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Nov 6, 2023

धरोहरः कलचुरी कालीन भगवान शिव का प्राचीन मंदिर देव बलोदा


छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 25 किमी की दूरी पर स्थित है देव बलोदा जो भिलाई रेलवे स्टेशन से लगभग 2 मील की दूरी है। यहाँ भगवान शिव का छह मासी प्राचीन मंदिर है। यह भी कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण सिर्फ 6 महीने में हुआ था इसीलिए इसे छह मासी शिव मंदिर भी कहते हैं। कलचुरी काल में बने ग्यारहवीं
बारहवीं शती के इस शिव मंदिर को प्राचीन स्मारक एवं पुरातात्त्विक महत्त्व का घोषित किया गया है। बलुआ प्रस्तर से बने इस मंदिर में सबसे खास बात कि इस मंदिर का शिखर ही नहीं है। इस मंदिर की तुलना भोरमदेवखजुराहो तथा अजंता की गुफाओं से भी की जाती है। नागर शैली में बने इस मंदिर में विष्णु के दशाअवतारगणेशसरस्वतीशिव-पार्वतीमहिषासुरमर्दिनी सहित पाँच पांडवभैरवकर्ण एवं अर्जुन युद्ध आदि कई विशेष प्रसंगों को मूर्तियों में दर्शाया गया है।
शिव-पार्वतीमहिषासुरमर्दिनी सहित पाँच पांडवभैरवकर्ण एवं अर्जुन युद्ध आदि कई विशेष प्रसंगों को मूर्तियों में दर्शाया गया है।
मंदिर एक ऊंची जगती पर निर्मित है। मंदिर के मंडप में प्रवेश करने के लिए सात सोपानों की व्यवस्था है। मंडप खुले रूप में है। गर्भगृह के बाहर दोनों तरफ दो आले हैं जिसमें अलग-अलग रूप में गणेश जी विराजमान हैं। स्तंभों में भी विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मंदिर के द्वार के ऊपर गणेश जी की मूर्ति स्थापित है और उसके ऊपर सरस्वती जी की। ऊपर की ओर सात विभिन्न देवी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए 5 सोपान नीचे उतरकर पहुँचा जा सकता है। जहाँ बीच में शिवलिंग प्रतिष्ठित है।
गर्भगृह के द्वार के दायीं तथा बायीं तरफ भी शिव की मूर्तियाँ उत्कीर्ण है। शिव की मूर्ति चतुर्भुजी है। एक हाथ में डमरूएक हाथ में त्रिशूलएक हाथ वरद मुद्रा में तथा एक हाथ में आयुध लिये खड़े हैं। सिर पर जटाजूट है।
कानों में कुंडलगले में हार है। पास में नंदी और नाग का अंकन है। मंदिर की बाह्य दीवारों पर एक के ऊपर एक पाँच पंक्तियों में अनेक तरह के दृश्य उत्कीर्ण है। दीवार के सबसे नीचे भाग में हाथियों का अंकन है। इनमें कहीं-कहीं दो हाथी एक दूसरे की तरफ सूँड किए हैं तो किसी दृश्य में एक के पीछे एक हाथी है तो कहीं हाथी एक दूसरे की तरफ पीठ किए हुए हैं।
मंदिर के प्रवेश द्वार पर नंदी की एक मूर्ति है। मंदिर के गर्भगृह में भूरे रंग का शिवलिंग है। मंदिर के भीतर भगवान शिवभगवान गणेश की मूर्तियों के साथ अन्य देवताओं की मूर्तियाँबाहर की दीवारों में योद्धाओं की मूर्तियाँपुरुषों और महिलाओं के नृत्य करती मूर्तियाँजानवरों की मूर्तियाँ भी शामिल हैं। एक स्थान पर रीछ का आखेट करते हुए दिखाया गया है। दीवारों में कई दृश्यों में रीछ का रूप उत्कीर्ण किया गया है जिन्हें मारने के लिए शिकारी हाथों में बरछा लिये हुए हैं। दीवारों पर अनेक मिथुन मूर्तियाँ भी दर्शायी गई हैं। घुड़सवारों के कई दृश्य हैं। एक दृश्य में दो बैलों को लड़ते हुए दिखाया गया है। एक स्थान पर शिव को त्रिशूल और डमरू लिए हुए दिखाया गया है तो गणेश नृत्य मुद्रा में हैं। एक चित्र में रथ पर सवार हाथ में धनुष-बाण लिए योद्धा का है। शिव अनेक स्थलों पर डमरूत्रिशूलकमंडल लिए अंकित है। एक दृश्य में मूर्ति में शरीर मानव का और मुख पशु का है। मंदिर के प्रवेश द्वार के सोपान के दोनों तरफ एक ही तरह के दृश्य दिखाई देते हैं। दोनों तरफ द्वारपाल का अंकन है। एक दृश्य में सोपान के दोनों तरफ पालकी कंधे पर उठाए दो व्यक्ति हैं। एक दृश्य में पालकी में बैठा व्यक्ति स्पष्ट दिखाई दे रहा हैपरंतु दूसरे दृश्य में पालकी में बैठे व्यक्ति का अस्पष्ट अंकन है। पीछे कोई खड़ा है। हर तरफ की दीवार में दो-दो आले हैंजो रिक्त हैं। तीन व्यक्तियों की दृश्यावली रोचक है मध्य में स्त्री खड़ी हैउसके दूसरी तरफ नृत्य करते हुए और एक तरफ डमरू बजाते हुए नृत्य-गान का दृश्य है। उसके पास वाले दृश्य में पाँच व्यक्ति विविध प्रकार के आयुधों को लिये हुए दिखाए गए हैं। इनमें एक का मुख अस्पष्ट है एक का सिर नहीं है। एक मूर्ति पशु पर सवार अष्टभुजी है। ज्यादातर दृश्य नृत्य-गान तथा आखेट के हैं। मंदिर के भीतर चार स्तंभों पर उत्कीर्ण मूर्तियाँ तथा प्रवेश द्वार के चौखट पर शिल्प का श्रेष्ठ काम किया गया है।
मंदिर परिसर में एक बावड़ीनुमा कुंड है। कहते
इस कुंड का पानी कभी नहीं सूखता। कुंड में नीचे जाने के लिए सीढ़ियाँ भी बनी हुई हैं। देवबलोदा के इस मंदिर प्रांगण में प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि में एक बड़ा मेला भरता है।मंदिर के बारे में कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं- कि मंदिर को बनाने वाला शिल्पी इसे अधूरा छोड़कर ही चला गया थाइसलिए इसका गुंबद ही नहीं बन पाया। तथा कुंड के भीतर ऐसा गुप्त रास्ता हैजो आरंग में निकलता है। मंदिर के निर्माण से जुड़ी एक कहानी यह भी है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया जा रहा थाउस दौरान छह महीने तक लगातार रात ही थीलेकिन खगोल के इतिहास में ऐसी घटना का कहीं भी उल्लेख नहीं है।
संस्कृतिविद्‌ एवं शिक्षक रामकुमार वर्मा बताते हैं कि शायद मंदिर के निर्माण में लंबा समय लगा होगा और लोगों ने इस लंबे समय की बात को छमासी रात में बदल दिया।
मंदिर के बारे में एक दूसरी किंवदंती भी है कि जब शिल्पकार मंदिर को बना रहा थातब वह इतना लीन हो चुका था कि उसे अपने कपड़े तक की होश नहीं थी। दिन रात काम करते-करते वह नग्न अवस्था में पहुँच चुका था। उस कलाकार के लिए एक दिन पत्नी की जगह बहन भोजन लेकर आई। जब शिल्पी ने अपनी बहन को सामने देखातो दोनों ही शर्मिंदा हो गए। शिल्पी ने खुद को छुपाने  के लिए मंदिर के ऊपर से ही कुंड में छलांग लगा दी। बहन ने देखा कि भाई कुंड में कूद गया तो इस गम में वह बगल के तालाब में कूद गई। आज भी कुंड और तालाब दोनों मौजूद है और तालाब का नाम भी करसा तालाब पड़ गयाक्‍योंकि जब वह अपने भाई के लिए भोजन लेकर आई थीतो भोजन के साथ सिर पर पानी का कलश भी था। तालाब के बीचोबीच कलशनुमा पत्थर आज भी मौजूद है। कुंड के बारे में लोगों का कहना है कि इस कुंड के अंदर एक गुप्त सुरंग हैजो सीधे आरंग के मंदिर के पास निकलती है। वह शिल्पी जब इस कुंड में कूदातब उसे वह सुरंग मिली और उसके सहारे वह सीधे आरंग पहुँच गया। बताया जाता है कि आरंग में पहुँचकर वह पत्थर का हो गया और आज भी वह पत्थर की प्रतिमा वहाँ मौजूद है। इस कुंड में 23 सीढ़ियाँ है और उसके बाद दो कुएँ है। इसमें से एक पाताल तोड़ कुआँ है जिससे लगातार पानी निकलता है। ( उदंती फीचर्स)

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