सी लगाने के चक्कर में पूरा घर चारो तरफ से बंद कर
दिया जाता है। मिट्टी की मोटी दीवरों वाला घर तो मैंने अपनी नानी के घर में देखा
है ,जो उनके न रहने पर अब टूट कर गिर गया है। मुझे लगता
है जिन गाँवों में मिट्टी की मोटी दीवारों वाले घर आज बच रह गए हैं ,उन्हें धरोहर के रूप में सँजो।कर रखा
जाना चाहिए ; क्योंकि नई पीढ़ी को यह पता ही नहीं चलेगा कि उनके
दादा- परदादा किस तरह से बिना ए सी और कूलर के
हवादार घरों में रहते थे। एक समय था जब हम छत और आँगन में सोकर पूरी गर्मी आसमान
में तारे गिनते और सप्त ऋषियों को
देखकर दादी- नानी से कहानी सुनते हुए बिताते थे। आज इस सुख से हम वंचित हैं। और जिस तरह से
हमने अपने पर्यावरण को नुकसान पँहुचा दिया है, वे दिन लौटकर
भी नहीं आने वाले। देर से ही सही पर हम इतना तो कर ही सकते हैं कि शुद्ध हवा पानी
हमें मिलती रहे,
ऐसा कुछ करने का प्रयास करें।
इधर पिछले कुछ वर्षों से एक
नई हवा चली है- गर्मी की छुट्टियों में लोग पर्यटन के लिए नदी पहाड़ की ओर रूख
किया करते हैं ताकि गरम प्रदेश में रहने वालों को कुछ राहत मिल सके। आजकल लोग नदी
पहाड़ के साथ साथ ऐसे गाँव की ओर भी छुट्टियाँ मनाने जाने लगे हैं जहाँ उन्हें
स्वच्छ वातावरण तो मिले ही साथ ही गाँव जैसी शांति और माहौल भी मिले। पर्यटकों के
इसी रूझान को देखते हुए पर्यटन के क्षेत्र में एक नया पैर्टन शुरू हो गया है.
प्रकृति के साथ साथ जीवन की सादगी भी नजर आए ऐसे रिसॉर्ट बनने लगे हैं । घास -फूस
की झोपड़ी का आभास देते रिसॉर्ट। अंदर से जरूर वे सर्वसुविधायुक्त होते हैं ; पर माहौल वहाँ गाँव का ही होता है।
कहने का तात्पर्य यही कि हम
जब अपने घर बनाते हैं ,तो मिट्टी की दीवार और छत में
खपरैल लगाने के बारे में सोचते ही नहीं, वह पूरा
कांक्रीट का ही होगा। लेकिन जब छुट्टियों में राहत के कुछ पल पाना होता है तो हम गाँव के
मिट्टी की वही सोंधी खूशबू की तलाश करते हैं। अमिया की छाँह, रस्सी के झूले और चौबारे। इतना ही नहीं चूल्हे में बनी सोंधी खूशबू वाली
साग रोटी की चाह भी रखते हैं.... आखिर क्यों? इसीलिए न कि इन
सबसे हमें कहीं न कहीं अपनी मिट्टी से जुड़े होने का आभास होता है। लोगों को यह भी
कहते सुना है कि रिटायरमेंट के बाद गाँव में रहने का मन करता है ताकि सुकून की
जिन्दगी जी सकूँ।
सवाल वही है कि फिर हम किस
तरह के विकास और आधुनिकता के पीछे भाग रहे हैं? उस ओर जहाँ
जाने का बिल्कुल भी मन ही नहीं है, जहाँ सुकून
नहीं है। विकास की अँधी दौड़ हमें किसी ऐसी जगह नहीं ले जा सकती जहाँ हम यह कह
सकें कि हाँ ये वही जगह है जिसकी मुझे तलाश थी।
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