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Oct 1, 2025

पंजाबी कहानीः विषधर

  - बचिंत कौर, अनुवाद : सुभाष नीरव

रत्तीभर भी मन नहीं कर रहा था बेबे भागवन्ती का कि वह आज ही गाँव की गाड़ी चढ़ जाए। अभी परसों ही तो वह एक शादी में रामपुरा से दिल्ली आई थी, जहाँ उसकी एकमात्र लाडली बेटी मुख्तियारो भी ब्याही हुई थी।

पड़ोस में रहते गिल की बेटी की डोली विदा करने के बाद, बेबे भागवन्ती अभी-अभी ही अपनी बेटी मुख्तियारो के घर पहुँची थी। 

 “बेटी मुख्तियारो, अगर तू कहे तो दो दिन ठहर के रामपुरा चली जाऊँगी। वहाँ कौन-सी गाड़ी रुकी हुई है मेरे बग़ैर।”

अपने दामाद लहणा सिंह के सामने इतनी-सी बात मानो बेबे भागवन्ती ने झिझकते-झिझकते कही थी। इसके साथ ही उसने गाँव से मुख्तियारों के लिए लाई हुई सौगातों की कई छोटी-मोटी पोटलियाँ ही नहीं, अपने नये सिले छींट के सूट को भी ट्रंक से बाहर निकाला और उसकी तह खोलने लगी।

माँ की ओर से लाई गई ढेर सारी सौगातों की ओर मोहभरी नज़र फेरकर, पल ही पल अपने पति की नज़रों में झाँकते हुए मुख्तियारो ने कहा -“हाँ माँ, तूने अभी वहाँ जाकर कौन-सा कसीदा काढ़ना है। इतनी दूर से आई हो तो चार दिन रहकर ही जाना मेरे पास। रोज़-रोज़ कहाँ निकला जाता है घर से। पता नहीं कैसे आ गई तीन सालों बाद। फिर इतवार को तो गिल्लों के बलदेव ने भी वापस लौटना ही है गाँव को। उसके साथ ही चली जाना, गाँव तक साथ हो जाएगा तेरा।”

यह सब कहते हुए जैसे मुख्तियारो ने अपने मन की साफ़-साफ़ बात अपने पति लहणा सिंह को कह सुनाई थी। वैसे बेटी माँ को उम्रभर अपने पास रखना चाहती थी। माँ की देखभाल करने का ठेका सिर्फ बेटों के पास ही क्यों? जब जायदाद में बराबर का हिस्सा माँगने के लिए दामाद अपनी बीवियों को जबरन आगे किए रहते हैं।

“चलो, दो चार दिन ही सही, क्या फायदा घर में क्लेश डालने का।” अपने सवाल का खुद ही जवाब देती मुख्तियारो ने अपनी बात के समर्थन के लिए कड़वे स्वभाव के अपने पति लहणा सिंह की ओर चोर निगाहों से देखा।

उधर माँ, बेटी के सामने अपना पेट खंगालने के लिए न जाने कब से बेचैन थी।

मांवां ते धीयां दी दोस्ती नी माये

कोई करदियाँ गलोड़ियाँ...

नी कणकाँ लम्मियाँ धीयाँ क्यूँ 

जम्मियाँ नी माये...।

न जाने कितनी ही अंतड़ियाँ कड़-कड़ करके टूटी होंगी, जब ये बोल किसी माँ से बिछुड़ी बेटी के कलेजे को चीरते उसके होठों पर आये होंगे? माँ-बेटियों की टूटती दोस्ती के गीत यूँ तो पंजाब की धरती के सारे जंगल-बियाबानों में गूँजते हैं, पर मुख्तियारो और भागवन्ती बेबे की दोस्ती के चर्चे, गाँव के बच्चे-बच्चे के मुँह पर ही नहीं, उसके भाई बलवन्त और भाभी मिन्दरो के मुँह से भी दिन-रात होते ही रहते। मिन्दरो पास-पड़ोस में बैठी, बलवन्त सिंह के साथ बातें करती -

“जी, बेबे गई तो बेशक गिल्लों की बेटी के ब्याह पर है, पर यह चावलों से भरा पीपा, चने की दाल, सरसों का सूखा साग और ये अपने हिस्से के सारे के सारे बादाम भला क्यों लेकर गई है अपने साथ?”

“हाँ, वैसे भी इतना बोझ राह में कौन उठाएगा बेबे का?”

मिन्दरों की बात की पूरी-पूरी हिमायत करता था मुख्तियारो का भाई बलवन्त भी।

“निरे बुद्धू हो तुम तो...गिल्लों की लड़की के ब्याह का तो बहाना था बेबे के पास दिल्ली जाने के लिए। हमारी क्या कोई सगी रिश्तेदारी है जट्टों के साथ। न लेना, न देना कभी। ज़रा-सी जान-पहचान होने पर ही भला कोई यों चल पड़ता है, इतनी दूर। दिल्ली का तो किराया-भाड़ा भी बहुत है यहाँ से। असल बात तो यह है कि बेटी मुख्तियारो के पास जाना था। मैं जानती नहीं जैसे, तुम देख लेना अगर बेबे लौट आए महीनेभर से पहले।”

“हूँ...।” बलवन्त ने मिन्दरो की बात का फिर हुंकारा भरा।

“भला क्या, चावलों की कमी है दिल्ली में, जो पीपा भरकर ले चली साथ। और सेवियाँ कौन-सा नदीद फल हैं, वहाँ ले जाने के लिए। सारी की सारी पीपी उलटकर ले गई झोले में। हम भी तो किसी की बेटियाँ हैं न। हमारी माँ तो ऐसा नहीं करती कभी कि बहू-बेटों के मुँह से छीनकर बेटियों के घर भरे जाओ। मैं पूछती हूँ, भला क्या नहीं मिलता है वहाँ दिल्ली जैसे शहर में। चाहे तो आदमी सारा बाजार खरीद ले खड़े पैर। मैं नहीं जानती जैसे बुढ़िया को...। नकद कहाँ था, जो देकर आती बेटी को। बाई जी की पिलसन में से भी निकालकर ले गई है साथ।”

मिन्दरो जैसे भागवन्ती बेबे के फौज में मारे गये पति की पेंशन पर भी अपना पूरा-पूरा हक़ जमाती थी। तभी तो उसको मुख्तियारों के लिए धेले भर की चीज़ भी सौ की लगती।

वैसे मुख्तियारो को, बेबे भागवन्ती बलवन्त से कम प्यार नहीं करती थी। इस असीम मोह के कारण ही माँ-बेटी दोनों को यह बिछोड़ा झेलना कठिन हो जाता था। बेबे भागवन्ती जब कभी एक-दो दिन के लिए दिल्ली में मुख्तियारो के पास आती, एक मिनट के लिए भी खाली न बैठती।

“ला, बेटी मैं बैठी-बैठी कोई सब्जी-भाजी ही चीर दूँ। आटा गूँध दूँ। और कुछ नहीं तो लहसुन ही छीलकर रख देती हूँ। जब भाजी बनानी होगी, झट कुतरकर डाल लेंगे।” अच्छी-भली घर में बर्तन माँजनेवाली माई आती थी, फिर भी बेबे भागवन्ती बर्तन माँजने बैठ जाती।

दूसरे कितने ही छोटे-मोटे काम बेबे भागवन्ती मुख्तियारो के यहाँ बैठी-बैठी सँवारती रहती। किसी थैले की तनी टूटी होती, झट सुई-धागा लेकर सिलने बैठ जाती। किसी रजाई का कवर फटा होता, उसे सीने लगती। किसी दरी के किनारे उधड़े होते तो बेबे तुरन्त कहीं से पुराने कपड़े का टुकड़ा ढूँढकर लगाने बैठ जाती। बेबे जितना समय मुख्तियारो के घर में रहती, उसके सौ-सौ काम सँवारती। फिर भी उसके मुँह से यही शब्द निकलते, “वैसे तो बेटा मैं यों ही बोझ हूँ। ना काम की, ना काज की।”

“बेबे, तू यूँ ही न अनाप-शनाप बोला कर। मैं तो कभी तुझे खाली बैठे नहीं देखती।” मुख्तियारो की प्यार भरी नज़रें छोटे-छोटे काम सँवारती बेबे को जैसे सिर से पाँव तक चूमने लगतीं।

लेकिन, लहणा सिंह घर में आई बेबे भागवन्ती को एक बार ‘नमस्ते’ कहने के बाद, उसके गाँव लौट जाने तक फिर कभी भूले-भटके भी उससे कोई बात न करता। उसकी यह बेरुखी देख बेबे तब तक रसोई में ही सिकुड़कर बैठी रहती, जब तक वह अपने काम पर न चला जाता। फिर, एक अफसोस, एक पछतावा दिन-रात बेबे भागवन्ती की अंतड़ियों को अन्दर ही अन्दर चूहे की भाँति कुतरता रहता। उठते, बैठते, सोते, जागते हर पल यह सोच उसके मन में उठती रहती- ‘भला, मैं यों ही बेटी के द्वारे क्यों बैठी हूँ?...मिलना एक दिन का भी वही, दो दिन का भी वही।’

पर माँओं का बेटियों से मोह भला ऐसे ही कहाँ टूट पाता है! 

माँवाँ ते धीआँ दी दोस्ती नी माये

कोई टुटदी ए कहिराँ दे नाल

नी कणकाँ निसरियाँ 

धीयाँ क्यूं विसरियाँ माये...

मुख्तियारो ने सोच में डूबी माँ की ओर एक नज़र देखा। एक ही समय में दोनों के दिलों की पता नहीं कितनी गहराइयों से एक ठंडी आह एक साथ निकली और उनके अधरों पर उदासी की एक परत जमा गई।

एक बार तो मुख्तियारो का मन हुआ कि वह साफ़-साफ़ अपने पति लहणा सिंह से कह दे कि मैं भी तो बराबर का कमाती हूँ। अगर मेरी माँ दो दिन हमारे पास रह लेगी, तो घर का आटा खत्म नहीं होने वाला। 

पर वह मन ही मन कुढ़ते लहणा सिंह की गुस्से भरी लाल आँखों में झाँककर ही रह गई;  क्योंकि पास के पलंग पर बैठे लहणा सिंह ने जान-बूझकर मुख्तियारो की सारी बात अनसुनी करके लगभग टाल ही दी थी। 

कुछ समय के लिए चारों ओर सारे वातावरण में एक गाढ़ी उदासी और एक भय-सा फैलकर रह गया था। फिर, बेटी मुख्तियारो की एक चुप ने जैसे बेबे भागवन्ती का एकदम ही दिल तोड़कर चूर-चूर कर दिया था; लेकिन, अन्दर ही अन्दर वह अभी भी चाह रही थी कि एक बार मुख्तियारो उसे झूठे से ही कह दे, “बेबे, आज नहीं जाना तूने गाँव। एक-आध दिन ठहर कर चली जाना।”

कितना मोह!

कितनी लाचारी!

इतनी बेरुखी, इतनी बेकद्री, बड़े-छोटे का ज़रा लिहाज ही नहीं था लहणा सिंह को तो। बेबस मुख्तियारो लहणा सिंह के हुंकारे की प्रतीक्षा करती रही और बेबे भागवन्ती बेहद उदास और पश्चात्ताप भरी नज़रों से कितनी ही देर तक मुख्तियारो के मुँह की ओर ताकती रही। आख़िर, बेबे दोनों हाथों में पकड़े छींट के सूट को टूटे हुए दिल के साथ फिर से धीरे-धीरे तहाकर अपने ट्रंक में रखने लगी। सेवियाँ, चने की दाल और अन्य छोटी-मोटी सौगातों की छोटी-छोटी पोटलियाँ, दो सेर बादामों के झोले सहित मुख्तियारो के हाथ में पकड़ाते हुए उसने धीमे से कहा-“ले बेटी, यह भी रख ले उधर रसोई में। तड़के को रोज़ दूध में भिगोकर दो-चार गिरियाँ लहणा सिंह को दे दिया कर। और तू भी पी लिया कर कभी-कभी दूध के दो घूँट। देख तो, कैसे बिल्ली के बच्चे-सा मुँह निकला पड़ा है तेरा। आख़िर, फैक्टरी में भी तो तुझे सारा दिन बड़ी माथा-पच्ची करनी पड़ती है। उस पर घर का भी सारा काम अपने हाथों से करना होता है। किसी का सहारा तो है नहीं तुझे ज़रा भी। मैं तो कहती थी कि दो दिन तुझे आराम मिल जाता... पीछे से मैं घर सँभाल लेती, थोड़ा-बहुत, जितने के लायक हूँ। यह चारपाई भी तेरी बिलकुल ही टूटी पड़ी है। बाण ला देते, तो मैं ही बुन जाती। यह खेस भी वैसे का वैसा, नया का नया पड़ा है, इसके किनारों की लटें ही बट जाती। बैठी-बैठी इतना भर तो कर ही लेती। और बेटी, अब मैं किस लायक हूँ। वैसे तो अब रब मुझे उठा ही ले तो अच्छा...।”

यह सब कहते हुए बेबे भागवन्ती का गला भर आया था। बेबे तो पहले ही मुख्तियारो की एक चुप से समझ गई थी कि लहणा सिंह नहीं चाहता कि वह यहाँ रहे।

क्रोध में आग-बबूला हुई मुख्तियारो चुपचाप लहणा सिंह की नज़रों में झाँकती मानो अन्दर ही अन्दर जल-भुनकर रह गई थी।

“वैरी... कसाई न हो तो। खुद ने तो किसी बहन-भाई के साथ बनाकर नहीं रखी, मुझे भी तोड़ता है मेरे अपनो से। किससे वास्ता डाल दिया ईश्वर ने। बेअकल...बड़े-छोटे की शरम तो है ही नहीं ज़रा भी। मैं जानती हूँ, कौन-सी गोली बजती है इसके सीने में, मेरी माँ को दो दिन मेरे पास रखते हुए। यही न कि जितने दिन माँ यहाँ रहेगी, मैं उसके पास ही सोऊँगी। अब झाँकना... अगर सुलगती लकड़ी न मारूँ काले मुँहवाले के।”

मन ही मन साँप की तरह विष घोलती मुख्तियारो घंटा भर लहणा सिंह को बुरा-भला कहती रही और फिर गुस्से में ऊँचे स्वर में बोली- “चल बेबे, तुझे गाड़ी पर बिठा आऊँ।”

“अच्छा बेटा, खुश रहो अपने घर।” दोनों को एक आशीष देती बेबे भागवन्ती लहणा सिंह का सिर सहलाकर उसकी हथेली पर दस का नोट रख, दुखों की एक गाँठ सिर पर उठाए चुपचाप बेटी मुख्तियारो के पीछे-पीछे चल पड़ी थी। 

“बेबे, तू यों ही न साँपों को दूध पिलाती रहा कर।” मुख्तियारो ने दस का नोट लहणा सिंह के हाथ से लेकर फिर बेबे की मुट्ठी में दे दिया था।

अनुवादक का सम्पर्क- मोबाइल : 98181 11083, ई मेल: subhneerav@gmail.com


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