दो ग़ज़लें
दस व्यंग्य संग्रह और
पांच उपन्यासों के लेखक गिरीश पंकज वैसे तो मूलत: व्यंग्यकार के रूप में ही पहचाने
जाते हैं लेकिन बहुत कम लोग इस तथ्य से परिचित हैं कि वे ग़ज़लें भी कहते हैं। गत
वर्ष उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह यादों में रहता है कोई प्रकाशित हुआ है-
ढाई आखर
1
प्यार की भाषा रहे
मनुहार की भाषा,
सच कहें तो है यही
संसार की भाषा।
नफ़रतों के वार से
दुनिया नहीं बचनी,
चाहिए हमको सदा इक
प्यार की भाषा।
जीतने का हौसला लेकर
चले हैं हम,
व्यर्थ क्यों बोलें
हमेशा हार की भाषा।
प्यार से जिनसे मिलो
निकले सयाने वे,
हमसे ही कहने लगे
व्यापार की भाषा।
प्यार में इनकार तो
पहला कदम-सा है,
बाद में हो जाए वो
इकरार की भाषा।
जोड़ दे गर दो दिलों
को है सही अलफ़ाज़,
तोड़ दे रिश्ते तो है
बेकार की भाषा।
तोड़कर के जो सभी
सीमाएँ बढ़ती हैं,
दरअसल है प्यार ही
व्यवहार की भाषा।
ग्रंथ कितने ही पढ़े
हैं ,डिगरियाँ पाईं,
ढाई आखर में छिपी थी
सार की भाषा।
हमको आखिर क्यों मिले
सम्मान सरकारी,
बोलता 'पंकज’ कहाँ सरकार की भाषा।
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प्यार ही
जीतेगा
2
हमको वह विश्वास
जिताया करता है,
अक्सर जो भीतर से आया
करता है।
पत्थर की मूरत तो
पत्थर है बिलकुल,
ईश्वर का अहसास बचाया
करता है।
मैंने दोनों से यारी
अब कर ली है,
दु:ख आता है, सुख भी आया करता है।
जख्म मिले हैं अपनों
से मिलते ही हैं,
वक्त हमारे घाव मिटाया
करता है।
अहसानों से दबा हुआ है
बेचारा,
उफ़ वो कितने बोझ उठाया
करता है।
उन पर ज्यादा यकीं
नहीं करना अच्छा,
हमको हर सपना भरमाया
करता है।
वह मेरा दुश्मन है
लेकिन प्यारा है,
मेरे ही गीतों का गाया
करता है।
इक दिन इस दुनिया में
प्यार ही जीतेगा,
रोज़ मुझे यह स्वप्न
लुभाया करता है।
'पंकज’ इक राजा है अपनी दुनिया का,
सद्भावों को रोज
लुटाया करता है।
संपर्क: 26, सेकेंड फ्लोर, एकात्म परिसर, रायपुर (छ.ग.) 492001, मोबाइल- 9425212720, E-mail: girishpankaj1@gmail.com
Labels: ग़ज़ल, गिरीश पंकज
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