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Nov 6, 2023

कहानीः घर का रास्ता

 - सुदर्शन रत्नाकर

  देर तक वह दोनों के साथ बैठा रहा। साथ देने के लिए उसने गिलास हाथ में रखा; लेकिन अधिक पी नहीं; अपितु दोनों को पीने के लिए उकसाता रहा; ताकि वे होश में न रहें। आज वह अकेला ही अपने मिशन पर जाना चाहता था। उनके साथ रहने से उन्हें हिस्सा तो देना ही पड़ता है, जबकि आज उसे कोई बँटवारा नहीं चाहिए । उसे स्मिता को उपहार देना है। यह बात वह उन्हें नहीं कह सकता था; क्योंकि हर बार वे तीनों एक साथ जाते हैं। इससे कोई ख़तरा नहीं रहता। पर आज वह यह ख़तरा उठाना चाहता था। यह उसकी ज़रूरत थी। जब वे दोनों पूरी तरह से निढाल हो गए, उन्हें उसी अवस्था में छोड़कर वह बाहर निकल आया। थोड़ी देर पहले जो गहमागहमी थी, वह कम हो गई थी। रात के बारह कब के बज चुके थे। इक्का-दुक्का पटाखा चलने की आवाज़ आ रही थी। कहीं-कहीं बिजली के बल्बों की लड़ियाँ जगमगा रही थीं। मोमबत्तियाँ बुझ गई थीं दीये बुझने की कगार पर थे। थके -माँदे लोग सो गए थे। पहली नींद गहरी होती है। किसी भी घर में सेंध लगाने का अवसर अच्छा था। वह देर तक एक गली से दूसरी गली में घूमता रहा। उन दोनों के साथ रहने से उसे परेशानी नहीं होती । वे लोग योजना बनाकर निकलते है; लेकिन आज वह मौक़ा देखकर किसी भी घर में चला जाएगा। कई लोग लक्ष्मी के आगमन के लिए घर का दरवाजा खुला रखते हैं। इस गली में सभी लोग पैसे वाले है, यह उसे मालूम है। उसे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। गली के नुक्कड़ वाले मकान की बाहर की बत्तियाँ बुझी हुई थीं। अन्दर केवल एक ही कमरे में मध्यम-सा प्रकाश था। दीवार फाँदकर वह आँगन में आ गया। सामने का दरवाज़ा खुला हुआ था। वह दबे पाँव भीतर चला गया। दो कमरे साथ-साथ थे। वहाँ उसे कोई भी दिखाई नहीं दिया। टार्च की रोशनी में वह इधर-उधर देखने लगा। टेबल पर  कुछ सामान और पर्स रखा था। उसने टटोल कर देखा, उसमें कुछ ही रुपये थे और साथ में चाबियाँ भी। उसने अलमारी में लगाकर देखी। बिना आवाज़ के वह खुल गई। उसमें रखे आभूषण उसने जेब में रखे। अलमारी बंदकर वह बाहर निकल कर जाने ही वाला था कि उसे किसी के कराहने की आवाज़ सुनाई दी। वह कुछ क्षण रुका; लेकिन फिर जाने लगा। दरवाज़े तक पहुँचकर वह ठिठक गया। कराहने की आवाज़ तेज़ हो गई थी। उस आवाज़ में एक अजीब-सा दर्द था। वह बाहर नहीं जा सका; अपितु उस कमरे की ओर उसके कदम बढ़ गए, जहाँ से आवाज़ आ रही थी। दरवाजा थोड़ा खुला था। उसने झाँक कर देखा। चारपाई पर एक क्षीणकाय आकृति दिखाई दी। कराहने की आवाज़ वहीं से आ रही थी। धीरे से पूरा दरवाजा खोलकर दबे पाँव वह अंदर चला गया। कराहने की आवाज़ अब धीमी पड़ गई थी। जब तक वह चारपाई के पास पहुँचा, आवाज़ लगभग बंद हो गई थी। वृद्धा एकदम निढाल-सी पड़ी थी। उसे चिंता हुई । टटोलकर  उसने नाड़ी देखी, बहुत धीरे चल रही थी। माथे को छूकर देखा, तो लगा उसका अपना हाथ ही क्षण भर में गर्म हो गया है। उसे समझने में देर नहीं लगी कि वृद्धा ज्वर में बेहोश पड़ी है। घर में शायद कोई और नहीं है; लेकिन वह क्या करे! एक बार सोचा इतनी आसानी से उसे इतना माल मिल गया है, वह उसे खोना नहीं चाहता था। उसे निकल जाना चाहिए। अपने साथियों को भी वह साथ नहीं लाया था, ताकि वह अकेला चोरी का माल ले जा सके। यदि वह रुका और घर में कोई आ गया, तो वह पकड़ा जाएगा। उसके भीतर अन्तर्द्वन्द्व चल रहा था। एक बार वह जाने के लिए पलटा; लेकिन फिर न जाने क्या सोच कर वह चारपाई के पास आ गया। वृद्धा उसी तरह निश्चेष्ट पड़ी थी। उसके चेहरे पर अजीब से भाव थे। ऐसा लग रहा था जैसे वह बेहोशी में भी कुछ कहना चाह रही है। उससे अब अधिक देखा नहीं गया। अपने साथियों में सबसे अधिक कठोर, निष्ठुर माना जाता है वैसे भी उसका धंधा ही ऐसा है जिसमें संवेदना का कोई स्थान नहीं; लेकिन इस समय वह भावुक हो रहा था।

   चारपाई के पास ही एक तिपाई पर कुछ दवाइयाँ और थर्मामीटर रखे थे। उसने छटककर थर्मामीटर वृद्धा की बग़ल में लगा दिया। ज्वर एक सौ चार डिग्री से भी कुछ अधिक था। उसे ध्यान आया, इतना बुख़ार होने पर ठंडे पानी की पट्टियाँ माथे पर रखने से बुख़ार कम हो जाता है। उसने इधर-उधर झाँककर देखा। किचन दूसरे कमरे के साथ थी। वह जल्दी से पानी ले आया। उसे आस-पास कोई कपड़ा दिखाई नहीं दिया। तो उसने अपनी पैंट की जेब में रखा रुमाल निकाला और उसकी तह लगाकर पानी में भिगोकर निचोड़ा और वृद्धा के माथे पर रख दिया। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वह इस क्रिया को दोहराता रहा। साथ-साथ नब्ज भी देखता रहा जो उसी गति से चल रही थी। बुख़ार में भी विशेष अंतर नहीं आ रहा था। इस समय वह जिस परिस्थिति में था वह डॉक्टर के पास भी नहीं जा सकता था।

   उसने माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ बंद कर दीं। वृद्धा की नब्ज़ हाथ में लिये वह बैठा रहा। रात के दो बज चुके थे। बाहर एकदम गहरा सन्नाटा था। सभी लोग शायद थककर गहरी नींद में सो चुके थे। उसने सोचा वह चोरी  किया सामान उठाए और चला जाए। अभी भी निकल भागने का समय है। यही सोचकर वृद्धा की बाजू छोड़कर वह जाने लगा। वह अभी दरवाज़े तक ही पहुँचा था कि उसे फिर कराहने की आवाज़ सुनाई दी, साथ ही लगा कि वृद्धा कुछ कह रही है। वह फिर लौट आया। झुककर उसने वृद्धा की आवाज़ सुनने की कोशिश की। अस्फुट शब्द उसके कानों में पड़े। बे...टा, साथ ही उसने आँखें खोलने की कोशिश की। शायद वह होश में आ रही थी। उसने तिपाई पर रखी दवाई की ओर इशारा किया। दवा की मात्रा लिखी हुई थी। उसने गोलियाँ निकालीं । पास ही गिलास में ढका हुआ पानी रखा था; लेकिन वह गोलियों खिलाए कैसे! वह तो अभी निढाल पड़ी थी। उसने पानी एक ओर रख दिया और स्वयं चारपाई पर ऐसे बैठ गया, जिससे वह वृद्धा के सिर को आसानी से उठाकर अपनी गोद में रख सके। उसकी बेहोशी कुछ टूट रही थी, उसने आराम से दवा ले ली। सिर अभी भी उसकी गोद में था। थोड़ी देर वह शांत भाव से पड़ी रही, दवाई ने शायद असर करना शुरु कर दिया था। वृद्धा के शरीर में थोड़ी-थोड़ी हरकत होनी शुरु हो गई थी। उसने धीमी आवाज़ में पूछा, “बेटा कब आए, आने में देर क्यों हो गई । बहू और बच्चे भी आए हैं न, कहाँ हैं सब?”

बोलते -बोलते उसकी साँस फूल गई।

 उसे समझने में देर नहीं लगी कि दीवाली के दिन उसे अपने बेटे-बहू और बच्चों के आने की प्रतीक्षा थी, जो नहीं आए और बेहोशी की स्थिति में भी उनकी प्रतीक्षा है। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। वृद्धा फिर अस्फुट शब्दों में बोली,  “बोलते क्यों नहीं बेटे, बहू नहीं आई शायद। बच्चे भी नहीं आए। आज की रात तुम अकेला क्यों छोड़ आए उन्हें। बहू  नहीं आना चाहती होगी, आ जाती तो, मैं बच्चों को भी देख लेती।”  बात करते-करते वह लगभग हाँफने लगी थी। आँखें तरल हो गईं। उसने धीमी आवाज़ में इतना ही कहा, “सभी आए हैं माँ, दूसरे कमरे में सो रहे हैं। तुम भी सो जाओ, सुबह मिल लेना।”

 वृद्धा को जैसे विश्वास हो गया। उसने आँखें बंद कर लीं। चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे। दवा का असर भी हो चुका था। बुख़ार कम हो रहा था। थोड़ी देर में ही वह निश्चिंत होकर सो गई। चेहरा एकदम शांत था जैसे उसकी सारी चिंता मिट गई हो।

उसने धीरे से सिर गोद से उठाकर सिरहाने पर टिका दिया। उसका सारा शरीर अकड़ गया था। एक लम्बी अँगड़ाई लेकर उसने घड़ी की ओर देखा। सुबह के चार बज गए थे। लगभग सारी रात उसने यहीं बिता दी थी। उसने सोई हुई वृद्धा को देखा। उसे लगा उसकी अपनी माँ सो रही है। वह भी तो बेचारी अकेली उसकी प्रतीक्षा करती रहती होगी। वह कई -कई दिन घर नहीं जाता। माँ को तो यह भी पता नहीं होता कि वह है कहाँ! वह भी तो बीमार होती होगी ऐसी ही दशा में...। दीवाली की रात उसने भी तो प्रतीक्षा की होगी। सारी रात जगी होगी वह और फिर थककर सो गई होगी। यह सोचकर वह अंदर से पहली बार काँप उठा। कुछ था जो उसे झकझोर गया।

 उसने वृद्धा के चेहरे से दृष्टि हटा ली। दूसरे कमरे में  चीजों पर उचकती नज़र डाली अलमारी से निकाला सामान वापिस रखकर कमरे के खुले दरवाज़े को बंद कर  मेन गेट खोलकर वह बाहर निकल आया। बाहर अभी भी अँधेरा था। भोर होने में देर थी; लेकिन उससे होने वाला उजास उसके मन में पहले ही भर गया था। जिसकी लौ में उसे अपने घर का रास्ता साफ़ दिखाई दे रहा था।

सम्पर्कः  ई-29, नेहरू ग्राउंड फ़रीदाबाद- 121001, मोबाइल-9811251135


3 comments:

विजय जोशी said...

बहुत ही मार्मिक। दिल को गहराई तक छू गई। संवेदनाओं का सफ़रनामा है यह योगदान। हार्दिक बधाई सहित सादर

Vinns said...

बहुत ही सुंदर कहानी ।

सुशील चावला said...

बहुत सुन्दर कहानी, हर व्यक्ति के अंदर एक इंसान छुपा होता है जिसमें मानवता होती है, भावना होती है। आपने सुंदरता से दर्शाया है।