कुछ रंग (चोका -संग्रह ): भीकम सिंह, प्रथम संस्करण: 2025, पृष्ठ:136, मूल्य:380 रुपये, अयन प्रकाशन, जे-19/39, उत्तम नगर, नई दिल्ली 110059
हिंदी कविता के इतिहास में जब भी किसी रचनाकार ने प्रचलित विधाओं की सीमाओं को पार करने का साहस किया है, तब तब साहित्य के नए द्वार खुले है। भीकम सिंह जी का कुछ रंग चोका- संग्रह इसी साहसिक परंपरा का प्रतिफल है। यह संग्रह मात्र काव्य संकलन नहीं है, बल्कि हिंदी काव्य में एक नई विधा ‘चोका’ का प्रयोग और उसके माध्यम से जीवन-जगत के अनुभवों का संवेदनशील दस्तावेज़ है। ‘चोका’ वस्तुतः जापानी काव्य परंपरा की विधा से प्रेरित होकर विकसित हुआ, परंतु भीकम सिंहजी ने इसे हिंदी की कलेवर से जोड़कर कुछ रंग दे दिए और साथ ही लोक-संस्कृति और भारतीय जीवन-दर्शन से इसका रूपांतरण कर दिया। यह संग्रह इसलिए विशेष महत्त्वपूर्ण है कि यह न केवल विधा की दृष्टि से नवीन है, बल्कि भावनात्मक दृष्टि से अत्यंत परिपक्व और मार्मिक भी है।
‘कुछ रंग’ काव्य संग्रह में - आनंद, पीड़ा,संघर्ष,स्मृति और आशा जैसे रंगों को शब्दबद्ध करने का कवि का यह भावुक और संवेदना-पूर्ण प्रयास है। ये रंग केवल बाहरी जीवन के दृश्य नहीं हैं, बल्कि आत्मा की गहराइयों में अनुभव किए गए सजीव बिंब हैं, जो इस संग्रह का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य है।
भीकम सिंह जी की काव्य -दृष्टि का केंद्र ग्रामीण जीवन है —वहाँ की प्रकृति, वहाँ के खेत-खलिहान, पशु-पक्षी, श्रम, संघर्ष और जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी संवेदनाएँ । गाँव यहाँ केवल भौगोलिक इकाई नहीं है, बल्कि एक संपूर्ण सांस्कृतिक संरचना है, जिसमें श्रम की गरिमा, प्रकृति का आत्मीय सान्निध्य और सामूहिक जीवन की धड़कनें सुनाई देती हैं। कहते हैं-
अटका चाँद/गाँव के सिवानों पे/
तारें छिटके/खेत क्यारियों पर/झिलमिल से।
यह प्राकृतिक छटा मात्र का चित्र नहीं है, बल्कि ग्रामीण जीवन की संतोष, आत्मीयता और उस आकाश से जुड़े रहने की अनुभूति है ।
भीकम सिंह का भाव-जगत् ग्राम्य जीवन के यथार्थ से गहराई से जुड़ा, इसलिए वे गाँव का सौंदर्य चित्रित करना नहीं भूलते खेत, मेंड, गलियारे,पगडंडियाँ, फसले इन सब का जीवंत और मनोहरी चित्रण एक सरल और गाँव के प्रेम में डूबा मन ही कर सकता है इस कसौटी पर भीकम सिंह जी की कविता खरी उतरती है।
इन कविताओं का दूसरा पक्ष भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कवि की दृष्टि से गाँव का संघर्ष, उनकी समस्याएँ, उनकी जिजीविषा कहीं ओझल नहीं होती। दुख जीवन का हिस्सा है, परंतु उसके बीच भी सुख की सम्भावना नष्ट नहीं होती। यही कारण है कि वे कहते हैं—
बसंती हवा उम्मीद की तरह/और घास भी/
मस्त मौला बावली/ है सुखों की वजह।
यहाँ हवा महज़ मौसम का बोध नहीं कराती, बल्कि मानवीय मनोविज्ञान की जिजीविषा का प्रतीक बन जाती है। उनकी कविता में आए वृक्ष और पौधे केवल प्रकृति का हिस्सा नहीं है: बल्कि वे जीवंत प्रतीक है स्मृतियों के, संघर्षों के,जो धीरे-धीरे सामूहिक चेतना के प्रतीक बन जाते हैं-
पानी की गंध/ओढ़ के बरगढ़ /
खड़ा उदास/पास कही है प्यास।
इसी प्रकार खेत की जुताई, ठूँठों पर सुबह-सुबह का श्रम, और फसल की आशंका—ये सब मिलकर ग्राम्य जीवन की आत्मकथा बुनते हैं और इसकी छटा अद्भुत हो जाती है। भीकम सिंहजी के काव्य का भाव-पक्ष केवल सुख-दुख के वर्णन सीमित नहीं है, बल्कि उसमें एक गहरी संवेदनात्मक मार्मिकता है। उनकी कविता में दुख पाठक के मर्म को छूता है, करुणा की उत्पत्ति करता है; किंतु निराशा से उसका कोई संबंध नहीं है-
बीता बसंत/तो देह का मोह- /
भी कम हो गया/मन तैरता रहा/ होकर रीता
तो यहाँ देह और मन दोनों की थकान का चित्र है।
इस संग्रह में कई स्थानों पर कवि का स्वर आत्ममंथन का भी है। खेतों की थकान, दुर्घटनाओं की आशंका, श्रम की कठिनाई—ये सब केवल बाहरी यथार्थ नहीं हैं, बल्कि कवि के भीतर भी एक बेचैनी उत्पन्न करते हैं।
घास के जैसी/खेतों की पीठ पर/
उग रही है / मुद्रादायिनी जड़े/
हदें लाँघ के/नागफनी- सी बढ़ी/
इसी प्रश्नवाचकता से उनकी कविता का स्वर और अधिक मार्मिक हो उठता है। इस मार्मिकता में पाठक केवल दर्शक नहीं रहता, बल्कि स्वयं उस अनुभव का सहभागी बन जाता है। जैसे-जैसे संग्रह की कविताएँ आगे बढ़ती हैं पाठक का विश्वास कवि की संवेदना पर प्रबल होने लगता है। कवि जीवन की छोटी-छोटी बातों को बड़े प्रतीकों में बदल देते हैं। घास, ओस, अँखुआना, बीज बोना—ये सब न केवल कृषि-प्रक्रियाएँ हैं, बल्कि मानवीय जीवन की गहरी संवेदनाओं का रूपक हैं।
भीकम सिंह जी का काव्य-संसार केवल ग्रामीण जीवन के सौंदर्य और आत्मीयता तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें गाँव की समस्याओं का मार्मिक और गहन उद्घाटन भी है। यदि एक ओर उनकी कविता खेतों की हरियाली, नदियों की कलकल ध्वनि और गाँव के सामूहिक श्रम को जीवन का उत्सव बनाकर प्रस्तुत करती है, तो दूसरी ओर उसी जीवन के भीतर पनपती विडंबनाओं, संघर्षों और विसंगतियों का यथार्थ चित्रण करती है। कवि का यह दूसरा पक्ष विशेष रूप से संवेदनात्मक, मार्मिक और तार्किक है, जो पाठक के अंतर्मन को गहराई से छू लेता है। गाँव की सबसे बड़ी समस्या है – शहरीकरण का बढ़ता हुआ प्रभाव-
गाँव में थी/क्या कहीं कोई सड़क/
पगडंडी थी/सड़के जैसे आई/
दूध घी गए/मैगी पिज्जा बर्गर/ जैसे जहर आए।
गाँव की सहजता और सरलता अब स्पर्धा की अंधी दौड़ में डगमगाने लगी है। कवि का आक्रोश और दुःख यहाँ केवल गाँव के लिए नहीं; बल्कि पूरे समाज के लिए चेतावनी है –
खेतों के बाद/शुरू होगा बाजार/
कहाँ जाएँगे/विस्थापित सियार/
कोर्ट में होंगे/ तारीखों से बाहर।
कविता का दूसरा बड़ा प्रश्न है – खेती और मिट्टी का संकट। कवि ने खेतों की समाप्त होती उर्वरता की स्थिति को प्रतीकात्मक बिंबों में व्यक्त किया है – ‘मिट्टी में घुला रसायन’, ‘उड़ती हुई रेत’, ‘थके खेत’– ये केवल शब्द नहीं, बल्कि उस जीवन का सजीव दृश्य हैं, जो हज़ारों किसानों की हताशा और निराशा से भरा हुआ है।
मिट्टी में घुला/रसायन देखके/सहमें खेत/
थकने लगे/कुछ दिनों से खेत/ उड़ने लगी रेत।
कुछ रंग काव्य संग्रह का संवेदना पक्ष जितना प्रबल है, कलात्मक दृष्टि से भी यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। भीकम सिंहजी का चोका विधा को स्थापित करने का यह प्रयास उल्लेखनीय है। ‘चोका’ मूलतः जापानी काव्य-परंपरा की लंबी कविताओं की एक विधा है, जिसमें गेयता और संक्षिप्तता का अद्भुत संतुलन होता है। कवि ने इस विधा को अपनी लोक-संस्कृति की भूमि पर उतारते हुए इसे भारतीय जीवन की संवेदनाओं के अनुकूल रूप दिया है।
उनके चोका में पंक्तियों की लय और प्रवाह विशेष महत्त्व रखते हैं। प्रत्येक पंक्ति में विचार और भाव का घनत्व है, परंतु भाषा सहज और लोक-जीवन से निकली हुई है। उदाहरण के लिए-
शाम झाड़के/खलिहान से उठा/ कंधे पे रखा/संतोष का अंगोछा।
शैल्पिक स्तर पर प्रयुक्त बिम्ब योजना अत्यंत प्रभावशाली है। कवि ने गाँव के दृश्यों का इतना संजीव और जीवंत चित्रण किया है की पाठक उन्हें पढता ही नहीं, बल्कि दृश्य की तरह घटित होते देखता है । खेत, ओस, खरपतवार, कांस, नीम, बसंती हवा—ये सभी बिंब ग्रामीण जीवन के सूक्ष्मतम अनुभवों को मूर्त कर देते हैं। यही कारण है कि उनका चोका दृश्यात्मकता के कारण एक अनोखा प्रभाव छोड़ता है।
भाषा की दृष्टि से भी यह संग्रह विशेष महत्त्व रखता है, सहज़ सरल लोक जीवन की भाषा में जिस तरह कवि ने यह संसार रचा है वह सीधा पाठक के हृदय को छूता है । भाषा न तो अत्यधिक अलंकारिक है, न ही कृत्रिम। वह ग्राम्य जीवन की सहजता से निकली हुई है, किंतु साथ ही उसमें साहित्यिक परिष्कार भी है। वे क्लिष्ट और गूढ शब्दावली प्रयुक्त नहीं करते बल्कि साधारण शब्दों में असाधारण अनुभव व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि उनकी भाषा में एक ओर लोक की सजीवता है, तो दूसरी ओर काव्य की परिष्कृति।
निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं ‘कुछ रंग’ हिंदी साहित्य में एक नई विधा का आरंभ है और एक संवेदनशील कवि की परिपक्व अभिव्यक्ति का उदाहरण भी। भीकम सिंह ने चोका विधा को हिंदी के सांस्कृतिक संदर्भों में इस प्रकार ढाल दिया है कि वह आत्मसात् प्रतीत होती है। यह संग्रह भाव-पक्ष में जितना मार्मिक है, शिल्प-पक्ष में उतना ही सुदृढ़ और परिपक्व है।
इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह पाठक को केवल कविता पढ़ने का अवसर नहीं देता, बल्कि उसे जीवन की गहरी संवेदनाओं में सहभागी बना देता है। गाँव के सुख-दुख, खेतों की थकान, श्रम की ऊर्जा, और भविष्य की आशा—ये सब मिलकर पाठक को ऐसा अनुभव कराते हैं मानो वह स्वयं उस जीवन का हिस्सा हो। किसी भी रचना की कसौटी है- पाठक को जीवन के अनुभव से जोड़ देना।
गाँव के ताने -बाने में बुने चोका संग्रह 'कुछ रंग 'की सुन्दर समीक्षा के लिए पूनम चौधरी जी का हार्दिक आभार और उदंती का भी।
ReplyDelete- भीकम सिंह
धन्यवाद सर🙏🙏🙏सभी के लिए पठनीय सुन्दर काव्य -संग्रह
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