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Jun 19, 2012

हसना मना है!

अनकही

हसना मना है!

टाइम्स ऑफ इंडिया 19 जून के अंक में प्रकाशित व्यंग्य चित्र
हम विश्व की प्राचीनतम संस्कृति और सभ्यता के वारिस हैं। हमारे संस्कृत नाटक भी विश्व में उत्कृष्ट साहित्य की धरोहर के रूप में जाने जाते हैं और हजारों वर्ष पहले की हमारे सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को प्रतिबिम्बित करते हैं। उन अत्यंत प्राचीन ग्रंथों में जहाँ कहीं भी राजदरबार का वर्णन होता है उसमें विदूषक के क्रिया- कलाप एक अनिवार्य व महत्वपूर्ण अंग होते हैं। विदूषक राजा और मंत्रियों तथा राजपुरूषों का मजाक उड़ाता था। अकबर- बीरबल के किस्से भी उसी प्राचीन परम्परा की एक कड़ी है। जिसमें बीरबल, जो अकबर के नौ रत्नों में से एक थे, तरह- तरह से अकबर की हसी उड़ाते रहे हैं।
वास्तव में तो प्रभावशाली व्यक्तियों का मजाक बनाना मानव समाज के मनोरंजन का सदैव से लोकप्रिय साधन रहा है। सदैव से ऐसे चुटकुले बनाए जाते रहे हैं जिनमें राजाओं इत्यादि को मूर्ख दिखाया जाता है। इन चुटकुलों को दीवारों पर लिख देने और चित्रित कर देने के प्रमाण भी रोम, ग्रीस तथा हमारे प्राचीन काल के भग्नावशेषों में मिलते हैं। अखबारों की शुरूआत से यही मनोरंजन का लोकप्रिय पारंपरिक प्रथा कार्टून के नाम से जानी जाने लगी है।
संसार में आज जहां कहीं भी जनतांत्रिक शासन व्यवस्था है वहां कार्टून को सम्मानित राजनीतिक व्यंग्य की मान्यता प्राप्त है। हमारे यहाँ भी ऐसा ही है। जिसके कारण शंकर और आर. के. लक्ष्मण अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कार्टून रचयिता बने। इन्हीं के साथ सुधीर धर, राजेन्द्र पुरी, अबू और मारियो मिराण्डा ने भी अपने अविस्मरणीय कार्टूनों से पत्रकारिता को समृद्ध किया।
शासन तंत्र के भ्रष्टाचारपूर्ण और अविवेकपूर्ण  क्रियाकलापों पर रेखांकन द्वारा चुभती टिप्पणी करके कार्टून रचयिता इनसे जनता को होने वाले कष्ट पर हास्य का मलहम लगाते हैं तथा शासन तंत्र के सदस्यों को भी सही रास्ते पर चलने के लिए सचेत करते हैं। यही कारण है कि जन- कल्याण को ही राजनीति का उद्देश्य मानने वाले महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल, जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, अटलबिहारी बाजपेयी इत्यादि जैसे नेता कार्टूनों को राजनैतिक- सामाजिक विमर्श का महत्वपूर्ण अंग मानकर सम्मान करते थे।
इस परिपेक्ष्य में विडम्बना यह है कि आज के अधिकांश राजनीतिक दल अपने आंतरिक संगठन और व्यवस्था में लोकतांत्रिक प्रणाली का पालन नहीं करते। ये राजनीतिक दल पारिवारिक धंधे के रूप में चल रहे हैं अत: इन दलों के नेताओं के लिए राजनीति का उद्देश्य जन- कल्याण नहीं है। इनके लिए राजनीति एक धंधा है जिसका एकमात्र उद्देश्य निजी समृद्धि है। ये लोग आलोचना और व्यंग्य को अपने ऊपर घातक हमला मानकर उसे जी- जान से कुचलने में जुट जाते हैं। यही कारण है कि पहले पश्चिम बंगाल में नई सरकार की सर्वेसर्वा ने कार्टून रचयिता प्रोफेसर को जेल में ठूंस दिया।  उसके बाद पिछले माह संसद में शंकर के जिस कार्टून को लेकर सांसदों ने जो बिना बात का बतंगड़ बनाया वह वास्तव में 1949 में 'शंकर्स वीकली' में छपा था। इसमें संविधान रचना की धीमी प्रक्रिया से जनता में व्याप्त असंतोष के फलस्वरूप डा. अम्बेडकर को संविधान रूपी घोंघे पर सवार दिखाया गया है। बगल में नेहरू जी खड़े हैं। दोनों ही हाथ में चाबुक लिए घोंघे को तेज चलने के लिए ठेल रहे हैं। ये कार्टून पिछले छह वर्षों से कक्षा 9 से 11 तक की राजनीति शास्त्र की पाठ्य पुस्तक में मौजूद था। अचानक शासक दल के एक सांसद ने लोकसभा में इस 64 वर्ष पुराने कार्टून को आपत्तिजनक घोषित करते हुए इसे प्रतिबंधित करने की मांग की तो सभी राजनीतिक दलों के सांसदों ने एक स्वर से इस अ-लोकतांत्रिक कदम का जोर- शोर से समर्थन किया। इस पर आनन- फानन में सरकार ने जितनी शीघ्रता से  घुटने टेकते हुए पुस्तकों से कार्टूनों को हटाने का निर्णय लिया वह देश की जनतांत्रिक व्यवस्था पर एक और शर्मनाक काला धब्बा है। कार्टूनों पर रोक आपातकाल की याद दिलाती है।
कार्टून पर रोक लगाने वाले लोगों को याद रखना चाहिए कि भारत की जागरूक जनता ने आपातकाल का कैसा करारा जवाब दिया था। कार्टूनों या अभिव्यक्ति के अन्य तरीकों पर राजनीतिक उठा- पटक में वोट बैंक की खातिर रोक लगाने को भी जनता स्वीकार नहीं करेगी।
जिसने भी जनता को राजनीतिक और प्रशासनिक व्यक्तियों की कमजोरी पर हसने से रोकने की कुचेष्टा की है उसे ऐसे रोना पड़ा है कि आँसू पोछने वाले भी नहीं मिले।
                                                                          -डॉ. रत्ना वर्मा

1 comment:

सहज साहित्य said...

सहिष्णुता लोकतन्त्र की रीढ़ है । धार्मिक विश्वास हो या राजनैतिक क्रिया कलाप । आज़ादी के बाद क असबसे दु:खद पहलू है लोकतान्त्रिक मूल्यों का विघटन । यही कारण है कि क्षुद्र राजनीति से लेकर अफ़सर साही के हथकण्डो तक , आम आदमी को नही वरन नेताओं और अफ़सरों की सहन्शीलता पूरी तरह स्वार्थ केन्द्रित हो चुकी है । वोट की राजनीति का खेल इतना निम्न स्तरीय हो गया है कि , ज़रा-सी बात पर हल्ला मचाना ही हमारा चरित्र बन गया है । आपात्। स्थिति हटने के बाद हिन्दी केस्कूली पाठ्यक्रम से निराला की कविता ' कुत्ता भौंकने लगा ' हटाई गई , कभी 'रोटी और संसद-( धूमिल की कविता को हटाया गया । आज ऐसे विश्वविद्यालय भी हैं जहाँ पुरानी और बेजान कविता ही पढ़ाई जा रही हैं। वहाँ सबसे बड़ा डर है कि न जाने कब , कौन किस बात पर हल्ला बोल कार्यक्रम आयोजित कर बैठे । दाग़दार को सबसे बड़ा डर रहता है ,अत: वह सीधे लोक तन्त्र पर खतरा बताने लगता है, जबकि उस तन्त्र में रोज़मर्रा पिसते हुए उस लोक का दर्द इन बहरे कानों तक नहीं पहुँचता । आने वाली पीढ़ी का दिमाग़ कितना विषाक्त कर दिया जाएगा , इसे सोचकर हैइ डर लगता है । आपने अपने इस लेख में मुद्दे को जिस तरह से पेश किया है ,उससे नासमझ लोगों के दिमाग की खिड़कियाँ खुल जानी चाहिए ।