- ज्योत्स्ना प्रदीप
शुद्धोऽसि रे तात न
तेऽस्ति नामकृतं हि ते कल्पनयाधुनैव।
पंचात्मकं देहमिदं न
तेऽस्तिनैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो:
हे
तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह
शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिए रो रहा है?
ये एक माँ के मुख से
निकली लोरियाँ है... श्लोक रूपी अनोखी सुन्दर लोरियाँ !!
एक ऐसी माँ जिसने अपने
बच्चों को अपनी मीठी- मीठी लोरियों के रूप में ही ब्रह्मज्ञान दे दिया हो,
जो अपनी संतानों के लिए शांत व आनंदित
संसार की गुरु बनी हो, जो माँ परम उपरति का दुर्गम मार्ग सुगमता से अपने शिशु को
पालने में ही दिखा दे... कितनी पवित्र और दिव्य रही होंगी ,वो माँ...
ऐसी पूजनीय माँ थी हमारे ही भारत में
जन्मी मदालसा।
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार मदालसा गंधर्वराज
विश्ववसु की पुत्री थी ये एक दिव्य कुल में जन्मीं थी। इनका ब्रह्मज्ञान जगत् विख्यात
है। आज भी वे एक आदर्श माँ मानी जाती हैं ;क्योंकि वैष्णव शास्त्रों में वर्णन आता हैं कि पुत्र जनना
उसी माँ का सफल हुआ, जिसने अपने पुत्र की मुक्ति के लिय उसे भक्ति और ज्ञान दिया
हो।
मदालसा राजा ऋतुध्वज की पत्नी थी। उनके तीन
पुत्र हुए थे पिता ने उनके नाम विक्रांत, सुबाहु और अरिमर्दन रखे। मदालसा इन नामों को सुनकर हँसती थी
और पति से कहती थी कि नाम के गुण व्यक्ति में आना आवश्यक नहीं। वो अपने बच्चों को
भौतिक सुख -दु:ख से निकालना चाहती थी। मदालसा ने
तीनों पुत्रों को बचपन से ही ज्ञान-वैराग्य-भक्ति का प्रवचन दिया। उनके सुन्दर प्रवचनों से परम आनन्द-अमिय की रसधार बहती थी,
ऐसी रसधार जिसकी हर बूँद में एक अनूठा
आनन्द निहित था। मदालसा का ब्रह्मज्ञान का उपदेश बहुत कल्याणकारी हैं।
उनके कुछ उपदेश यहाँ
दिए जा रहे हैं -
त्वं कञ्चुके
शीर्यमाणे निजेऽयस्मिं-
स्तस्मिश्च देहे
मूढ़तां मा व्रजेथा: ॥
शुभाशुभै:
कर्मभिर्दहमेत-
न्मदादि मूढै:
कंचुकस्ते पिनद्ध:॥
तू अपने उस चोले तथा
इस देहरूपी चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह
देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदि से बंधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है)।
तातेति किंचित्
तनयेति किंचित्
दम्पती
किंचिद्दवितेति किंचित्
ममेति किंचिन्न ममेति
किंचित्
त्वं भूतसंग बहु
मानयेथा:
कोई जीव पिता के रूप
में प्रसिद्ध है,
कोई पुत्र कहलाता है,
किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री
कहते है,
कोई “यह मेरा है’कहकर अपनाया जाता है और कोई “मेरा नहीं है’इस भाव से पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदाय के ही
नाना रूप है,
ऐसा तुझे मानना चाहिए।
दु:खानि दु:खापगमाय भोगान्
सुखाय जानाति
विमूढ़चेता:।
तान्येव दु:खानि पुन:
सुखानि
जानाति विद्वानविमूढ़चेता:॥
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हें दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति
कराने वाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है,
वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
इस निराली जननी की साधना तब सफल हुई जब तीनों
पुत्र राज्य के सुख- वैभव को छोड़कर कठोर साधना करने के लिए घर से निकल गए ।
मदालसा के चौथा
पुत्र हुआ। उसने इस पुत्र का नाम अलर्क रखा। ऋतुध्वज ने इसका अर्थ मदालसा से पूछा
तो मदालसा ने कहा,
नाम से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं। जब
अलर्क को भी महारानी ब्रह्मज्ञान सिखाने लगी तो राजा ने उन्हें ऐसा करने से रोका-
देवी इसे भी ज्ञान
का उपदेश देकर मेरी वंश परम्परा का उच्छेद करनें पर क्यों तुली हो?
उन्होंने पति की आज्ञा मानी और अलर्क
को बचपन से ही व्यवहार शास्त्र का पंडित बना दिया। धर्म,
अर्थ, काम, तीनों शास्त्र में ही वो निपुण हो गया ;
अत:
माता -पिता अलर्क को राज सौपकर वन में तप
करने चले गए ।
जाते -जाते भी मदालसा अपना कर्तव्य बड़ी बुद्धिमत्ता से निभा गई
बेटे को एक उपदेश पत्र अँगूठी के छिद्र में लिखकर दिया और कहा,
भारी विपत्ति के समय ही उसे पढ़े। एक
बार किसी राजा ने अलर्क पर चढ़ाई की। इसे विपत्ति मानकर उसनें माता का पत्र खोला
लिखा था -
सङ्ग:
सर्वात्मना त्याज्य:
स चेत्यक्तुमं न शक्यते ।
स सद्भि:स कर्तव्य:
सतां सङ्गो हि भेषजम्।।
काम:
सर्वात्मना हेयो हातुं चेच्छक्यते न स:।
मुमुक्षां प्रति
त्वकार्य सैव तस्यापि भेषजम् ।।
सङ्ग-आसक्ति-
का सब प्रकार से त्याग करना चाहिए
किन्तु यदि उसका त्याग न किया जा सके तो सत्पुरुषों का सङ्ग करना चाहिए क्योंकि
सत्पुरुषों का सङ्ग ही उसकी औषधि है। कामना को सर्वथा छोड़ देना चाहिए ,परन्तु यदि वह छोड़ी न जा सके तो
मुमुक्षा (मोक्ष की इच्छा) करनी चाहिए क्योंकि मुमुक्षा ही उस कामना को मिटानें की दवा
है।
बेटे ने माँ के इस
सन्देश पर चिंतन किया और मन से सम्मान करते हुए महात्मा दत्तात्रेय की शरण में चले
गए । महात्मा दत्तात्रेय के पवित्र आत्मज्ञान के उपदेश पाकर अलर्क ने जीवन को धन्य
किया। ये सब एक महान मातृत्व की विशुद्ध ज्ञान की अलकनंदा में अभिषेक करने का ही
प्रतिफल था।
आज हमारे देश में
मातृत्व का नाश हो रहा है। सभी भौतिक उन्नति में व्यस्त है!
वैदिक परम्परा को भूल रहे है...
भूल रहे है कि हम भारतीयों का लक्ष्य
विलास-
वासना को त्याग कर इंद्रिय संयम को
प्राप्त करना था और ऐसे भाव तो एक माँ ही बचपन से अपनें पुत्र को दे सकती,
अगर ऐसा हो तो किसी कन्या को दामिनी के
समान पाशविक अत्याचार सहना नहीं पड़ेगा ; क्योंकि महापाप करने वाला किसी का बेटा होता है। बेटे को
सन्मार्ग पर ले जानें के लिए मदालसा के पालन पोषण के तरीके का अनुसरण करना होगा।
जो माँ अपनें पुत्र को नारी के सम्मान की शिक्षा बचपन से देती हो वह कितनी महान
होगी!
उन्होंने पुत्र को सिखाया -
हितं परस्मै हृदि
चिन्तयेथा मन: परस्त्रीषु निवर्तयेथा:॥
अर्थात अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान
रखना और पराई स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना।
मदालसा जैसी माँ का अनुसरण एक राष्ट्र का उत्थान
करना है। ये धरा भी कृतार्थ हो जाती है ऐसी जननी पाकर!
सम्पर्क: मकान 32,
गली नं.-
9,
न्यू गुरुनानक नगर,
गुलाब देवी हॉस्पिटल रोड,
जालंधर -पंजाब, पिन कोड -144013
2 comments:
ज्योत्स्ना जी इस महत्वपूर्ण जानकारी के लिए सादर आभार..अति सुंदर लेख
शुक्रिया सुनीता जी
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