- प्रेम गुप्ता 'मानी'
यह छोटा सा शब्द चाहे तो आदमी को सम्मानित कर ऊँचे आकाश पर बैठा दे और अगर बिगड़ जाए, तो क्षणांश में जमीन की धूल चटा दे। आदमी खुश होकर किसी को भी महाराज, महारानी, महायोगी, महापंडित, महाज्ञानी कह कर महान बना सकता है, पर अगर किसी कारणवश कुढ़ गया तो देर किस बात की...? महाअधरमी, महापापी, महाअघोरी आदि कहने की स्वतन्त्रता तो है ही...।
हिन्दी व्याकरण का क्षेत्र वैसे भी बहुत विशाल है। कुछ महाज्ञानियों ने ऐसे- ऐसे शब्दों की रचना की है कि अगर उसके बारे में बात करने बैठें तो एक महाकथा की रचना हो जाए...। खैर! यहाँ जिस शब्द की महती कथा की महक- लहक महसूस की है, वह है 'महा' शब्द...। इस शब्द की हमारी जिन्दगी में कितनी महत्ता है, यह हमें भी नहीं पता पर इतना अहसास है कि यह छोटा सा शब्द चाहे तो आदमी को सम्मानित कर ऊँचे आकाश पर बैठा दे और अगर बिगड़ जाए, तो क्षणांश में जमीन की धूल चटा दे। आदमी खुश होकर किसी को भी महाराज, महारानी, महायोगी, महापंडित, महाज्ञानी कह कर महान बना सकता है, पर अगर किसी कारणवश कुढ़ गया तो देर किस बात की...? महाअधरमी, महापापी, महाअघोरी आदि कहने की स्वतन्त्रता तो है ही...। यह शब्द जब तक ईजाद नहीं हुआ था, तब तक सब ठीक था, पर इसके जन्मते ही सब गुड़ गोबर हो गया और उस गोबर में आदमी मुँह तक डूब कर ऐसा जिनावर बन गया है कि महाज्ञानियों को अब महाप्रलय होने का अंदेशा लगने लगा है। वैसे मेरे विचार से यह 'महा' शब्द महानया नहीं है। यह सिकन्दर के जमाने में भी था और 'महा- भारत' के समय भी था...। खैर! इस शब्द के जन्म और इतिहास से मुझे क्या लेना- देना...। मैं तो सिर्फ अपने एक रिश्तेदार के कारण इस शब्द से रिश्ता जोड़ बैठा...।
दरअसल मेरे बहुत दूर के एक फुफेरे भाई हैं, जिनका तन तो गाँव में निवास करता है, पर मन हमेशा महानगर में भटकता है। वे कर्म से महाजन हैं और गरीबों के लिए महा- सूदखोर...। मैं भी उनसे दूर भागता हूँ, पर सत्यानाश हो इस 'महा' शब्द का, जिसके कारण मुझे इन महानुभाव को बर्दाश्त करना पड़ा। कानपुर को वैसे तो 'महानगर' का दर्जा प्राप्त किए एक अर्सा गुजर गया, पर मेरे रिश्तेदार के ज्ञान- चक्षु इस सम्बन्ध में जरा देर से ही खुले। उनकी जानकारी में जैसे ही यह बात आई कि इसे 'नगर' की जगह अब 'महानगर' का दर्जा मिल चुका है, वैसे ही इसकी महारौनक की कल्पना करते हुए वे महानुभाव किसी महामारी की तरह अचानक ही टपक पड़े मेरे घर और बोले- अरे भई, हमें तो पता ही नहीं था कि यह नगर अब 'महानगर' हो गया है...। अरे, इत्ता बड़ा सहर है.. इत्ते बड़े- बड़े लोग हैं यहाँ...इत्ते बड़े मन्दिर...होटल...और वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में...हाँ...माल...
माल नहीं, मॉल... मैंने उन्हें तुरन्त सुधारा। हाँ- हाँ, वही...जब इतनी सारी महान चीजे होंगी, तो यह महानगर न होगा तो क्या हमारा गाँव 'दुन्दौवा' महा-दुन्दौवा होगा...? भई, हमें तो जैसे ही पता चला, हम अपने को रोक नहीं पाए...। अगर किसी और महानगर की सैर का मन बनाते तो उसके खर्चे- पानी में ही हमारी 'महायात्रा' हो जाती, पर यह कानपुर महानगर...? अरे यहाँ तो तुम रहते हो, फिर खर्चे- पानी की काहे को चिन्ता...? दस- पन्द्रह दिन घूमेंगे, फिर चले जाएँगे... कह कर महायोगी की मुद्रा में आँख बन्द कर, पालथी मार कर बोले- हाँ तो भैय्येऽऽऽ, यहाँ क्या- क्या देखने लायक खास है...? मैंने महाचिन्ता में डूबते हुए कहा- इस महानगर में देखने लायक खास चीजें तो बस चार ही हैं...सुअर, भैंस, टैम्पो और टूटी सड़कें विद खुले मेनहोल...। वे हँसे, बड़ी मसखरी करता है...फिर दूसरे ही क्षण महाक्रोधित हो गए, इस महानगर में विराज क्या गया, सब को महामूर्ख ही समझता है? हम तो घूमेंगे इस सहर में...। अरे, तेरे रहते हम वंचित रह गए तो तुझे महापाप लगेगा...तू तो महाब्राह्मण है, इसी से और महापाप...तू महाकुम्भीपाक में वास करेगा...। अरेऽऽऽ, रिश्ते की इतनी सी लाज नहीं रख पाया...। उनके 'महा' के प्रति घोर प्रेम ने मुझे ब्राह्मण से 'महाब्राह्मण' बना दिया। मैं मरता क्या न करता...। वे और क्रोधित न हों अत: तुरन्त दूसरे दिन उन्हें महानगर की सैर कराने का वायदा कर लिया। सुबह सैर को निकले भाई साहब महाप्रसन्न थे, पर शाम गहराते ही जब घर लौटे, तो महायोगी की मुद्रा में...। थकान के कारण उनका पूरा बदन इस कदर चूर था कि महाकष्ट के कारण उनके मुँह से बोल ही नहीं फूट पा रहे थे। उनके इस कष्ट में मैं 'महासुख' का अनुभव कर रहा था। बच्चू ने जब तक महानगर के दर्शन नहीं किया था, तभी तक चहक रहे थे, पर दर्शन मिलते ही सारे हौसले पस्त...। मुझे लग रहा था कि अब वह यहाँ ठहरने वाले नहीं...।
पत्नी ने उन्हें इस हाल में देखा तो दु:खी होकर बोली- अरे, क्या हुआ इन्हें...? अरे भई, कुछ नहीं हुआ...। बस, इस महानगर की खूब सैर की है और इस दौरान दो बार खुले मेनहोल में गिरे, एक जगह सुअर के साथ दौड़ लगाई...और दो जगह भैंसों ने इन्हें धमकाया...। इसके बाद तो ये उछलते- कूदते...दम घुटाते बस चले ही आ रहे हैं...। अरे, तो आप इन्हें इस महानगर की सड़कों पर चलने- फिरने का ढंग समझा देते...। भाई साहब का कष्ट देख कर पत्नी बहुत कष्ट में थी। मैंने उसे आश्वस्त किया- अच्छा भई, अगर कल ये चले तो ठीक से समझा दूँगा...। सुबह वे महाशय सोकर उठे तो उनका पूरा बदन लाल चकत्तों से भरा था। उन्हें देख कर पत्नी फिर से महाकष्ट में आ गई- रात को आपने इनके शरीर पर ओडोमॉस नहीं मला...? मैंने ध्यान नहीं दिया तो भाई साहब फिर क्रोधित हो गए- कैसा है तुम्हारा यह महानगर भैय्येऽऽऽ, किस महामूर्ख ने इसे महानगर का दर्जा दिया है..? मैं गाँव वापस लौट कर इसकी अव्यवस्था के खिलाफ वहीं से एक महाआन्दोलन छेड़ूँगा...। अरे, सड़क पर पैदल चलो तो पहाड़ पर चढऩे का अहसास होता है...। भूल से कचरे पर चढ़ जाओ तो उसके नीचे छिपे गढ्ढे में औंधे मुँह गिरो...। अगर गाड़ी में भी चलो तो ऊँट की पीठ पर चढ़ कर लचकते- मचकते चलने का अहसास होता है...। कोई भी चीज इस महानगर में अपने स्थान पर नहीं है...। जहाँ वाहनों को चलना चाहिए वहाँ भैंसे चलती हैं और जहाँ भैंसों का ठौर है, वहाँ इंसान पसरे पड़े हैं...। और तो और, यहाँ तो आदमी और सुअर के बाड़े का भेद भी नहीं दिखता...। हम तो भई बाज आए...। इस सहर में तो यह समझ ही नहीं आता कि कौन आदमी है और कौन औरत...। जिसे मरद समझो, वह औरत निकलती है और कन्धे तक के बाल देख कर जिसे औरत समझो, वह मरद निकलता है...धत्त तेरे की...। उनके टूटे-फूटे कलपुर्जे देख कर अन्दर से मैं महाप्रसन्न था पर ऊपर से रिश्ते का लिहाज कर बोला- अरे नहीं भाई साहब, यहाँ देखने लायक अच्छी जगहें भी हैं...आप एक दिन आराम कर लीजिए, फिर वहाँ भी घुमा दूँगा...। उन पर तत्काल प्रतिक्रिया हुई और वे महाप्रसन्न हो उठे। 'महा' शब्द के प्रति प्रेम की उनके भीतर जो 'महा-लत' थी, उसने उनकी समस्त पीड़ा को हर लिया। वे चहक कर बोले- भाई हो तो तुम्हारे जैसा...कभी गाँव आओगे तो तुम्हारे सम्मान में महाभोज दूँगा...। दूसरे दिन अलस्सुबह ही वे तैयार होकर बैठ गए। मेरे पास एक धेला भी नहीं था सो मैंने उन्हीं से कर्ज लिया और फिर उसी धन के साथ उन्हें सैर कराने निकल पड़ा। घर से निकलते वक्त वे पूरी तरह सतर्क थे, भैय्येऽऽऽ, इस बार जरा ठीक- ठाक घुमा देना...। पत्नी ने भी सख्त हिदायत दी- इस बार जरा संभल कर घुमा दो ताकि ये यहाँ से जल्दी से चले जाएँ। कल की तरह अगर जरा-सी भी गलती हुई तो समझो तुम्हारा महाभोज कराने का इनका सपना तो धरा रह जाएगा...उल्टे हमें ही यहाँ इनका महाभोज देना होगा...। इस मुई मँहगाई के जमाने में कोई करज- वरज भी नहीं देगा...।
मेरी पत्नी काफी बुद्धिमान थी इसीलिए घर के हर कोने में उसकी महानता की छाप थी। उसमें मैं भी शामिल था। अत: इस बार पत्नी के निर्देशानुसार मैं उन्हें कुछ चुनिन्दा जगहों पर ले गया...और ऐसे रास्तों से ले गया जो सचमुच का रास्ता था। एक ऐसा रास्ता जिस पर से मौके- बेमौके नेता लोग गुजरा करते थे...। उनके गुजरने का ही असर था कि वह रास्ता बन गया था और अवसर पडऩे पर कइयों को गुजार सकता था। खैर! यह रास्ता- प्रकरण तो बाद की बात है। इससे पहले की खास बात है, इस महानगर की सुरक्षित सैर...।
इस बार मैंने उन्हें खूब सैर कराई। इससे वे अति- प्रभावित हुए और इत्ते हुए कि अपने मन में उन्होंने इस महानगर की एक अनोखी छवि बसा ली। पर इस महासुख के एवज में उन्होंने थोड़ा- बहुत गँवाया भी...। मसलन अपने आगे के दो दाँत...जेब में पड़े कुछ हजार के नोट...अपनी कीमती घड़ी...गले की चेन, वगैरह- वगैरह...।
वे अपने आप को काफी खो चुके थे, अब मैं उन्हें पूरी तौर से खोना नहीं चाहता था, सो उनकी इस महायात्रा के अन्तिम चरण में मैं उन्हें एक होटल में ले गया। अन्दर घुसते ही एक बार फिर वे महाप्रसन्न हो गए- भई, यह होटल तो किसी फिल्मी होटल जैसा महासुन्दर है...। वैसी ही सज्जा, वैसे ही सुन्दर खाते- पीते लोग...वाह भाई वाह...!
नीचे के साथ- साथ ऊपर बैठने की भी पूरी व्यवस्था थी। भीड़ से बचने के लिए मैं उन्हें ऊपर ले गया, पर यह क्या...? पल भर में ही वे नीचे आ गए...। मैं एकदम हतप्रभ...खुद नीचे आ जाते, उन्हें किसने रोका था, पर साथ में सीढ़ी की रेलिंग लेकर क्यों गए...? खैर! किसी तरह उनसे रेलिंग लेकर उन्हें जमीन से उठाया और फिर नीचे सही स्थान पर बैठा दिया। मैनेजर ने पहले तो आँखें तरेर कर, हमें घूर कर देखा, फिर अपना क्रोध दबा कर मुस्कराया भी...प्रत्युत्तर में मुस्करा कर हमने खाने का ऑर्डर दिया...। खाना आते ही वे युद्धस्तर पर उस पर टूट पड़े और इस कदर टूटे कि उन्हें अस्पताल पहुँचाना पड़ा। गलत न समझें, उन्हें किसी ने मारा-वारा नहीं, बल्कि मेरे लाख मना करने के बावजूद उन्होंने काँटे- चम्मच का भरपूर प्रयोग किया और इस प्रक्रिया में उन्होंने खुद ही अपने होंठ और जीभ लहुलुहान कर लिए। इस हादसे से अबकी उनकी आत्मा भी लहुलुहान हो गई। गाँव वापस जाने लगे तो एक महायोगी की मुद्रा में थे- किसी भी चीज या स्थान का मोह नहीं करना चाहिए... मोह ही महानाश का कारण है...। अब कुछ दिन विश्राम करने के पश्चात इस जीवन में गाँव वापस लौट आने की खुशी में एक महायज्ञ करूँगा...। शेष जीवन अब एक महात्मा की तरह गुजारूँगा...। तृष्णा में पड़ कर मैंने न जाने कितने महापाप किए, जिसके कारण महाकष्ट उठाए...।
शब्दों के इस महाभेदी बाण का संधान करके वे तो गाँव पधार गए, पर बाद में कर्ज अदायगी के कारण मुझे अपने व अपने परिवार के सुखों का जो महानाश करना पड़ा, उससे मुझे लगा कि अगर वे थोड़े दिन और ठहरते तो उनका महाघाती होने से मैं अपने आप को रोक नहीं पाता...।
दरअसल मेरे बहुत दूर के एक फुफेरे भाई हैं, जिनका तन तो गाँव में निवास करता है, पर मन हमेशा महानगर में भटकता है। वे कर्म से महाजन हैं और गरीबों के लिए महा- सूदखोर...। मैं भी उनसे दूर भागता हूँ, पर सत्यानाश हो इस 'महा' शब्द का, जिसके कारण मुझे इन महानुभाव को बर्दाश्त करना पड़ा। कानपुर को वैसे तो 'महानगर' का दर्जा प्राप्त किए एक अर्सा गुजर गया, पर मेरे रिश्तेदार के ज्ञान- चक्षु इस सम्बन्ध में जरा देर से ही खुले। उनकी जानकारी में जैसे ही यह बात आई कि इसे 'नगर' की जगह अब 'महानगर' का दर्जा मिल चुका है, वैसे ही इसकी महारौनक की कल्पना करते हुए वे महानुभाव किसी महामारी की तरह अचानक ही टपक पड़े मेरे घर और बोले- अरे भई, हमें तो पता ही नहीं था कि यह नगर अब 'महानगर' हो गया है...। अरे, इत्ता बड़ा सहर है.. इत्ते बड़े- बड़े लोग हैं यहाँ...इत्ते बड़े मन्दिर...होटल...और वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में...हाँ...माल...
माल नहीं, मॉल... मैंने उन्हें तुरन्त सुधारा। हाँ- हाँ, वही...जब इतनी सारी महान चीजे होंगी, तो यह महानगर न होगा तो क्या हमारा गाँव 'दुन्दौवा' महा-दुन्दौवा होगा...? भई, हमें तो जैसे ही पता चला, हम अपने को रोक नहीं पाए...। अगर किसी और महानगर की सैर का मन बनाते तो उसके खर्चे- पानी में ही हमारी 'महायात्रा' हो जाती, पर यह कानपुर महानगर...? अरे यहाँ तो तुम रहते हो, फिर खर्चे- पानी की काहे को चिन्ता...? दस- पन्द्रह दिन घूमेंगे, फिर चले जाएँगे... कह कर महायोगी की मुद्रा में आँख बन्द कर, पालथी मार कर बोले- हाँ तो भैय्येऽऽऽ, यहाँ क्या- क्या देखने लायक खास है...? मैंने महाचिन्ता में डूबते हुए कहा- इस महानगर में देखने लायक खास चीजें तो बस चार ही हैं...सुअर, भैंस, टैम्पो और टूटी सड़कें विद खुले मेनहोल...। वे हँसे, बड़ी मसखरी करता है...फिर दूसरे ही क्षण महाक्रोधित हो गए, इस महानगर में विराज क्या गया, सब को महामूर्ख ही समझता है? हम तो घूमेंगे इस सहर में...। अरे, तेरे रहते हम वंचित रह गए तो तुझे महापाप लगेगा...तू तो महाब्राह्मण है, इसी से और महापाप...तू महाकुम्भीपाक में वास करेगा...। अरेऽऽऽ, रिश्ते की इतनी सी लाज नहीं रख पाया...। उनके 'महा' के प्रति घोर प्रेम ने मुझे ब्राह्मण से 'महाब्राह्मण' बना दिया। मैं मरता क्या न करता...। वे और क्रोधित न हों अत: तुरन्त दूसरे दिन उन्हें महानगर की सैर कराने का वायदा कर लिया। सुबह सैर को निकले भाई साहब महाप्रसन्न थे, पर शाम गहराते ही जब घर लौटे, तो महायोगी की मुद्रा में...। थकान के कारण उनका पूरा बदन इस कदर चूर था कि महाकष्ट के कारण उनके मुँह से बोल ही नहीं फूट पा रहे थे। उनके इस कष्ट में मैं 'महासुख' का अनुभव कर रहा था। बच्चू ने जब तक महानगर के दर्शन नहीं किया था, तभी तक चहक रहे थे, पर दर्शन मिलते ही सारे हौसले पस्त...। मुझे लग रहा था कि अब वह यहाँ ठहरने वाले नहीं...।
पत्नी ने उन्हें इस हाल में देखा तो दु:खी होकर बोली- अरे, क्या हुआ इन्हें...? अरे भई, कुछ नहीं हुआ...। बस, इस महानगर की खूब सैर की है और इस दौरान दो बार खुले मेनहोल में गिरे, एक जगह सुअर के साथ दौड़ लगाई...और दो जगह भैंसों ने इन्हें धमकाया...। इसके बाद तो ये उछलते- कूदते...दम घुटाते बस चले ही आ रहे हैं...। अरे, तो आप इन्हें इस महानगर की सड़कों पर चलने- फिरने का ढंग समझा देते...। भाई साहब का कष्ट देख कर पत्नी बहुत कष्ट में थी। मैंने उसे आश्वस्त किया- अच्छा भई, अगर कल ये चले तो ठीक से समझा दूँगा...। सुबह वे महाशय सोकर उठे तो उनका पूरा बदन लाल चकत्तों से भरा था। उन्हें देख कर पत्नी फिर से महाकष्ट में आ गई- रात को आपने इनके शरीर पर ओडोमॉस नहीं मला...? मैंने ध्यान नहीं दिया तो भाई साहब फिर क्रोधित हो गए- कैसा है तुम्हारा यह महानगर भैय्येऽऽऽ, किस महामूर्ख ने इसे महानगर का दर्जा दिया है..? मैं गाँव वापस लौट कर इसकी अव्यवस्था के खिलाफ वहीं से एक महाआन्दोलन छेड़ूँगा...। अरे, सड़क पर पैदल चलो तो पहाड़ पर चढऩे का अहसास होता है...। भूल से कचरे पर चढ़ जाओ तो उसके नीचे छिपे गढ्ढे में औंधे मुँह गिरो...। अगर गाड़ी में भी चलो तो ऊँट की पीठ पर चढ़ कर लचकते- मचकते चलने का अहसास होता है...। कोई भी चीज इस महानगर में अपने स्थान पर नहीं है...। जहाँ वाहनों को चलना चाहिए वहाँ भैंसे चलती हैं और जहाँ भैंसों का ठौर है, वहाँ इंसान पसरे पड़े हैं...। और तो और, यहाँ तो आदमी और सुअर के बाड़े का भेद भी नहीं दिखता...। हम तो भई बाज आए...। इस सहर में तो यह समझ ही नहीं आता कि कौन आदमी है और कौन औरत...। जिसे मरद समझो, वह औरत निकलती है और कन्धे तक के बाल देख कर जिसे औरत समझो, वह मरद निकलता है...धत्त तेरे की...। उनके टूटे-फूटे कलपुर्जे देख कर अन्दर से मैं महाप्रसन्न था पर ऊपर से रिश्ते का लिहाज कर बोला- अरे नहीं भाई साहब, यहाँ देखने लायक अच्छी जगहें भी हैं...आप एक दिन आराम कर लीजिए, फिर वहाँ भी घुमा दूँगा...। उन पर तत्काल प्रतिक्रिया हुई और वे महाप्रसन्न हो उठे। 'महा' शब्द के प्रति प्रेम की उनके भीतर जो 'महा-लत' थी, उसने उनकी समस्त पीड़ा को हर लिया। वे चहक कर बोले- भाई हो तो तुम्हारे जैसा...कभी गाँव आओगे तो तुम्हारे सम्मान में महाभोज दूँगा...। दूसरे दिन अलस्सुबह ही वे तैयार होकर बैठ गए। मेरे पास एक धेला भी नहीं था सो मैंने उन्हीं से कर्ज लिया और फिर उसी धन के साथ उन्हें सैर कराने निकल पड़ा। घर से निकलते वक्त वे पूरी तरह सतर्क थे, भैय्येऽऽऽ, इस बार जरा ठीक- ठाक घुमा देना...। पत्नी ने भी सख्त हिदायत दी- इस बार जरा संभल कर घुमा दो ताकि ये यहाँ से जल्दी से चले जाएँ। कल की तरह अगर जरा-सी भी गलती हुई तो समझो तुम्हारा महाभोज कराने का इनका सपना तो धरा रह जाएगा...उल्टे हमें ही यहाँ इनका महाभोज देना होगा...। इस मुई मँहगाई के जमाने में कोई करज- वरज भी नहीं देगा...।
मेरी पत्नी काफी बुद्धिमान थी इसीलिए घर के हर कोने में उसकी महानता की छाप थी। उसमें मैं भी शामिल था। अत: इस बार पत्नी के निर्देशानुसार मैं उन्हें कुछ चुनिन्दा जगहों पर ले गया...और ऐसे रास्तों से ले गया जो सचमुच का रास्ता था। एक ऐसा रास्ता जिस पर से मौके- बेमौके नेता लोग गुजरा करते थे...। उनके गुजरने का ही असर था कि वह रास्ता बन गया था और अवसर पडऩे पर कइयों को गुजार सकता था। खैर! यह रास्ता- प्रकरण तो बाद की बात है। इससे पहले की खास बात है, इस महानगर की सुरक्षित सैर...।
इस बार मैंने उन्हें खूब सैर कराई। इससे वे अति- प्रभावित हुए और इत्ते हुए कि अपने मन में उन्होंने इस महानगर की एक अनोखी छवि बसा ली। पर इस महासुख के एवज में उन्होंने थोड़ा- बहुत गँवाया भी...। मसलन अपने आगे के दो दाँत...जेब में पड़े कुछ हजार के नोट...अपनी कीमती घड़ी...गले की चेन, वगैरह- वगैरह...।
वे अपने आप को काफी खो चुके थे, अब मैं उन्हें पूरी तौर से खोना नहीं चाहता था, सो उनकी इस महायात्रा के अन्तिम चरण में मैं उन्हें एक होटल में ले गया। अन्दर घुसते ही एक बार फिर वे महाप्रसन्न हो गए- भई, यह होटल तो किसी फिल्मी होटल जैसा महासुन्दर है...। वैसी ही सज्जा, वैसे ही सुन्दर खाते- पीते लोग...वाह भाई वाह...!
नीचे के साथ- साथ ऊपर बैठने की भी पूरी व्यवस्था थी। भीड़ से बचने के लिए मैं उन्हें ऊपर ले गया, पर यह क्या...? पल भर में ही वे नीचे आ गए...। मैं एकदम हतप्रभ...खुद नीचे आ जाते, उन्हें किसने रोका था, पर साथ में सीढ़ी की रेलिंग लेकर क्यों गए...? खैर! किसी तरह उनसे रेलिंग लेकर उन्हें जमीन से उठाया और फिर नीचे सही स्थान पर बैठा दिया। मैनेजर ने पहले तो आँखें तरेर कर, हमें घूर कर देखा, फिर अपना क्रोध दबा कर मुस्कराया भी...प्रत्युत्तर में मुस्करा कर हमने खाने का ऑर्डर दिया...। खाना आते ही वे युद्धस्तर पर उस पर टूट पड़े और इस कदर टूटे कि उन्हें अस्पताल पहुँचाना पड़ा। गलत न समझें, उन्हें किसी ने मारा-वारा नहीं, बल्कि मेरे लाख मना करने के बावजूद उन्होंने काँटे- चम्मच का भरपूर प्रयोग किया और इस प्रक्रिया में उन्होंने खुद ही अपने होंठ और जीभ लहुलुहान कर लिए। इस हादसे से अबकी उनकी आत्मा भी लहुलुहान हो गई। गाँव वापस जाने लगे तो एक महायोगी की मुद्रा में थे- किसी भी चीज या स्थान का मोह नहीं करना चाहिए... मोह ही महानाश का कारण है...। अब कुछ दिन विश्राम करने के पश्चात इस जीवन में गाँव वापस लौट आने की खुशी में एक महायज्ञ करूँगा...। शेष जीवन अब एक महात्मा की तरह गुजारूँगा...। तृष्णा में पड़ कर मैंने न जाने कितने महापाप किए, जिसके कारण महाकष्ट उठाए...।
शब्दों के इस महाभेदी बाण का संधान करके वे तो गाँव पधार गए, पर बाद में कर्ज अदायगी के कारण मुझे अपने व अपने परिवार के सुखों का जो महानाश करना पड़ा, उससे मुझे लगा कि अगर वे थोड़े दिन और ठहरते तो उनका महाघाती होने से मैं अपने आप को रोक नहीं पाता...।
मेरे बारे में
शिक्षा- एम.ए समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, जन्म- इलाहाबाद। 1980 से लेखन, लगभग सभी विधाओं में रचनाएं प्रकाशित मुख्य विधा कहानी और कविता, प्रकाशित क्रितियाँ- अनुभूत, दस्तावेज़, मुझे आकाश दो, काथम (संपादित कथा संग्रह) लाल सूरज (17 कहानियों का एकल कथा संग्रह) शब्द भर नहीं है जिन्दगी (कविता संग्रह), अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो (कविता संग्रह), सवाल-दर-सवाल (लघुकथा संग्रह) यह सच डराता है (संस्मरणात्मक संग्रह) शीघ्र प्रकाश्य- चिडिय़ा होती माँ (कहानी संग्रह) कुत्ते से सावधान (हास्य-व्यंग्य संग्रह) हाशिए पर औरत (लेख-संग्रह) आधी दुनिया पर वार (लेख संग्रह)
सम्पर्क-प्रेमांगन, एम.आई.जी-292, कैलाश विहार,
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आवास विकास योजना संख्या-एक, कल्याणपुर,
कानपुर-208017(उ.प्र.) मोबाइल-09839915525,
ईमेल- premgupta.mani.knpr@gmail.com,
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ब्लॉग- www.manikahashiya.blogspot.com
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