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Aug 12, 2015

विचार

अहं पर नियंत्रण करना सीखें...

 -भावना सक्सैना

एक सहेली धूप में बैठी रो रही थी,
उसका साथी कोई नहीं था।
उठो सहेली आँखें पोंछो,
 मुँह धो लो, अपना साथी ढूँढ लो।


... बचपन का यह खेल आज बहुत याद आ रहा है। काश कि ऐसा ही आसान होता मन का साथी ढूँढना। आज हम सब एक ऐसे समाज में हैं, विशेषकर  शहरों में जहाँ एक बड़ा सामाजिक दायरा होते हुए भी हम नितांत अकेले हैं! यह सामाजिक दायरा हँसने- बोलने का मौका भले ही देता हो उसके साथ-साथ एक ऐसी कुंठा को भी जन्म देता है जो भीतर ही भीतर इंसान को खा जाती है। आदर्श के रूप में देखे जाने की चाह, सब कुछ परफेक्ट रखने की चाह, सबसे ऊँचा उठने की चाह। अजब प्रतिस्पर्धा है; कि जिंदगी एक दौड़ से अधिक कुछ बची ही नहीं! मन के सच्चे साथी, जिनके सामने अपना दिल खोलकर रख दिया जाए, एक दुर्लभ प्रजाति से हो गए है।
जिस तरह से पिछले कुछ समय से न सिर्फ आत्महत्या, बल्कि अपने पूरे परिवार को समाप्त कर आत्महत्या करने के भी बढ़ते मामले सामने आ रहे हैं; वह वास्तव में चिंता का विषय है। हाल ही में कई ऐसी घटनाएँ सामने आई हैं , जिनमें से अधिकतर संभ्रांत समाज में ही हुई हैं। यह देख स्वत: ही प्रश्न उठता है कि आज हमारा समाज आखिर जा किधर रहा है? क्या कारण है कि सुशिक्षित, संपन्न व प्रतिष्ठित व्यक्ति , जिन्हें ऊपरी तौर पर देखने से कोई समस्या नहीं है अचानक ऐसा कदम उठा लेते हैं? क्या देह के अंत से सभी समस्याओं का अंत हो जाता है? क्यों एक व्यक्ति अपने प्रियजनों को दर्दनाक मृत्यु प्रदान कर स्वयं का अंत करता है और सम्पूर्ण विश्व के समक्ष कौतूहल का विषय बन जाता है?
शायद इसका सबसे बड़ा कारण है -अपनी भावनाओं, अपनी शिकायतों और अपने दर्द को किसी से साझा न करना उसे तब तक अपने अंदर समेटते जाना जब तक कि पक कर वह लावा न बन जाए और जब बाहर निकले तो सब कुछ जलाकर राख कर दे। महानगरों के सम्भ्रान्त समाज में रिश्ते सिकुड़ गए हैं, अपने को सुपर दिखाने की चाह में अपनी तकलीफों को अपने अंदर बंद करते जाते हैं लोग। आधुनिकता का ही असर है कि चाह कर भी कुछ कह नहीं पाते। बस इसी फिक्र में उलझे रहते हैं कि अमुक व्यक्ति हमारे बारे में क्या सोचेगा। मुस्कुराहट का लबादा ओढ़े अपनी तकलीफों से जूझते रहते हैं, यहाँ तक कि अपने सबसे करीबी, अपने हमसफर, अपने दोस्तों से भी अपने मन की बात नहीं कह पाते, अपनी भावनाओं को प्रकट नहीं कर पाते। जाने अनजाने अपनों से भी शिकायतें इकट्ठा करते जाते हैं। बस एक ही विचार कि अपने आप को किसी के सामने कमज़ोर नहीं पडऩे देना है। यह रवैया एकदम गलत है। इंसान एक सामाजिक प्राणी है और समाज में रहने के लिए ही बना है, अपनी अच्छाइयों, बुराइयों, सकारात्मकता और नकारात्मकता के साथ। उसे साथ चाहिए, दिल की बात कह लेने को, तो कभी भी यह न सोचें कि यदि हमने अपने दिल की बात किसी से की तो वह व्यक्ति क्या सोचेगा। अपने विचारों को प्रकट करें, अपनी भावनाओं को बाँटें।
कनाडा के अग्रणी मनोवैज्ञानिक, सिडनी जुरर्ड के अनुसार अपनी भावनाओं को प्रकट करना मानसिक स्वास्थ्य का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानसिक रूप से स्वस्थ लोगों/व्यक्तियों के महत्त्वपूर्ण विचारों और भावनाओं को साझा करने के लिए कम से कम एक ऐसा व्यक्ति होता है जिस पर वह पूर्ण रूप से विश्वास करते हैं। आज महानगरीय जीवन में हर किसी के जीवन में ऐसे एक विश्वासपात्र की कमी है। हम में से हर किसी को वह व्यक्ति ढूँढना होगा। अपने आसपास, परिवार में, मित्रों में, पड़ोसियों में। परिवार के सदस्यों, सहयोगियों या करीबी दोस्तों के साथ अपने विचारों, चिंताओं और भावनाओं को साझा करके हम स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं। इससे हमारे विचार और भावनाएँस्पष्ट हो जाते हैं। दूसरों के साथ खुला संचार हमें हमारे घर के आस-पास की दुनिया के बारे में हमारी समझ को बढ़ाने का एक बहुत महत्त्वपूर्ण रास्ता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि अपने मन का साथी खोजे कहाँ और कैसे? तो वास्तव में बहुत दूर जाने की आवश्यकता भी नहीं है। हमारे इर्द-गिर्द हमारे बहुत से हितैषी होते हैं, जो हमारी ही तरह संकोच के कारण हमसे खुल नहीं पाते। ऐसे बहुत कम व्यक्ति होते हैं ; जो आपकी खामोशी को पहचानें, यदि आपके जीवन में कोई ऐसा व्यक्ति है , जो आपकी खामोशी को पहचानता है;  तो सच मानिए आप बहुत भाग्यशाली हैं। आम तौर पर व्यक्ति को स्वयं आगे बढ़कर ही अपने मन की बात कहनी होगी। आप अपने मन की बात नहीं बताएँगे तो किसी को पता नहीं चलेगा कि आप किन परिस्थितियों से गुज़र रहे हैं। हाँ यह ध्यान जरूर रखना होगा कि अपनी भावनाओं को किस सीमा तक और किसके सामने उजागर करें। यह एक संवेदनशील मामला है ; क्योंकि व्यक्ति की प्रकृति पर निर्भर है कि वह दूसरे की बातों को सिर्फ अपने तक ही सीमित रखता है या जाकर उसकी ढिंढोरा पीट देता है। इसलिए अपने भावों को उजागर करने से पहले आप सामने वाले व्यक्ति की संवेदनशीलता से परिचित रहें।
हमारे म्बन्ध हमारे आसपास ही पनपते हैं, घर पर व घर के बाहर के रिश्ते दोनों ही बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और हमारी संतुष्टि व खुशी इन सम्बन्धों के स्वरूप से अभिन्न रूप से जुड़ी है। कार्यस्थल पर हमारा कार्य- निष्पादन इस बात पर निर्भर है कि हमारे अपने अधिकारी, सहकर्मी अथवा ग्राहक के साथ कैसे सम्बन्ध हैं। घर-परिवार में हमारा व्यवहार हमारे सम्बन्धों के अनुसार होता है और व्यक्तिगत जीवन में हमारा सुख और दु:ख हमारे सबसे करीबी व्यक्तियों के साथ हमारे सम्बन्धों पर निर्भर है। हमें यह समझना होगा कि चाहे हम स्वयं को कितना भी महत्त्वपूर्ण क्यों न मानें दुनिया हमारे चारों ओर नहीं घूमती है। सम्बन्धों  में सफलता की कुंजी एक दूसरे से सीखने में है। इंसान की सबसे मूल्यवान अनुभूति उसकी सोच है। इंसान की योग्यता उसकी सोच पर ही टिकी है । सम्बन्धों को मधुर बनाए रखने के लिए जहाँ अपना हाथ आगे बढ़ाना जरूरी है वहीं अपने अहं को दबाना भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। महाभारत की एक कथा है।
अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या पर बहुत अहंकार था। वह समझते थे कि कौरवों और पांडवों की सेना में उनके जैसा धनुर्धर व योद्धा कोई दूसरा नहीं था। भगवान कृष्ण से उनका यह अहं भाव छिपा नहीं था। उनका अहंकार दूर करने के लिए उन्होंने एक उपाय किया। जब अर्जुन कर्ण से लड़ रहे थे तो श्री कृष्ण बार-बार वाह कर्ण! वाह कर्ण! पुकारने लगे। अर्जुन को उनका यह व्यवहार बहुत बुरा लगा। उन्होंने कृष्ण से पूछा- आप बार-बार कर्ण की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? जब वह बाण चलाता है , तो हमारा रथ मात्र चार-पाँच कदम पीछे जाता है, जबकि जब मैं बाण चलाता हूँ ,तो उसका रथ चार-पाँच सौ कदम पीछे चला जाता है। आप यह देख कर भी वाह कर्ण कहते हैं? अर्जुन की बात सुन कृष्ण मुस्करा कर बोले- मैं सब देख रहा हूँ अर्जुन, मुझसे कुछ नहीं छिपाकिन्तु जो मैं देख रहा हूँ एक बार तुम भी देख लो। यह कहकर वे रथ से नीचे उतर गए। उन्होंने हनुमान को भी पताका से नीचे उतर आने को कहा। अब जब कर्ण ने बाण मारा तो अर्जुन का रथ हवा में उड़कर गायब हो गया। तब हनुमान ही उसे खोज कर लाए। अर्जुन का घमंड चूर हो गया था। तब कृष्ण दोबारा बोले-  देखो, यह मेरे और हनुमान के कारण था कि तुम्हारा रथ चार-पाँच कदम पीछे ही जाता था। तुमने अपने अहं के रथ का हाल देख लिया। तुम्ही बताओ मैं कर्ण की प्रशंसा नहीं करूँ ,तो क्यों नहीं करूँ?
यह कथा दर्शाती है कि व्यक्ति स्वयं पर मिथ्या अहं करता है, उसके कार्य, उसका सामर्थ्य सभी अन्यत्र आश्रित होते हैं, परिस्थितिजन्य होते हैं। तो अपने अहं पर विजय प्राप्त करें और अपने मन का साथी ढूँढ लें। मधुर जीवन के लिए जरूरी है कि सम्बन्धों में मधुरता हो, सहजता हो जो अपने अहं को नियंत्रित करके ही लाई जा सकती है। एक सामान्य बालक बचपन से लेकर युवावस्था तक दिन में न जाने कितनी बार 'सुनता है और यही नकारात्मकता उसके भीतर भर जाती है, इसलिए नकारात्मकता से बचने व उबरने का सायास प्रयास करें। परमपिता परमात्मा में आस्था रखें और अपना ध्यान सकारात्मकता पर केन्द्रित करें , फिर भी यदि कोई समस्या है तो पहले स्वयं शान्त हो जाएँ। यदि कोई समस्या है तो अपने आप को उसके बारे में सोचने के लिए समय और स्थान दें। इससे आपके विचार और भावनाएँ वास्तविक समस्या पर केन्द्रित होंगी और आपको सोचने के लिए समय मिलेगा। भावुकता में लिए निर्णय पर अकसर बाद में पछताना पड़ सकता है।

सम्पर्क: 64, प्रथम तल इंद्रप्रस्थ कॉलोनी सेक्टर 30-33 फरीदाबाद, हरियाणा-121003 मो. 9560719353, Email- bhawnavsaxena@gmail.com

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