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Jul 7, 2024

व्यंग्यः आम आदमी

  - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु ’ 

आम आदमी वह जीव है, जो आम उगाता है, रखवाली करता है, आम बेचता है और खुद आम की गुठली से भी कोसों दूर रहता है। यह आम आदमी बहुत सौभाग्यशाली होता है; क्योंकि यह स्थिति से समझौता कर लेना जानता है। ट्रेन के भीतर भीड़ हो, तो यह छत पर सवार हो लेता है; क्योंकि इसे ताजा हवा खाने का बहुत शौक है। यहाँ तक कि लू और शीत- लहर में भी आराम से छत पर लेटा रह सकता है। दुर्घटना होने पर बिना किसी परेशानी के परलोक की यात्रा पर निकल पड़ता है। इसकी लाश की शिनाख़्त नहीं हो पाती; क्योंकि ज़्यादातर लाशें इसकी सूरत से मिलती-जुलती होती हैं। मायामय संसार के प्रति इसकी यह विरक्ति अनुकरणीय है। इसकी संख्या मरने पर घट जाती है। इसे गणित के चमत्कारों में शामिल किया जा सकता है। कई आम आदमियों की मौत एक ‘खास आदमी’ की मौत के बराबर होती है। सुविधा के लिए हम गणना ‘खास आदमी’ के आधार पर करते हैं।

उफ़नती हुई नदियों की बाढ़ का कहना ही क्या? आँधी और तूफ़ान से बचे झोंपड़े बाढ़ के साथ-साथ बहुत दूर तक सैर कर लेने की हसरत मन में बसाए रहते हैं। शुभ घड़ी आने पर ये जलधारा के साथ बाजी लगाकर जल-विहार के लिए निकल पड़ते हैं। आम आदमी अकाल पड़ने पर जानवर की तरह घास पर भी गुजारा कर लेता है। फुटपाथ पर रैन-बसेरा कर सकता है। बिना खाए, बिना सोए भी रह सकता है।

इसे भाषण सुनने का बहुत शौक होता है; इसीलिए खास आदमी कमजोरी का लाभ उठाते हैं। इसे विशेष रूप से अगवा की गई गाड़ियों में भरकर सभा मण्डप में पहुँचाया जाता है। इसे आया देखकर नेताओं के कण्ठ पर सरस्वती अवतरित हो जाती है। वे आम आदमी की पीड़ा से पिघलकर आश्वासनों का हलवा परोसने लगते हैं, घोषणाओं की चटनी चटाने लगते हैं। इनसे प्रभावित होकर आम आदमी ताली बजाता है, अवसर के अनुकूल जिन्दाबाद या मुर्दाबाद के नारे लगाता है। सभा विसर्जित हो जाती है। जननेता एयर कंडिशण्ड कार में बैठकर बरसों के लिए सिधार जाते हैं। भूलोक उनके लौटने की प्रतीक्षा करता रहता है। आम आदमी अपने धूल-भरे चेहरे को गमछे में पोंछकर घर लौट आता है।

अच्छा साहित्यकार आम आदमी पर लिखता है। वह आम आदमी के प्रति वचनबद्ध होता है। इस प्रतिबद्धता के बिना उसे नींद नहीं आती, भोजन नहीं पचता। आम आदमी की बिसात भले ही दो जून का भोजन जुटाने की न हो; परन्तु यह निरीह प्रतिबद्ध साहित्यकार इस मुग़ालते में रहता है कि आम आदमी उसे पढ़ रहा है। इसलिए पढ़ रहा है कि जो कुछ भी लिखा जा रहा है, उसका केन्द्र-बिन्दु यह आम आदमी है। हाँ, जब यह प्रतिबद्ध लेखक किसी रिक्शे वाले के सम्पर्क में आता है, तो उसके चार आने अधिक माँगने पर लताड़ पिलाता है- ‘‘दिन दहाड़े लूट रहे हो। शर्म नहीं आती!’’ लुटेरे को शर्म आ जाती है; पर इस लेखक को शर्म नहीं आती है। यह सेठों की ड्योढी पर खड़ा चंदा वसूलने के लिए स्तुति गाता रहता है। सीढ़ियों से नीचे उतरकर- ‘हम सब साथी, हम मज़दूर’ गाता है। मंच पर ‘लहू का रंग एक है’ गाता है,  तो हमजोलियों की श्रेष्ठता का निर्धारण हिन्दू-मुसलमान के आधार पर करता है। फिर हिन्दुओं की श्रेष्ठता का निर्धारण जातिगत आधार पर करता है। बेचारा आम आदमी इसकी चालाकी में फँसकर लहूलुहान हो जाता है।

आम आदमी धर्म के बारे में ज्यादा नहीं जानता। वह धर्मशास्त्रों को कम ही पढ़ पाता है; परन्तु धर्म या जाति के नाम पर जितने बवण्डर होते हैं, उनमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है। या यों समझिए- उसे हर प्रकार की भट्टी में ईंधन की तरह झोंक दिया जाता है। आम आदमी नेता नहीं होता, वरन् भीड़ होता है। भीड़ का काम है भेड़ बनकर अनुसरण करना। जनहित और जनभावना की दुहाई देकर लोग प्रायः अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं। ‘आम आदमी’ की सेवा करने के नाम पर बहुत से फ़र्जी जनसेवकों की रोजी-रोटी चल रही है।

राजनेता ‘आम आदमी’ का जबरदस्त समर्थन करते हैं। जैसे ही इनके पैरों में जनसेवा का दर्द शुरू होता है, ये पदयात्रा पर निकल पड़ते हैं। सेब-सन्तरे का जूस पीकर महीने, कई-कई महीने भटकते रह सकते हैं। उसे अन्याय और अत्याचार से जूझने की सलाह दे सकते हैं। बाजार बन्द कराते हैं। अपना प्रभाव घटने पर रैली कराते हैं। रैली से थैली तक का मार्ग योजनाबद्ध तरीके से तय करते हैं। थैली के बल पर जब चाहे भीड़ जुटा लेते हैं। भीड़ जुटाने पर सबको एक ही लाठी से हाँकते हैं। कागजों पर कुएँ खुदवाते हैं, सड़कें बनवाते हैं। जरूरतमंदों की सहायता करते हैं। ये खुद सबसे बड़े जरूरतमंद होते हैं। विज्ञापनों के द्वारा देश का जीर्णोद्धार करने की घोषणा करते हैं। यह क्या कम चमत्कार है?

हम सब कामना करते हैं कि यह आम आदमी सदा बना रहे। अगर यह नहीं रहेगा, तो अपने राम की तुरुप चाल किस पर चलेगी? ‘बार’ में  बैठकर बहसें कैसे होंगी? बिना आम आदमी का डर दिखाए सेठों की तिजौरियों से पैसा कैसे निकाला जाएगा? आम आदमी नहीं होगा, तो साम्प्रदायिक दंगों में लाठी-भाला कौन चलाएगा? आम आदमी के न होने से सचमुच अपनी बहुत दुर्गति हो जाएगी। हे ईश्वर, इस आम आदमी को फटीचर ही रहने देना। इसकी हालत सुधर गई, तो बहुतों की जीविका छिन जाएगी। फिर अपने देश में दंगे नहीं होंगे। यदि दंगे नहीं होंगे, तो दुनिया में हमको कौन जानेगा? दंगे नहीं होंगे, तो राजनीति के दावपेंच दम तोड़ देंगे। दावपेंच छूट जाएँगे, दलों की दलदल का क्या होगा!

5 comments:

भीकम सिंह said...

बहुत सुंदर, हार्दिक शुभकामनाऍं।

शिवजी श्रीवास्तव said...

वाह,सशक्त कटाक्ष।बेहतरीन व्यंग्य।हार्दिक बधाई

विजय जोशी said...

अद्भुत. अद्भुत. अद्भुत. व्यंग जैसी कठिन विधा पर सशक्त योगदान. हार्दिक बधाई.

प्रियंका गुप्ता said...

बड़ा करारा कटाक्ष, इस सशक्त व्यंग्य के लिए बहुत बधाई

Anonymous said...

आम आदमी के यथार्थ पर तीखा व्यंग्य । सुंदर विश्लेषण । हार्दिक बधाई । सुदर्शन रत्नाकर