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Nov 6, 2023

परसाई जन्म शताब्दी वर्ष परः पूछिए परसाई से ...

  - विनोद साव

लेखक बनने से पहले जिज्ञासाएँ तो कई होती थीं; पर समाधान करने वाले सुयोज्ञजन कहाँ मिलते। ऐसे में घर में आने वाले दैनिक अख़बार देशबन्धु ने मेरे जैसे अनेक जिज्ञासुओं की जिज्ञासा को शांत किया। इसके अख़बार के अवकाश अंक में हर रविवार को ‘पूछिए परसाई से’ स्तम्भ छपा करता था। यह स्तम्भ 1983 से 1994 के बीच ग्यारह वर्षों तक छपा। जिसमें दुनिया जहान से पूछे गए सामान्य प्रश्नों के रोचक उत्तर देते थे हरिशंकर परसाई। वे अपनी विदग्ध शैली में अपने वैश्विक ज्ञान का भंडार खोल देते थे। जिसमें परसाई प्रश्न कर्ताओं को विश्व गुरु लगा करते थे। विडम्बना यह है कि हम परसाई की के व्यंग्य-संग्रहों और विचारधाराओं पर तो बातें कर लेते हैं; पर यह स्तम्भ जो परसाई की लेखकीय प्रगल्भता का सबसे बड़ा प्रमाण था, जिसमें वे लोकशिक्षण और जनमत निर्माण कर रहे थे, इस पर साहित्यकारों के बीच कभी कोई वैचारिक चर्चा नहीं होती।।। एक बार मैंने कोशिश की थी एक वर्ष परसाई जयंती में ‘पूछिए परसाई से’ स्तम्भ पर ही अपने वक्तव्य को केन्द्रित किया था। देशबन्धु का यह स्तम्भ राजकमल प्रकाशन से छपकर आया तो ‘पूछो परसाई से’ हो गया। खैर... राजकमल प्रकाशन से छपी परसाई की यह दुर्लभ कृति जब मेरे हाथों आई तो पाया कि अपनी युवावस्था में पूछे गए मेरे चार प्रश्न भी इसमें समाहित हैं।। वही आज मैं आप लोगों के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। सवाल मेरे और जवाब परसाई के।

प्रश्न-१ (13 नवम्बर 1983) क्या आप एलेक्सेंडर सोल्जेनेत्सिन के बारे में बता सकते हैं?

उत्तर : एलेक्सेंडर सोल्जेनित्सिन रुसी लेखक हैं? उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास ‘कैंसर वार्ड’  है उनकी रूस में कई मुद्दों को लेकर आलोचना होती थी। उन पर मुख्य आरोप यह था कि वे साम्यवादी व्यवस्था के विरोधी हैं। वे रूस के विरुद्ध दुष्प्रचार करते हैं। वे चोरी से अपनी पाण्डुलिपियाँ पूंजीवादी देशों में भेजकर छपाते हैं। वे पूँजीवाद के समर्थक हैं और सी.आई.ए. के दलाल हो गए हैं। फिर भी रूस से उन्हें निकाला नहीं गया। उन्हें कोई सजा भी नहीं दी गई। पर वे खुद रूस छोड़ गए। पहले वे ब्रिटेन पहुँचे। वहाँ से अमेरिका चले गए और वहीं बस गए। अमेरिका ने कुछ समय तक उनका उपयोग रूस विरोधी प्रचार के लिए किया; पर रूस छोड़ने के बाद उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण लिखा नहीं। अब उनके बारे में कुछ सुनाई नहीं देता। बोरिस पास्तरनेक के बाद सोल्जेनित्सिन दूसरे महत्त्वपूर्ण लेखक हैं, जिन्हें लेकर दुनिया के साहित्य संसार में रूस में लेखक की स्वाधीनता पर विवाद खड़ा हुआ। पास्तरनेक के उपन्यास ‘डॉक्टर जिवागो’ पर नोबेल पुरस्कार दिया गया था।  

प्रश्न-२ : (13 मई 1984 का प्रश्न) दार्शनिक प्लेटो के लिए ‘अफलातून’ शब्द क्यों लगाया जाता है?

उत्तर : प्लेटो को ‘अफलातून’ अरबों ने कहा था। अब हमारी भाषा में प्लेटो का यह नाम, विशेषण बन गया है। कहते हैं ‘अमुक आदमी बड़ा अफलातून बनता है’

प्रश्न-३ : (8  जुलाई 1984) खुशवंत सिंह द्वारा पद्मभूषण लौटाना देशद्रोह है या उनका सठिया जाना?

उत्तर : खुशवंत सिंह द्वारा पद्मभूषण लौटाना देशद्रोह नहीं है। स्वर्णमंदिर में सैन्य कार्यवाही का विरोध करना भी देशद्रोह नहीं। खुशवंत सिंह काफी जिम्मेदार पत्रकार नहीं हैं। उनके कालमों में फूहड़ और गंदे लतीफे बहुत होते हैं। वे अवसरवादी हैं। वे लगातार अकाली आन्दोलन और उग्रवादियों के खिलाफ लिखते रहे हैं। उन्होंने यह भी लिखा था कि मेरा नाम आतंकवादियों की हिट लिस्ट में है। वे सरकार से सख्ती की बार - बार अपील करते थे; मगर जब सरकार ने सख्ती की तब वे उसके विरोधी हो गए।

खुशवंत सिंह की कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं है। वे अंधे साम्यवाद विरोधी और रूस-विरोधी हैं। दूसरे वे अवसरवादी हैं। वे 1975 से इंदिराजी के चमचे कहलाते रहे हैं। वे खुद गर्व से लिखते थे - “मैं इन्दिरा गाँधी का चमचा हूँ।” इसी चमचागिरी का इनाम ‘पद्मभूषण’ और राज्यसभा की सदस्यता है। पर अब इंदिराजी के दरबार में उनका अवमूल्यन हो गया। सुना है वे मेनका  के साथ हैं। पद्मभूषण लौटाना कोई बड़ा त्याग नहीं है, विरोध का प्रतीक है। दूसरे वे आतंकवादियों से डर गए। भिण्डरावाला के मरने से आतंकवाद ख़त्म नहीं हुआ है, अभी है। खुशवंत सिंह ने जान बचाने का यह तरीका अपनाया पर वे राज्यसभा की सीट से चिपके हैं।

प्रश्न-४: (11फ़रवरी 1990) विवेकानंद के विचारों से स्कूल-कॉलेज के छात्रों को अधिक प्रभावित होते देखा, प्रौढ़ और वृद्ध व्यक्तियों को नहीं। विवेकानंद की मृत्यु मात्र ३८ वर्ष की उम्र में हुई। क्या उनके विचारों की तरुणाई से ही युवा वर्ग सम्मोहित होता रहा है?

उत्तर : महान प्रतिभाओं और महान कार्य करने वालों के लिए उम्र का सवाल नहीं है। ईसा ३२ साल में मरे और शंकराचार्य की मृत्यु भी ३२ साल में हुई। ब्रिटेन में विलियम पिट 24 साल की उम्र में प्रधानमंत्री हो गया था। विवेकानंद हिन्दू पुनरुत्थानवादी और पुरातनवादी नहीं थे, जैसा कि कुछ लोग उन्हें बताते हैं। वे भारतीय नवजागरण के नेता थे और क्रान्तिकारी चेतना संपन्न। समतावादी समाज की कल्पना करते थे। उन्होंने जो लिखा है और कहा है, इससे मालूम होता है वे शोषण की व्यवस्था के कट्टर विरोधी थे। उनके कई कथन तो किसी बड़े मार्क्सवादी क्रान्तिकारी के कथन की तरह हैं।

प्रश्न-5 (10 नवम्बर 1991) शरद जोशी ने अपने व्यंग्य लेखन को व्यंग्य की दौड़-धूप बताया है, कृपया स्पष्ट करें।

उत्तर:  मैं नहीं जानता कि शरद ने किस अभिप्राय से कहा। शायद इस कारण कि वह बहुत लिखते थे. वह रोज नवभारत टाइम्स में लिखते थे. एक से अधिक टीवी सीरियल के स्क्रिप्ट लिखने थे। यह एक तरह की दौड़- धूप ही थी। शरद बहुत ही प्रतिभावान लेखक थे।"

सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़- 491001, email- vinod.sao1955@gmail.com, मो. 9009884014


1 comment:

सुशील चावला said...

परसाई जी ने जो कहा स्पष्ट रूप से कहा, बिना लाग लपेट के कहा, साधुवाद।