नीरोगी
काया...
- डॉ. रत्ना वर्मा
कहते हैं- अच्छे शरीर में अच्छे मन का वास
होता है। आपके पास स्वस्थ शरीर है तो, आप सब कुछ कर सकते हैं। सवाल यही उठता है कि स्वस्थ शरीर पाएँ
कैसे?
आजकल लोग बहुत
ज्यादा हेल्थकॉन्सस हो गए है। कोई जिम जा रहा है, तो कोई योगा क्लास, कोई करेले का जूस पी रहा है, तो कोई लौकी का। कहने का तात्पर्य यही कि सबको अपनी सेहत की
चिंता है। दरअसल यह चिंता पिछले कुछ दशकों की ही देन है;
अन्यथा हमारे दादी- नानी के ज़माने की
बात करें तो सेहत को लेकर कहीं और भागने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। वातारवरण
स्वच्छ था। सुबह ताजी हवा मिल जाती थी। घर का शुद्ध खाना मिलता था। घी,
दूध, दही घर में ही बनता था। घर की बाड़ी से सब्जी आ जाती थी,
घर की चक्की का पिसा आटा और घर में ही
कूटा- पीसा चावल और गेहूँ, दाल सब मिल जाता था। भला ऐसा खान- पान और रहन-सहन हो तो
बीमारी तो कोसो दूर ही भागेगी।
यह सब शुद्धता इसलिए
थी ;क्योंकि तब जैविक खेती से अन्न की
पैदावर होती थी ,
तब हर किसान के घर में जानवर पाले जाते
थे। किसानों के घर में गोबर के खाद के लिए एक कुएँ जैसा बड़ा गढ्ठा होता था ,जिससे खेती के लिए गोबर का खाद आसानी
से उपलब्ध हो जाता था। तब धन- सम्पदा के नाम पर गाय, बैल, भैंस पाले जाते थे। दूध दही की तो कोई कमी होती ही नहीं थी।
जमकर मेहनत करते थे और शुद्ध, सात्विक भोजन करके काया को नीरोगी रखते थे।
पर
आज यह सब कहाँ उपलब्ध है ! आज हम जो अनाज
खा रहे है,
जो साग-सब्जी हम तक पहुँच रही है,
वह सब रासायनिक खाद से पैदा की जा रही
है,
जब मिट्टी ही सेहतमंद नहीं है,
तो उससे होने वाली उपज को कैसे सेहतमंद
कह सकते हैं। जब सेहत के अनुकूल भोजन नहीं मिलेगा तो बीमारियाँ तो शरीर को घेरेंगी
ही। तभी तो हम अपनी सेहत को लेकर चिंतित हो जाते हैं। अलसी खाओ,
सरसो के तेल से सब्जी बनाओ,
फल और सब्जी को आधे घंटे पानी में डूबो
कर रखो ताकि केमिकल धुल जाए.... ये खाओ वो न खाओ उफ... कितने सारे उपाय....
कुल मिलाकर सार यही
है कि यदि हमें स्वस्थ रहना है तो नई तकनीक के साथ पुरानी परम्पराओं को अपनाना
होगा। यानि जैविक खेती की ओर लौटना होगा। आज भले ही किसान अधिक उत्पादन की चाह में
रासायनिक खेती कर रहे हैं, पर वे भविष्य में होने वाले नुकसान से अनजान है। पहले कृषि
उत्पादकता को बढ़ाने के लिए पशुपालन पर जोर दिया जाता था। उनके मल-मूत्र से जमीन
की उपजाऊ शक्ति को कायम रखा जाता था। पारम्परिक खेती में अदल-बदल कर खेती की जाती
थी,
गोबर व अन्य जैविक खादों का उपयोग किया
जाता था। इन सबका प्रभाव हमारे पर्यावरण पर पड़ता था। इससे न वायु प्रदूषित होती
थी,
न मिट्टी खराब होती थी,
न धरती के अन्य जीव- जन्तु तथा
मनुष्यों पर भी इसका कोई दुष्प्रभाव पड़ता था।
आज मौसम बदल गया है।
अब तो रासायनिक खाद डालो और अधिक अन्न उपजाओ का नारा है,
सबकुछ आँकड़ों का खेल है। सरकारें खुश
होती हैं कि हमारे प्रदेश की पैदावर पढ़ गई है, हम प्रगति कर रहे हैं, पर वे यह नहीं जानते कि इस बढ़ते पैदावर के बदले वे क्या खो
रहे हैं।
दरअसल साठ के दशक
में हरित क्रांति की शुरुआत के साथ ही देश में रासायनिक उर्वरकों,
कीटनाशक दवाओं,
संकर बीजों आदि के इस्तेमाल में भी
क्रांति आई थी। केन्द्रीय रासायनिक और उर्वरक मंत्रालय के रिकॉर्ड के अनुसार सन्
1950-51 में भारतीय किसान मात्र सात लाख टन रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करते थे
,जो अब बढ़कर 240 लाख टन हो गया है।
इससे पैदावार में तो खूब इजाफा हुआ, लेकिन खेत, खेती और पर्यावरण चौपट होते चले गए।
रासायनिक खाद से की
गई खेती ज्यादा पानी माँगती है। जबकि आज भी हमारे देश में 75प्रतिशत खेती मानसून
पर ही निर्भर है। हमने तो अपनी धरती में रासायनिक खाद का छिड़काव करके उसके सारे
प्राकृतिक तत्त्वों को खत्म कर दिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि जल्दी ही
रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बंद नहीं किया गया ,तो हमारी कृषि योग्य सारी उपजाऊ भूमि बंजर हो जाएगी। यह सब
जानते हुए भी सरकार इन रासायनिक खादों पर हजारों करोड़ों रुपये की सब्सिडी देती
है। यही स्थिति बीजों को लेकर भी है। अब तो संकर बीजों का ज़माना है। इसके इस्तेमाल
से पैदावर जरूर बढ़ गई है पर इससे हमारी परंपरागत देसी नस्ल लुप्त होती जा रही
हैं। याद कीजिए कभी धान, गेहूँ की दर्जनों
प्रजातियाँ हुआ करती थीं, पर आज गिनी-चुनी किस्में ही बाजार में मिलती हैं।याद कीजिए-
पहले जब घर में जब चावल पकता था, तब उसकी महक से ही चावल की किस्म का पता चल जाता था। अब चावल
में वह खूशबू कहाँ? लुप्त होते चले जा रहे इन देसी बीजों पर आज न कोई शोध हो रहा
है न इन्हें बचाने की दिशा में कोई प्रयास।
प्रसिद्ध
पर्यावरणविद् गोपाल कृष्ण कहते हैं -‘कृषि पूरी तरह से पर्यावरण से जुड़ा उपक्रम है। पर्यावरण की
छोटी से छोटी बात भी कृषि को प्रभावित करती है। लेकिन अपने देश में पानी,
मिट्टी से लेकर बीज तक संक्रमित हो गए
हैं। दोषपूर्ण नीतियाँ कृषि के भविष्य को अन्धकारमय करती जा रही हैं। रासायनिक
उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से पहले मिट्टी खराब हुई फिर पैदावार घटी,
अब हम जो अन्न उपजा रहे हैं,
वह भी संक्रमित है।’
बात शुरू हुई थी -
नीरोगी काया से और समाप्त हो रही है संक्रमित हो चुके खाद्य पदार्थों पर,
जिसकी वजह से हमारी नीरोगी काया रोगी
बनती जा रही है। कम शब्दों में निष्कर्ष यही है कि समय रहते चेत जाना होगा,
अन्यथा न नीरोगी काया रहेगी,
न सुख।
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