- प्रमोद भार्गव
राष्ट्रीय शैक्षिक एवं अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की पुस्तकों में पढ़ाए जाने वाले भारत के इतिहास में आर्य अब आक्रमणकारी नहीं, बल्कि भारतीय मूल के रूप में दर्शाए गए हैं। 21 वर्ष की खींचतान और दुनिया भर में हुए अध्ययनों के बाद आखिरकार यह तय हो गया कि “आर्य सभ्यता” भारतीय ही थी। राखीगढ़ी के उत्खनन से निकले इस सच को देश के पाठ्यक्रमों में शामिल करने का श्रेय ‘राखीगढ़ी मैन’ के नाम से प्रसिद्ध हुए प्राध्यापक वसंत शिंदे को जाता है। एनसीईआरटी की कक्षा 12वीं की किताबों में बदलाव किया गया है। इसमें इतिहास की पाठ्य पुस्तक में ‘ईंट, मोती और हड्डियाँ - हड़प्पा सभ्यता’ नामक पाठ में आर्यों को मूल भारतीय होना बताया है। इसके अलावा कक्षा 7, 8, 10 और 11 के इतिहास और समाजशास्त्र के पाठ्यक्रमों में भी बदलाव किया गया है।
इतिहास तथ्य और घटना के सत्य पर आधारित होता है; इसलिए इसकी साहित्य की तरह व्याख्या संभव, नहीं है। विचारधारा के चश्में से इतिहास को देखना उसके मूल से खिलवाड़ है; परंतु अब आर्यों के भारतीय होने के संबंधी एक के बाद एक शोध आने के बाद इतिहास बदला जाने लगा है। इस सिलसिले में पहला शोध स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के टॉमस कीवीशील्ड ने किया था। 2003 में ‘अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स’ में प्रकाशित इस शोध-पत्र में सबसे पुरानी जाति और जनजाति के वंशाणु (जीन) के आधार पर आर्यों को भारत का मूल निवासी बताया गया था। हालाँकि वर्ष 2009 में वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. लालजी सिंह और प्रो. थंगराज ने भी आनुवांशिक परीक्षण के बाद आर्यों को मूल भारतीय बताया था। 2019 में प्रो. वसंत शिंदे द्वारा राखीगढ़ी उत्खनन से मिले 4000 साल पुराने वंशाणु की जांच में सबसे बड़ा सच सामने आया। शोध में पाया गया कि राखीगढ़ी से मिला जीन वर्तमान के प्रत्येक भारतीय व्यक्ति में उपलब्ध है। इसके आधार पर यह तथ्य स्थापित हुआ कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति आर्यों के द्वारा निर्मित है। एनसीआरईटी के इतिहास पाठ्यक्रम निर्धारण समिति के अध्यक्ष बनने पर प्रो. शिंदे ने इस तथ्य के आधार पर पाठ्यक्रम में संशोधन कराए हैं। इसी पुस्तक में मराठा शासक छत्रपति शिवाजी के नाम के साथ छत्रपति और महाराज जोड़ा गया है। इसी तरह कक्षा 12वीं के समाजशास्त्र विषय के पाठ्यक्रम से सांप्रदायिक दंगों के चित्र हटाए गए है। इतिहास पुस्तकों में यह बदलाव सिनौली- राखीगढ़ी में हुए उत्खननों में मिले साक्ष्यों के आधार पर संभव हुआ है।गोया, अब यह अवधारणा पलट गई है कि आर्य न तो विदेशी थे और न ही उन्होंने कभी भारत पर आक्रमण किया। अतएव आर्य भारत के मूल निवासी थे। हरियाणा के हिसार जिले के राखीगढ़ी में की गई पुरातत्त्वीय खुदाई में 5000 साल पुराने मिले दो मानव कंकालों के डीएनए अध्ययन के निष्कर्ष से यह धारणा सामने आई है। इन कंकालों में एक पुरुष और एक स्त्री का था। इनके कई नमूने लेकर उनका आनुवंशिक अध्ययन पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग, भारत सरकार, डेक्कन विश्व-विद्यालय पुणे, सीसीएमबी हैदराबाद और हार्वड स्कूल ऑफ मेडिसन बोस्टन यूएसए ने किया है। इस डीएनए विश्लेषण में यह भी स्पष्ट हो गया है कि आर्य और द्रविड़ मूल भारतीय हैं। राखीगढ़ी हड़प्पा सभ्यता के सबसे बड़े केंद्रों में से एक है। करीब 300 एकड़ में फैले इस क्षेत्र में पुरातत्वविदों ने 2015 में उत्खनन किया था।
आर्य हमलावर के रूप में विदेश से आए होते और नरसंहार किया होता, तो मानव कंकालों के शरीर पर घावों के निशान होते। भारतीय संस्कृति और भाषाएँ नष्ट हो गई होतीं। ऐसा होता, तो आक्रमण की बात सिद्ध होती। व्यापार व पर्यटन आदि के लिए भारत में विदेशी समय-समय पर आते रहे हैं और भारतीय भी विदेश जाते रहे हैं। इन कारणों से जीन में मिलावट होती रही हैं। साफ है, आर्य भारत के ही थे। प्रोफेसर शिंदे ने राखीगढ़ी के उत्खनन के समय बताया था कि अलग-अलग खुदाई में 106 से भी ज्यादा नर-कंकाल मिले हैं। साथ ही भिन्न आकार व आकृति के हवन-कुंड और कोयले के अवशेष मिले हैं। तय है भारत में 5000 साल पहले हवन होते थे। यहीं सरस्वती और इसकी सहायक दृश्यवंती नदी के किनारे हड़प्पा सभ्यता के निशान मिले हैं। ये लोग सरस्वती की पूजा करते थे।
ये आनुवंशिक अनुसंधान ऐतिहासिक- अवधारणाओं को बदलने के आधार बने हैं। ‘आर्यों’ के ऊपर ‘आनुवंशिकी’ आनुवंशिक के आधार पर इसके पहले भी एक शोध सामने आया है। उससे तय हुआ है कि भारतीयों की कोशिकाओं का जो आनुवंशिकी ढ़ाँचा है, वह बहुत पुराना है। डीएनए के आधार पर एक महत्वपूर्ण खोज से साबित हुआ है कि भारत के बहुसंख्यक लोगों के दक्षिण भारतीय दो आदिवासी समुदाय पूर्वज हैं। मानव इतिहास के विकास क्रम में ये स्थितियाँ जैविक प्रक्रिया के रुप में सामने आई हैं। एक अन्य सूचना प्रौद्योगिकी तकनीक द्वार किए गए अध्ययन ने तय किया है कि भगवान श्रीकृष्ण हिन्दू मिथक और पौराणिक कथाओं के काल्पनिक पात्र न होकर एक वास्तविक चरित्र नायक थे और कुरुक्षेत्र के मैदान में हकीकत में महाभारत युद्ध लड़ा गया था।
आनुवांशिक संरचना के आधार पर हैदराबाद की संस्था ‘सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी’ के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस शोध से जो निष्कर्ष सामने आए थे, उनसे स्पष्ट हुआ था कि मूल भारतीय ही ‘आर्य‘ थे। इस शोध का आधार भारतीयों की कोशिकाओं का आनुवंशिक ढाँचा है, जिसका सिलसिलेवार अध्ययन किया गया। जिससे तय हुआ कि भारतीयों की कोशिकाओं का संरचनात्मक ढाँचा पाँच हजार साल से भी ज्यादा पुराना है। इस आधार पर यह कहानी एकदम निराधार साबित हो जाती है कि भारत के लोग 3.5 हजार साल पहले किसी दूसरे देश से आक्रमणकारियों के रूप में यहाँ आए थे। यदि आए होते तो हमारा आनुवंशिक ढाँचा भी 3.5 हजार साल से ज्यादा पुराना नहीं होता। क्योंकि जब वातावरण बदलता है , तो आनुवंशिक ढाँचा भी बदल जाता है। इस तथ्य को इस मिसाल से समझा जा सकता है, मसलन हमारे बीच से कोई व्यक्ति आज अमेरिका या ब्रिटेन जाकर रहने लग जाए , तो उसकी जो चौथी-पाँचवीं पीढ़ी होगी, उसकी सवा-डेढ़ सौ साल बाद आनुवंशिक संरचना अमेरिका या ब्रिटेन निवासियों जैसी होने लग जाएगी ; क्योंकि इन देशों के वातावरण का असर उसकी आनुवंशिक संरचना पर पड़ेगा।
भारतीय संस्कृति के निर्माता और वेदों के रचयिता आर्य भारत के मूल निवासी थे। यदि प्राचीन भारतीय इतिहास को भारतीय दृष्टि से देखें, तो आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। पाश्चात्य इतिहास लेखकों ने पौने दो सौ साल पहले जब प्राच्य विषयों और प्राच्य विद्याओं का अध्ययन शुरू किया, तो बड़ी कुटिल चतुराई से जर्मन विद्वान व इतिहासविद् मैक्समूलर ने पहली बार ‘आर्य’ शब्द को जाति सूचक शब्द से जोड़ दिया। वेदों का संस्कृत से जर्मनी में अनुवाद भी पहली बार मैक्समूलर ने ही किया था। ऐसा इसलिए किया गया, जिससे आर्यों को अभारतीय घोषित किया जा सके। जबकि वैदिक युग में ‘आर्य’ और ‘दस्यु’ शब्द पूरे मानवीय चरित्र को दो भागों में बाँटते थे। प्राचीन साहित्य में भारतीय नारी अपने पति को ‘आर्य-पुरुष’ अथवा ‘आर्य-पुत्र’ नाम से संबोधित करती थी। इससे यह साबित होता है कि आर्य श्रेष्ठ पुरुषों का संकेत-सूचक शब्द था। ऋग्वेद, रामायण, महाभारत, पुराण व अन्य संस्कृत ग्रंथों में कहीं भी आर्य शब्द का प्रयोग जातिसूचक शब्द के रुप में नहीं हुआ है। आर्य का अर्थ ‘श्रेष्ठि’ अथवा ‘श्रेष्ठ’ भी है। वैदिक युग में तो वैसे भी जाति व्यवस्था थी ही नहीं। हाँ, वर्ण- व्यवस्था जरूर अस्तित्व में आ गई थी। इसके अलावा वेद तथा अन्य संस्कृत साहित्य में कहीं भी उल्लेख नहीं है कि आर्य भारत में बाहर से आए। यदि आर्य भारत में बाहर से आए होते, तो प्राचीन विपुल संस्कृत साहित्य में अवश्य इस घटना का उल्लेख व स्पष्टीकरण होता।
ताजा शोध का सार है कि सबसे पहले 65 हजार साल पहले अंडमान और दक्षिण भारत में लोगों का आगमन और आबादी का क्रम शुरू हुआ। इसके करीब 25 हजार साल बाद भारत में लोगों के आने का सिलसिला शुरू हुआ। इस अध्ययन दल के निदेशक डॉ. लालजी सिंह का कहना था कि हम सब भारतीय उत्तर और दक्षिण के इन आदि पुरखों की ही संताने हैं। सवर्ण-अवर्ण जातियों और आदिवासियों के आनुवंशिक गुण व लक्षण कमोबेश एक जैसे हैं। इसलिए आर्य और द्रविड़, अनार्य के परिप्रेक्ष्य में कोई विभाजित रेखा खींचने की जरूरत नहीं रह जाती ? इस अध्ययन से सामने आया है कि जब भारतीय समाज में निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई तब अलग-अलग कबीलों या समूहों से जातियों का उदय हुआ। फलस्वरूप अखण्ड भारत का उत्तर और दक्षिण भारत में विभाजन तो व्यर्थ है ही कबीले और जातियाँ भी बेमानी हैं; क्योंकि सभी भारतीय समुदाय व जातियाँ एक ही कुटुम्ब से विकसित हुए हैं।
ये शोध भाषा, रंग और नस्ल जैसे भेद भरे विभाजक छद्म को भी नामंजूर करते हैं। दरअसल उत्तर और दक्षिण के विभाजन की बात तो अंग्रेज हुक्मरानों ने बाँटों और राज करो के दृष्टिकोण के चलते की थी। उन्नीसवीं शताब्दी में योरोपीय विचारकों ने अपने वंशों के लोगों को श्रेष्ठ प्रमाणित करने के नजरिए से रंग व नस्ल के आधार पर श्रेष्ठता की अवधारणा गढ़ी। मसलन गोरा रंग श्रेष्ठ माना गया। इसी के अनुसार गोरे, गेहुँए और ताँबई त्वचा वाले उत्तर भारतीय श्रेष्ठ और काले या साँवले रंग वाले दक्षिण भारतीय हेय मान लिए गए। उत्तर की भाषा संस्कृत और दक्षिण की भाषाओं को भिन्न परिवारों में रखा गया ; जबकि इन सभी भाषाओं की जननी संस्कृत रही है। गंगा घाटी से आयरलैंड तक की भाषाएँ एक ही आर्य परिवार की आर्य भाषाएँ हैं। इसी कारण इन भाषाओं में लिपि एवं उच्चारण की भिन्नता होने के बावजूद अपभ्रंशी समरूपता है और इन भाषाओं का उद्गम स्त्रोत संस्कृत है। इससे भी यह निश्चित होता है कि आदिकाल में एक ही परिवार की आर्य भाषाएँ बोलने व लिखने वाले पूर्वज कहीं एक ही स्थान पर रहे हैं। बंगाली इतिहासकार ए.सी. दास इस स्थान अथवा मूल भारतीयों का निवास स्थल ‘सप्त सिंधु’ मानते हैं , जो पंजाब में था। अब आर्यों के मूल भारतीय होने की अवधारणा को मान्यता मिल रही हैं। तब इतिहास के इस तथ्य के बदलाव को केवल शालेय पुस्तकों में परिवर्तन तक सीमित न रखते हुए उच्च शिक्षा में भी बदलाव किए जाने जरूरी हैं। अतएव नए शोधों से आए परिणाम की इस सैद्धांतिकी को स्वीकारा जाना चाहिए।
सम्पर्कः शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.), मो. 09425488224, 09981061100
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ज्ञानवर्धक आलेख ।सुदर्शन रत्नाकर
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