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May 10, 2011

कालिंग बेल

- अरुण चन्द्र रॉय
पहली बार
जब लगी होगी
कालिंग बेल
थोड़ी दूर हुई होगी
आत्मीयता और सहजता
जीवन में
प्रवेश हुआ होगा
यांत्रिकता का।
ठिठक गए होंगे
कई बेलौस बेफिक्र कदम
खामोश हो गई होगी
कई अपनापे से भरी पुकार
देहरी से ही
इनके बदले आई होगी
थोड़ी औपचारिकता
रिश्तों में।
कालिंग बेल की
घनघनाहट के बीच
चुप से हुए सांकल
उभरा कुछ अजनबीपन
आपस में।
आज जब
जीवन का अहम् हिस्सा
बन गयी है कालिंग बेल
इनके बजने के साथ ही
ठीक कर लिए जाते हैं
परदे, कपड़े, चादर
मेज पर पड़ी किताबें
सही स्थान पर रख दी जाती हैं
चीजें सजाकर
एक हंसी पसर जाती है
अधरों पर, छद्म ही भले।
कई बार
इनके बजने से
उभर आते हैं दर्जनों चेहरे
उनसे जुड़ी यादें
उनसे जुड़े मुद्दे
कुछ देते हुई खुशी
कुछ बेमौसम सी।
संगीतमय होती नहीं है
कालिंग बेल
फिर भी कई बार
कर्णप्रिय लगती है यह
खास तौर पर
जब हो रहा हो किसी का
इन्तजार।
कालिंग बेल
वैसे तो है
निर्जीव ही लेकिन
सच कहूँ तो
कई बार
होते हैं भाव, संवेदना
इनमें भी
जैसे किसी के फुर्सत में
तो किसी के
जल्दी में होने के बारे में
बता देती है
कालिंग बेल
क्योंकि
अखबार वाले पाण्डेय जी
जब लेने आते हैं
महीने का बिल
बजा देते हैं जल्दी जल्दी
कई बार कालिंग बेल
समय नहीं है उनके पास भी।
आज के बदलते दौर में
कई बार आशंकित भी
करती है कालिंग बेल
खासतौर पर
जब भुगतान नहीं की गई हो
बैंक की कोई किस्त
चुकाया नहीं हो
आधुनिक महाजनों का
आकर्षक सा दिखने वाला उधार
ऐसे में युद्ध के मैदान में
बजते इमरजेंसी अलार्म सी
लगती है कालिंग बेल।
पहली बार जब मैं
आया था तुम्हारे द्वार
बजाई थी कालिंग बेल
थरथराते हाथों से
कहो ना
कैसा लगा था तुम्हें
क्या पहचान पाई थी
मेरे तेजी से
धड़कते ह्रदय का स्पंदन।
माँ को कभी
प्रिय नहीं लगी यह
कालिंग बेल
अच्छी लगती है
उसे अब भी
सांकल की आवाज
जिससे पहचान लेती है वह
बाबूजी को, मुझे, छुटकी को,
पूरे मोहल्ले को
डरती नहीं थी वह
सांकल की आवाज से
समय- असमय कभी भी।

मेरे बारे में -
पेशे से कॉपीरायटर तथा विज्ञापन व ब्रांड सलाहकार। दिल्ली और एनसीआर की कई विज्ञापन एजेंसियों और नामी- गिरामी ब्रांडो के साथ काम करने के बाद स्वयं की विज्ञापन एजेंसी तथा डिजाईन स्टूडियो का संचालन। देश, समाज व अपने लोगों से सरोकार बनाये रखने के लिए कविता को माध्यम बनाया।
पता: प्लाट नं.- 99, ज्ञान खंड -।।। , इंदिरापुरम, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश 201012
मो. 09811721147, www.aruncroy.blogspot.com

1 comment:

vandana gupta said...

यही अरुण जी की कविताओं की खासियत है कि वो वहाँ से देखना शुरु करते हैं जहाँ कोई देखना ही नही चाहता और उस चीज़ की अहमियत इस तरीके से दर्शाते हैं कि पढने वाला उसी मे डूब जाता है।