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Nov 6, 2023

कविताः जले ज्योति

  - रमेश गौतम

जले ज्योति ऐसी यहाँ, दमक उठे आकाश ।

वैभवपतियों तक रहे, सीमित नहीं प्रकाश ।।

 

सच है केवल रोशनी, किस्से दर्ज हजार ।

एक किरण से हारता, तम का कारागार ।।

 

एक-एक दीपक जले, फैले जग उजियार।

बढ़े रात-दिन चौगुना, दीपक का परिवार।।

 

उतनी कठिन उपासना, जितनी काली रात।

दीपक के संघर्ष में, लाख टके की बात ।।

 

बरी हुआ तम खेलकर, दुराचार का खेल।

मिली रोशनी को यहाँ, जीवन भर की जेल ।।

 

अँधियारा चाकू लिये, करता बन्द जुबान ।

फिर चोरों की भीड़ में, दीपक लहूलुहान ।।


बोएँ मन के खेत में, उजियारे के बीज।

शरत् पूर्णिमा-सी लगे, हर तन की दहलीज । ।


 जले नए संदर्भ में, अब मावस के दीप।

हर द्वारे पर रोशनी, आकर धरें महीप।।


नई रोशनी की बने, फिर ऊँची मीनार ।

इठलाए दीपावली, पहन नौलखा हार ।।

 

अँधियारे के राज में, सपने होते राख।

दीपक तेरे हाथ में, उजियारे की साख ।।

 

वंचित रहे न तनिक भी, श्रमजीवी की प्यास।

बस थोड़ी सी रोशनी, कच्चे घर की आस ।।


1 comment:

Anonymous said...

सुंदर कविता सुदर्शन रत्नाकर