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Nov 6, 2023

पर्व - संस्कृतिः दीपक संस्कृति की विविधता में एकता - प्रमोद भार्गव


  - प्रमोद भार्गव

ऊं सच्चिदानन्दरूपाय नमोस्तु परमात्मने।

ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमांगल्यमूर्तये।।


  मनुष्य ने प्रकाशमान स्वरूप वाले विश्व कल्याण मूर्तिमान के रूप में सच्चिदानन्द अर्थात सत्, चित्त और आनंदमयी परमात्मा की कल्पना की है। इस परिप्रेक्ष्य में ऋग्वेद की ॠचाओं में विश्वव्यापी ब्रह्मांड को एक महामानव अर्थात विराट पुरुष माना गया है। इस विराट पुरुष का नृत्य सूर्य है, मन चंद्रमा और उसके कान एवं प्राण वायु है। इसका मुख अग्नि, नाभि अंतरिक्ष, मस्तक द्युलोक और इसके पैर पृथ्वी हैं। इसी आलोकित ब्रह्मांडीय पुरुष से मानव समुदायों का निर्माण माना गया है। अब आधुनिक वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि ब्रह्मांड के स्वरूप में जो भी कुछ है, उसी का लघु रूप मनुष्य के शरीर और मस्तक में है। इसीलिए मनुष्य ने अनवरत प्रकाशित रहने वाली ऐसी मूर्ति की कल्पना की है, जो मानव कल्याण के लिए प्रकाशमान बनी रहे। हजारों साल से भारत में प्रकाश पर्व के रूप में दीपावली मनाई जा रही है। इस लंबे काल खंड में भारत पर अनेक आक्रमण हुए। तलवार के बूते धर्म और संस्कृति बदलने के उपक्रम किए गए, लेकिन दीपावली के पर्व को रोशन करने वाली दीप संस्कृति इन बदलावों से अछूती रहती हुई आज भी भारत के सांस्कृतिक वैभव को प्रकाशित कर रही है। जिन सांस्कृतिक धरोहरों को आक्रांताओं ने खंडित करके उनके वैभव को हर लिया था, उन धरोहरों अयोध्या के राम मंदिर, वाराणसी के काशी विश्वनाथ और उज्जैन के महाकाल का सांस्कृतिक वैभव लाखों दीपकों के प्रकाश से फिर उज्ज्वल हो उठा है। कालांतर में इस प्रकाश के विस्तार की किरण कृष्ण जन्मभूमि को भी आलोकित करने वाली है। अतएव इस दीप पर्व पर दीपकों की विपरीत समय में भी अक्षुण्ण बनी रही संस्कृति और उसके महत्त्व को जानते हैं।  

दीपावली प्रकाश पर्व है। यानी अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है। आदिकाल से चली आ रही सांस्कृतिक यात्रा का यह त्यौहार सामाजिक जीवन में प्रसन्नता, समरसता और मंगल का प्रतीक है। इस कालखण्ड में मानव ने मिट्टी, पत्थर, काठ, मोम और धातुओं के स्वरूप में हजारों तरह के शिल्प में दीपक गढ़े हैं। शुरूआत में दीवाली की मुख्य भावना दीपदान से जुड़ी थी। प्रकाश के इस दान को पुण्य का सबसे बड़ा कर्म माना जाता था। दीपों के कलात्मक आकार में मनुष्य की कल्पना व संवेदनशील उँगलियों का इतिहास भी अंकित है। इस जगत में जीवन जीने के लिए प्रत्येक प्राणी को उजाले की जरूरत पड़ती है। बिना उजाले के वह कोई कार्य सुरुचिपूर्ण ढंग से संपन्न नहीं कर पाता है। वैसे तो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण व उपयोगी प्रकाश सूर्य का है। इसके प्रकाश में ही अन्य सभी प्रकार के प्रकाश समाविष्ट रहते हैं। इसीलिए दीवाली को प्रकाश का पर्व कहा जाता है। कहा भी गया है,

शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं सुख संपदम्।

शत्रु बुद्धि विनाशं च दीपज्योतिः नमोस्तुते।।

    शुरुआती दौर में सीपियों का दीपक के रूप में उपयोग किया जाता था। इसमें रोशनी पैदा करने के लिए चर्बी डाली जाती थी और बाती के रूप में घास या कपास की ही बत्ती होती थी। इसके बाद पत्थर और काठ के दीपक अस्तित्व में आए। तत्पश्चात् मिट्टी के दिए बनाए जाने लगे। कुम्हार के चाक की खोज के बाद तो मिट्टी के दीए अनूठे व आकर्षक शिल्पों में अवतरित होने लगे और ये घर-घर आलोक-स्तंभ के रूप में स्थापित हो गए। धातुओं की खोज और उन्हें मनुष्य के लिए उपयोगी बनाए जाने के बाद बड़े लोगों के घरों व महलों की शोभा धातु के दिए बनने लगे। जो वैभव का प्रतीक भी थे। स्वर्ण, कांसा, ।ताँबा, पीतल और लोहे के दीयों का प्रचलन शुरू हुआ। इसमें पीतल के दीपकों को बेहद लोकप्रियता मिली। रामायण और महाभारत में भी ‘रत्नदीपों’ का उल्लेख देखने को मिलता है।

 कालांतर में एकमुखी से बहुमुखी दीपक बनाए जाने लगे। इनकी मूठ भी कलात्मक और पकड़ने में सुविधा जनक बनाई जाने लगी। सत्रहवीं-अठारहवीं सदी में दीपकों को अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों व अप्सराओं के रूप में ढाला जाने लगा। इस समय ‘मयूरा धूप दीपक’ का चलन खूब था। इसकी आकृति नाचते हुए मोर की तरह होती है। इसके पंजों के ऊपर बत्ती रखने के लिए पाँच कटोरे बने होते हैं। मोर के ऊपर बन छेदों में अगरबत्तियाँ लगाई जाती हैं।

  राजे-रजवाड़े के कालखंड में छत से लटके दीपों का प्रचलन खूब था। ये परी, पशु, पक्षी और देवी-देवताओं की आकृतियों से सजे रहते थे। साँकल से लटके हंस और कबूतरों के पंजों पर तीन से पाँच दीपक बनाए जाते थे। कालांतर में दीपकों में नायाब परिवर्तन आए। इस समय गोल लटकने वाले कलात्मक दीपक ज्यादा संख्या में बने इसके अलावा आठ कोनों वाले, गुम्बदाकार व ऐसे ही अन्य प्रकार के दीपक बनाए जाने लगे। इन दीपकों में से रोशनी बाहर झाँकती थी।

   जब दीपक सैंकड़ो आकार-प्रकारों में सामने आ गए तो इनकी सुचारु रूप से उपयोगिता के लिए ‘दीप- शास्त्र’ भी लिख दिया गया। जिसमें दीपक जलाने के लिए गाय के घी को सबसे ज्यादा उपयोगी बताया गया। घी के विकल्प के रूप में सरसों के तेल का विकल्प दिया गया। कपास से कई प्रकार की बत्तियाँ बनाने के तरीके भी दीप- शास्त्र में सुझाए गए हैं। दीपावली पर देश में घी और सरसों के तेल से ही दीपक प्रज्वलित किए जाते हैं।

    सोलहवीं सदी में तो संगीत के एक राग के रूप में ‘दीपक राग’ की भी महत्ता व उपलब्धि है। इस संदर्भ में जनश्रुति है कि संगीत सम्राट तानसेन द्वारा दीपक राग के गाए जाने पर मुगल सम्राट अकबर के दरबार में बिना जलाए दीप जल उठे थे। दीपक- राग के गाने के बाद ही तानसेन को ‘संगीत सम्राट’ की उपाधि से विभूषित किया गया। उज्जैन के हरसिद्धि मंदिर परिसर में दीपों के स्तंभ बने हुए हैं, जिन पर सैकड़ों दीप एक साथ रखकर जलाए जाते हैं।

प्राचीन भारतीय परंपरा में दीपक के दान से बड़ा महत्व जुड़ा है। महाभारत के ‘दान-धर्म-पर्व’ में दीप- दान के फल की महत्ता दैत्य ऋषि शुक्राचार्य ने दैत्यराज बलि को इस प्रकार समझाई है-

कुलोद्योतो विशुद्धात्मा प्रकाशत्वं च गच्छति।

ज्योतिषां चैव सालोक्यं दीपदाता नरः सदा।।

    अर्थात्, दीपकों का दान करने वाला व्यक्ति अपने वंश को तेजस्वी व समृद्धशाली बनाने वाला होता है और अंत में वह आलोकमयी लोकों को गमन करता है।

 रामायणकाल से पूर्व दीपावली का संबंध बलि कथा के संदर्भ में ही मान्य तथा प्रचलन में था। कार्तिक शुक्ल

प्रतिपदा को ‘बलि प्रतिपदा’ भी कहते हैं। इस दिन बलि महाराज की अर्चना भी की जाती है। राजा बलि अपने राज्य में चतुर्दशी से तीन दिन चलते हैं और तीनों दिन दीपदान भी करते हैं। बलि के इस दीपदान से ही इस उत्सव को दीपावली कहा गया है। हरिद्वार में हर की पौड़ी पर गंगा में अपने वंश की समृद्धि के लिए ही प्रतिदिन गंगा की संध्या आरती के समय बड़ी संख्या में दीप- दान किए जाते हैं। ऐसा ही वाराणसी के गंगा घाट पर होता है।

    प्राचीन भारत में मनुष्य के सभ्य व संस्कारजन्य होने के अनुक्रम में दीपक का महत्त्व हर एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य से जुड़ता चला गया। प्रयोजन के अनुसार ही इनका नामांकन हुआ। दीपावली पर जो दीप आकाश में सबसे ज्यादा ऊँचाई पर टाँगा जाने लगा उसे ‘आशा-दीप’, स्वयंवर के समय जलाए जाने वाले दीप को ‘साक्षी-दीप’ पूजा वाले दीप को ‘अर्चना-दीप’ साधना के समय रोशन किए जाने वाले दीप को ‘आरती-दीप’ मंदिरों के गर्भगृह में अनवरत जलने वाले दीप को ‘नंदा-दीप’ की संज्ञा दी गई। मंदिरों के प्रवेश द्वार और नगरों के प्रमुख मार्गों पर बनाए जाने वाले दीपकों को ‘दीप-स्तंभ’ का स्वरूप दिया गया, जिन पर सैकड़ों दीपक एक साथ प्रकाशमान करने की व्यवस्था की गई।

  बहरहाल वर्तमान में भले ही दीपकों का स्थान मोमबत्ती और विद्युत बल्वों ने ले लिया हो, लेकिन प्रकृति से आत्मा का तादात्म्य स्थापित करने वाली भावना के प्रतीक के रूप में जो दीपक जलाए जाते हैं, वे आज भी मिट्टी, पीतल अथवा तांबे के हैं। घी से जज्वलमान यही दीपक हमारे अंतर्मन की कलुषता को धोता है।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100


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