क्या बच पाएगा बाघ
संदीप पौराणिक
सन 1900 के आसपास भारत में लगभग एक लाख बाघ थे। उस समय एक अंग्रेज लेखक ने लिखा है कि सूरज ढलने के बाद लोग घरों से बाहर नहीं निकलते थे और ऐसा लगता था कि भारत में बाघ रहेगा या आदमी। बाघ सहित अन्य जंगली जानवर भी शहरों और गांवों के आसपास प्रचुर मात्रा में पाए जाते थे। वर्ष 1948 में दिल्ली के व्यापारियों का एक प्रतिनिधि मंडल तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिला और उन्होंने गुहार लगाई कि बड़ी संख्या में हिंसक वन्य प्राणी कनाट प्लेस स्थित उनकी दुकानों में घुस जाते हैं और व्यापारियों और ग्राहकों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे जनहानि हो रही है एवं इससे व्यापार प्रभावित होगा। तब नेहरूजी ने उस जगह गनर रखने के आदेश दिए थे। सन 1972 में जब बाघ बचाओ योजना शुरू की गयी तब ऐसा लग रहा था कि अब बाघ सुरक्षित हो जाएगा और वर्ष 1984 में इसकी संख्या 4005 और वर्ष 1989 में सर्वोच्च 4394 तक हो गयी किन्तु यह सब सरकारी आंकड़े थेे। इन्हें बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया।
उस समय तक भारत में बाघ की गिनती उनके पैरों के निशान से की जाती थी तथा कहा जाता था कि हर बाघ का पंजा दूसरे बाघ के पंजे से अलग होता है। जब एक बाघ प्रेमी एवं विशेषज्ञ ने जो कि सरकारी नौकर नहीं था, इस पूरी गणना के तरीके पर एतराज जताया तो हमारे सरकारी वन अधिकारियों ने इसे एक षडय़ंत्र कहा और पंजा आधारित गणना को सही ठहराया, किंतु जब उस बाघ विशेषज्ञ ने 20 नग बाघ के पंजों के निशान दिये तब पोलपट्टी खुली और उन्हें वन अधिकारियों ने चार अलग- अलग बाघों के बतलाए जबकि वे एक ही बाघ के थे। तब पूरी गणना पर प्रश्न चिन्ह लग गया। इसके बाद वैज्ञानिक पद्धति से गणना प्रारंभ हुई। कई बार ऐसा होता है कि कोई भी वन अधिकारी अपने यहां बाघों की संख्या कम बतलाना चाहता है पर इस पूरे सिस्टम में सिर्फ वन अधिकारी ही दोषी नहीं हैं। हमारा लोकतांत्रिक नजरिया भी इसके लिए जिम्मेवार है ।
आज भारत में असम और कर्नाटक दो ऐसे राज्य हैं जहां बाघ सहित हाथी, गैंडा तथा अन्य प्रजातियां काफी तेजी से फल- फूल रही हैं। असम में जंगलों की रक्षा की कमान वहां के वे वन अधिकारी करते हैं जिनके हाथों में ए. के. 47 जैसे हथियार होतेहैं। इसके परिणामस्वरूप तस्कर और शिकारी वहां जाने से डरता है जबकि भारत के अधिकांश राज्यों में जिम्मेवार वन अधिकारी सिर्फ डंडे से काम चलाते हैं। दूसरी बात हमारा खुफिया तंत्र बहुत कमजोर है। आज भी भारत में सिर्फ 50 रू. से 500 रू तक ईनाम ही खुफियागिरी करने वाले व्यक्ति को मिल सकता है जबकि बाघ की पूंछ का बाल ही हजारों रूपये में बिकता है। इसके अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति शिकार करते पकड़ भी जाए तो उसे सजा शायद ही हो। लगभग बाघ सहित अन्य शिकार के 95 प्रतिशत मामलों में शिकारी बच निकलता है। अधिकांश मामलों में वन अधिकारियों को चालान पेश करने के बाद मुद्दों के संबंध में जानकारी ही नहीं रहती दूसरा पक्ष यह कि सरकारी वकील ज्यादा ध्यान नहीं देता उसे भी फीस कम मिलती है, जबकि होना यह चाहिये कि वन अधिकारियों को अलग से प्रायवेट वकील रखने की सुविधा मिले तथा प्रत्येक पेशी पर उसके लिए फीस की व्यवस्था हो तथा वन अपराधों का न्यायालय भी अलग हो।
सच्चाई यही है कि आज भारत में सिर्फ 1400 के आसपास ही बाघ बचे हैं। यह बड़ी निराशा एवं लज्जा की बात है। एक ओर भारत विश्व की महाशक्ति बनने की होड़ में लगा है तथा दूसरी ओर भारत के वनों से बाघ, तेंदुआ, हाथी, वनभैंसा, बाइसन, (गौर) के अतिरिक्त गीदड़, कौआ, बाज, उल्लू तथा सरीसृपों की कई प्रजातियां अपने अस्तित्व के समाप्त होने की कगार पर हैं। अत: हम सारा दोष सिर्फ सरकारी सिस्टम पर थोप कर आंखे नहीं मूंद सकते, भारत में आज वन्य जीव से जुड़े तमाम स्वयंसेवी संगठनों, राजनेताओं तथा हमारे समाज के जिम्मेवार अन्य लोगों को बहस करने की जरूरत है।
जब बांग्लादेश में बाघ की मौत के जिम्मेवार लोगों को फांसी की सजा हो सकती है तो भारत में क्यों नहीं। भारत में सैकड़ों बाघों की हत्या करने वाले संसारचंद को बड़ी मुश्किल से जेल हुई। कई जातियां इस अवैध कार्य में लिप्त हैं, जिन्हें चिन्हित करके उनके पुर्नवास करने की जरूरत है, साथ निपटारा भी जरूरी है एवं ऐसे गांव जो प्रोजेक्ट टाइगर की सीमा में है, उन्हें तुरंत बाहर किया जाना चाहिये। इसके लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति की बहुत आवश्यकता है। आज नेशनल पार्कों एवं उद्यानों में लगभग 60 प्रतिशत कर्मचारियों की कमी है, इन्हें यथा शीघ्र भरा जाना चाहिये।
स्कूल में मैंने प्रसिद्ध लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक लेख पढ़ा था कि 'क्या निराश हुआ जाए' मुझे लगता है कि बाघ यदि बच सकता है तो सिर्फ भारत में। इसके लिए सारे राज्यों को कर्नाटक तथा असम जैसा रवैया अपनाना होगा। बाघ बिल्ली प्रजाति का सदस्य है। यदि उसे समुचित सुरक्षा मुहैया कराई जाए और उसके अनुकूल वातावरण बनाया जाए तो इसमें तेजी से वंशवृद्धि की क्षमता है।
कुछ दिनों पहले हुई बाघों की गणना के जो नए आंकड़े भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने जारी किए उसके अनुसार देश में बाघों की संख्या 1800 के पार होने की बात कही गई है। यह एक सुखद समाचार है, इससे सारे विश्व में बाघों को बचाने की मुहिम में भारत की विश्वसनीयता बढ़ेगी और भारत टाइगर लैंड बना रहेगा किंतु इस मुहिम में वन्य प्राणी विशेषज्ञों, स्वयं सेवी संगठनों तथा वन वासियों को जोड़ा जाना आवश्यक है क्योंकि इनके बिना हम इस लड़ाई को नहीं जीत सकते।
मेरे बारे में-
वन्यजीवन संरक्षण में अभिरूचि। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में विगत 20 वर्षों से वन्य जीवन संरक्षण के क्षेत्र में कार्यरत। विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में लेख व न्यूज चैनलों में साक्षात्कार और वार्ताओं के प्रसारण के माध्यम से वन्य उत्पादों व वन्य जीवों के संरक्षण के प्रति जनसाधारण में जागरूकता लाने का प्रयास। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान, बारनवापारा, उदंती और चिल्फी घाटी जिला कवर्धा आदि में वन्य जीवों का छायांकन। संप्रति- वन्य जीव सलाहकार बोर्ड छत्तीसगढ़ शासन के सदस्य एवं सतपुड़ा वन्य जीव फाउंडेशन के माध्यम से वन्य जीव संरक्षण और संवर्धन का कार्य।
पता: एफ -11 शांति नगर सिंचाई कालोनी, रायपुर- मो. 9329116267
संदीप पौराणिक
आज सारी दुनिया में इस बात की बहस हो रही है कि क्या जंगल के राजा का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा या उसे हमारी आने वाली पीढ़ी जंगल में नहीं देख पायेगी। क्या भारत के जंगल बिना बाघ के सूने ही रह जाएंगे।
उस समय तक भारत में बाघ की गिनती उनके पैरों के निशान से की जाती थी तथा कहा जाता था कि हर बाघ का पंजा दूसरे बाघ के पंजे से अलग होता है। जब एक बाघ प्रेमी एवं विशेषज्ञ ने जो कि सरकारी नौकर नहीं था, इस पूरी गणना के तरीके पर एतराज जताया तो हमारे सरकारी वन अधिकारियों ने इसे एक षडय़ंत्र कहा और पंजा आधारित गणना को सही ठहराया, किंतु जब उस बाघ विशेषज्ञ ने 20 नग बाघ के पंजों के निशान दिये तब पोलपट्टी खुली और उन्हें वन अधिकारियों ने चार अलग- अलग बाघों के बतलाए जबकि वे एक ही बाघ के थे। तब पूरी गणना पर प्रश्न चिन्ह लग गया। इसके बाद वैज्ञानिक पद्धति से गणना प्रारंभ हुई। कई बार ऐसा होता है कि कोई भी वन अधिकारी अपने यहां बाघों की संख्या कम बतलाना चाहता है पर इस पूरे सिस्टम में सिर्फ वन अधिकारी ही दोषी नहीं हैं। हमारा लोकतांत्रिक नजरिया भी इसके लिए जिम्मेवार है ।
आज भारत में असम और कर्नाटक दो ऐसे राज्य हैं जहां बाघ सहित हाथी, गैंडा तथा अन्य प्रजातियां काफी तेजी से फल- फूल रही हैं। असम में जंगलों की रक्षा की कमान वहां के वे वन अधिकारी करते हैं जिनके हाथों में ए. के. 47 जैसे हथियार होतेहैं। इसके परिणामस्वरूप तस्कर और शिकारी वहां जाने से डरता है जबकि भारत के अधिकांश राज्यों में जिम्मेवार वन अधिकारी सिर्फ डंडे से काम चलाते हैं। दूसरी बात हमारा खुफिया तंत्र बहुत कमजोर है। आज भी भारत में सिर्फ 50 रू. से 500 रू तक ईनाम ही खुफियागिरी करने वाले व्यक्ति को मिल सकता है जबकि बाघ की पूंछ का बाल ही हजारों रूपये में बिकता है। इसके अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति शिकार करते पकड़ भी जाए तो उसे सजा शायद ही हो। लगभग बाघ सहित अन्य शिकार के 95 प्रतिशत मामलों में शिकारी बच निकलता है। अधिकांश मामलों में वन अधिकारियों को चालान पेश करने के बाद मुद्दों के संबंध में जानकारी ही नहीं रहती दूसरा पक्ष यह कि सरकारी वकील ज्यादा ध्यान नहीं देता उसे भी फीस कम मिलती है, जबकि होना यह चाहिये कि वन अधिकारियों को अलग से प्रायवेट वकील रखने की सुविधा मिले तथा प्रत्येक पेशी पर उसके लिए फीस की व्यवस्था हो तथा वन अपराधों का न्यायालय भी अलग हो।
सच्चाई यही है कि आज भारत में सिर्फ 1400 के आसपास ही बाघ बचे हैं। यह बड़ी निराशा एवं लज्जा की बात है। एक ओर भारत विश्व की महाशक्ति बनने की होड़ में लगा है तथा दूसरी ओर भारत के वनों से बाघ, तेंदुआ, हाथी, वनभैंसा, बाइसन, (गौर) के अतिरिक्त गीदड़, कौआ, बाज, उल्लू तथा सरीसृपों की कई प्रजातियां अपने अस्तित्व के समाप्त होने की कगार पर हैं। अत: हम सारा दोष सिर्फ सरकारी सिस्टम पर थोप कर आंखे नहीं मूंद सकते, भारत में आज वन्य जीव से जुड़े तमाम स्वयंसेवी संगठनों, राजनेताओं तथा हमारे समाज के जिम्मेवार अन्य लोगों को बहस करने की जरूरत है।
जब बांग्लादेश में बाघ की मौत के जिम्मेवार लोगों को फांसी की सजा हो सकती है तो भारत में क्यों नहीं। भारत में सैकड़ों बाघों की हत्या करने वाले संसारचंद को बड़ी मुश्किल से जेल हुई। कई जातियां इस अवैध कार्य में लिप्त हैं, जिन्हें चिन्हित करके उनके पुर्नवास करने की जरूरत है, साथ निपटारा भी जरूरी है एवं ऐसे गांव जो प्रोजेक्ट टाइगर की सीमा में है, उन्हें तुरंत बाहर किया जाना चाहिये। इसके लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति की बहुत आवश्यकता है। आज नेशनल पार्कों एवं उद्यानों में लगभग 60 प्रतिशत कर्मचारियों की कमी है, इन्हें यथा शीघ्र भरा जाना चाहिये।
स्कूल में मैंने प्रसिद्ध लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक लेख पढ़ा था कि 'क्या निराश हुआ जाए' मुझे लगता है कि बाघ यदि बच सकता है तो सिर्फ भारत में। इसके लिए सारे राज्यों को कर्नाटक तथा असम जैसा रवैया अपनाना होगा। बाघ बिल्ली प्रजाति का सदस्य है। यदि उसे समुचित सुरक्षा मुहैया कराई जाए और उसके अनुकूल वातावरण बनाया जाए तो इसमें तेजी से वंशवृद्धि की क्षमता है।
कुछ दिनों पहले हुई बाघों की गणना के जो नए आंकड़े भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने जारी किए उसके अनुसार देश में बाघों की संख्या 1800 के पार होने की बात कही गई है। यह एक सुखद समाचार है, इससे सारे विश्व में बाघों को बचाने की मुहिम में भारत की विश्वसनीयता बढ़ेगी और भारत टाइगर लैंड बना रहेगा किंतु इस मुहिम में वन्य प्राणी विशेषज्ञों, स्वयं सेवी संगठनों तथा वन वासियों को जोड़ा जाना आवश्यक है क्योंकि इनके बिना हम इस लड़ाई को नहीं जीत सकते।
मेरे बारे में-
वन्यजीवन संरक्षण में अभिरूचि। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में विगत 20 वर्षों से वन्य जीवन संरक्षण के क्षेत्र में कार्यरत। विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में लेख व न्यूज चैनलों में साक्षात्कार और वार्ताओं के प्रसारण के माध्यम से वन्य उत्पादों व वन्य जीवों के संरक्षण के प्रति जनसाधारण में जागरूकता लाने का प्रयास। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान, बारनवापारा, उदंती और चिल्फी घाटी जिला कवर्धा आदि में वन्य जीवों का छायांकन। संप्रति- वन्य जीव सलाहकार बोर्ड छत्तीसगढ़ शासन के सदस्य एवं सतपुड़ा वन्य जीव फाउंडेशन के माध्यम से वन्य जीव संरक्षण और संवर्धन का कार्य।
पता: एफ -11 शांति नगर सिंचाई कालोनी, रायपुर- मो. 9329116267
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