भारत की प्राचीनतम पांडुलिपि
ऊपर प्रकाशति चित्र भारत में प्राप्त प्राचीनतम पांडुलिपि के एक पृष्ठ का है। यह पांडुलिपि भोजपत्र पर लिखी बौद्ध धर्म के कमल सूत्र की है। यह पांडुलिपि 1931 में एक चरवाहे को उत्तरी कश्मीर के गिलगित में एक बौद्ध स्तूप में मिली थी। ब्राम्ही लिपि में भोजपत्र पर हस्तलिखित यह पांडुलिपि गिलगित के तत्कालीन वजीर द्वारा कश्मीर के महाराजा को पहुंचाई गई थी। उस समय यह पांडुलिपि अत्यंत जर्जर हालत में थी। महाराजा कश्मीर ने जब इस पांडुलिपि को तत्कालीन पुरातत्वविद और बौद्ध स्तूपों, शिलालेखों और साहित्य के शोधकर्ता सर आरील स्टीन को दिखाया तो उन्होंने इस बेशकीमती कृति को पांचवी शताब्दी का बताया। ध्यान देने की बात यह है कि 1500 वर्ष बीतने के बाद भी पांडुलिपि बची रही तो इसका कारण है कि यह भोजपत्र पर लिखी है। यदि कागज पर होती तो इतने लंबे समय के पहले ही गल कर धूल में परिवर्तित हो गई होती।
जापान की इंस्टीटयूट ऑफ ओरियंटल फिलासाफी की तकनीकी सहायता से इस जर्जर पांडुलिपि के भोजपत्रों को मजबूत बना दिया गया है। इतना ही नहीं इस अत्यंत दुर्लभ ग्रंथ की 250 प्रतिलिपियां भी बना दी गई हैं जिससे कि अध्ययनकर्ताओं और शोधकों को भी उपलब्ध हो सके । जहां तक मूल पांडुलिपि की बात है तो अमूल्य राष्ट्रीय निधि होने के कारण वह राष्ट्रीय अभिलेखागार की मजबूत तिजोरी में सुरक्षित है।
जापान की इंस्टीटयूट ऑफ ओरियंटल फिलासाफी की तकनीकी सहायता से इस जर्जर पांडुलिपि के भोजपत्रों को मजबूत बना दिया गया है। इतना ही नहीं इस अत्यंत दुर्लभ ग्रंथ की 250 प्रतिलिपियां भी बना दी गई हैं जिससे कि अध्ययनकर्ताओं और शोधकों को भी उपलब्ध हो सके । जहां तक मूल पांडुलिपि की बात है तो अमूल्य राष्ट्रीय निधि होने के कारण वह राष्ट्रीय अभिलेखागार की मजबूत तिजोरी में सुरक्षित है।
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