- डॉ. शिवजी
श्रीवास्तव
अभी दशानन मरा नहीं
है
प्रियवर, दीप जलाएँ कैसे
दीपावली मनाएँ कैसे?
उन्मादी उन्मुक्त
निशाचर
अट्टहास करते,हर पल छिन।
जनकसुता बंदिनी अभी
तक,
काट रहीं दुःख के
दिन,गिन- गिन।
अब भी कई अहल्याओं
के ,
छल से होते
चीर-हरण।
शबरी अब तक बाट
जोहती,
कब आएँगे रघुनन्दन।
राजपथों पर भी
दामिनियाँ
डरी- डरी- सी चलती
हैं
नरपशुओं की गिद्ध
दृष्टि से
अपनी लाज बचाएँ
कैसे.
प्रभु जी ,घर अब जाएँ कैसे?
पुतले फूँकें, दीप जलाएँ,
सदियों की परिपाटी
है।
किन्तु अभी तक रावण की
अगणित छायाएँ बाकी
हैं।
इतिहासों के काले
पन्ने
ये छायाएँ खोल रही
हैं
विद्वेषों की विषम
कालिमा,
वर्तमान मे घोल रही
हैं।
आओ हम सब मिलकर
सोचें
असफल इन्हें बनाएँ
कैसे,
इतना कलुष मिटाएँ
कैसे।
दूर धरा से तम हो
सारा,
ऐसे दीप जलाएँ कैसे?
4 comments:
अभी दशानन मरा नहीं है
प्रियवर, दीप जलाएँ कैसे। बहुत सुंदर भाव ,कटु सत्य
हार्दिक आभार सुदर्शन रत्नाकर जी
अभी दशानन मरा नहीं है , दीपावली मनायें कैसे ।
बहुत सुन्दर ।।
वर्तमान परिवेश के परिपेक्ष्य में सटीक रचना !!
बहुत सुंदर औऱ सार्थक कविता शिवजी भैया...सच है, जब तक सब के जीवन मे सुरक्षा एवम संतोष का उजाला नहीं, तब तक दीपावली केवल एक औपचारिकता विवश दिखावा प्रतीत होता है....!आपको अनेकों बधाई एवं शुभकामनाएँ!!
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