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Aug 12, 2015

हमारे सरकारी स्कूल... हाईकोर्ट का फैसला

हमारे सरकारी स्कूल... हाईकोर्ट का फैसला
  - डॉ. रत्ना वर्मा
 पिछले दिनों जारी इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले ने, जिसमें निर्देश दिया गया  है कि उत्तर प्रदेश के सभी नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों के लिए उनके बच्चों को सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढ़वाना अनिवार्य किया जाए। हाईकोर्ट ने यह भी आदेशित किया है कि ऐसी व्यवस्था की जाए कि अगले शिक्षा-सत्र से इसका अनुपालन सुनिश्चित हो सके। हाई कोर्ट ने इस फैसले में यह स्पष्ट किया है कि सरकारी खजाने से वेतन या सुविधा ले रहे बड़े लोगों के बच्चे जब तक अनिवार्य रूप से प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक उनकी दशा में सुधार नहीं होगा।
यह फैसला क्या आया चारों ओर बवाल मच गया। इस फैसले ने न सिर्फ उत्तर प्रदेश अपितु समूचे देश के सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा दिया है, साथ ही इस फैसले ने समस्त नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों की नींद भी उड़ा दी है। इस फैसले ने पूरे देश को झझकोर दिया है।     
लेकिन सच तो यही है कि देश के अन्य राज्यों में भी हालात कोई बेहतर नहीं हैं। यह सभी जानते हैं सरकारी स्कूल उपेक्षित और खस्ताहाल हैं। कहीं बारिश में छत टपकते हैं ,तो स्कूल भवन के अभाव में पेड़ के नीचे पढ़ाई होती है, न पर्याप्त शिक्षक है न लाइब्रेरी, खेल का मैदान होना तो इन स्कूलों के लिए अनावश्यक ही माना जाता है, और टॉयलट जैसी प्राथमिक जरूरत की ओर तो सरकार सिर्फ घोषणाएँ ही करती रह जाती है। ऐसा नहीं है कि इन सबके लिए कभी आवाज नहीं उठाई गई हो, सरकार किसी की भी हो सभी के कार्यकाल में इन मुद्दों पर आवाज उठाई जाती है पर ढाक के वही तीन पात....
इन सबको देखते हुए क्या यह प्रश्न उठाना सही नहीं होगा कि सरकारी स्कूलों की बदतर हालात को सुधारने में अरुचि दिखाने के पीछे यह एक बहुत बड़ा कारण है कि उनके अपने बच्चे तो निजी स्कूलों में अच्छी से अच्छी शिक्षा पा रहे है, तो वे क्योंकर सरकारी स्कूलों के स्तर को सुधारने में रुचि लेंगे। सरकारी स्कूल तो मात्र गरीब वर्ग के लिए ही रह गये।  हाईकोर्ट की यह टिप्पणी कि राज्य में तीन तरह से शिक्षा व्यवस्था बँटी हुई हैं, कान्वेंट स्कूल, मीडियम स्कूल और सरकारी स्कूल, भारत के स्कूली शिक्षा व्यवस्था पर करारा प्रहार है। इसमें कोई दो मत नहीं कि पैसों वालों के लिए सर्वसुविधा सम्पन्न कान्वेंट स्कूल हैंजो कान्वेंट का खर्च वहन नहीं कर सकते ,उनके लिए मीडियम स्कूल हैं जहाँ कुछ कम पैसे वाले अपने बच्चों को भेज कर कान्वेंट स्कूल के बच्चों के साथ मुकाबला करने की कोशिश करते हैं जिसके चलते आज शिक्षा ने व्यावसायिक रूप ले लिया है और तीसरा सरकारी स्कूल जहाँ देश के गरीब बच्चे पढऩे के लिए मजबूर हैं।
 देखा जाए तो हाईकोर्ट का यह फैसला सरकार के गाल पर करारा तमाचा है। इस फैसले के बाद पूरे देश में सरकारी स्कूलों की स्थिति को सुधारने की दिशा में काम करने की आवश्यकता है। बहुत सी संस्थाएँ समय- समय पर सरकारी स्कूलों की दशा पर सर्वेक्षण करके सरकार को यह चेताती रही हैं कि हालात बद-से बदतर है पर चुनावी घोषणाओं की तरह जनता को देश की शिक्षा व्यवस्था पर भी सुधार के सिर्फ वादे ही मिलते रहे हैं। लेकिन अब यदि इस फैसले के बाद इन स्कूलों की व्यवस्था में सुधार किया जाता है तो यह पूरे देश के लिए एक ऐतिहासिक कदम होगा। सरकारी स्कूल के गरीब बच्चे भी कान्वेंट के बच्चों की बराबरी करेंगे और उच नीच के भेदभाव की खाई भी मिटेगी। यदि ऐसा होता है तो यह आजादी के बाद का सबसे बड़ा और सबसे क्रांतिकारी कदम होगा। 
परंतु इस फैसले का एक दुखद पहलू यह भी है कि शिक्षा की बदहाल स्थिति के खिलाफ आवाज उठाने वाले उस शिक्षक को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है।  इलाहाबाद हाई कोर्ट में राज्य में शिक्षा की स्थिति में सुधार लाने के इरादे से याचिका दायर करने वाले सुल्तानपुर के शिक्षक शिव कुमार पाठक को सरकार ने नौकरी से बर्खास्त कर दिया है। यदि सरकार अपने पहले ही कदम में इस तरह की कार्यवाही कर रही है तो आगे वह स्कूलों की स्थिति को सुधारने के लिए क्या कदम उठायेगी इसमें संदेह उत्पन्न होता है।
इस फैसले के बाद से समूचे देश से अलग अलग प्रतिक्रिया भी आ रही है- जहाँ अधिकतम ने इस फैसले का स्वागत किया है ,वहीं नौकरशाह कह रहे हैं कि अपने बच्चों को कौन से स्कूल में पढ़ाना है यह व्यक्ति विशेष का निजी मामला है, किसी विशेष स्कूल में पढ़ाने के लिए उन्हें बाध्य नहीं किया जा सकता।  जो भी हो कोर्ट के फैसले के बाद सरकारी स्कूलों के हालात बदलने चाहिए। जब तक सरकारी स्कूलों को अन्य व्यावसायिक शिक्षा संगठनों की तरह सुविधा सम्पन्न और गुणवत्ता से पूर्ण नहीं किया जाएगा , तब तक शिक्षा में अमीरी और गरीबी की खाई को पाटना असंभव है। यदि स्कूली शिक्षा से इस खाई को पाटने का प्रयास आरंभ किया जाएगा तो आगे जाकर और भी बहुत सी खाइयों को पाटा जा सकता है।
ये खाइयाँ कौन -सी हैं, इसका कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया है। सरकारी स्कूलों की सबसे बड़ी खामी है, संसाधनों का अभाव। जहाँ संसाधन हैं, उनका सही उपयोग नहीं होता। शिक्षक कम और बच्चों की भीड़, जिसको सन्तुलित करना ज़रूरी है। शिक्षकों के बहुत सारे पद खाली पड़े रहते हैं । अनिश्चित भविष्य से चिन्तित ठेके के शिक्षकों का शोषण बदस्तूर जारी है। स्थायी शिक्षक में ऐसे बहुत से मिल जाएँगे जो समय पर विद्यालय नहीं पहुँचते। दूर-दराज़ के क्षेत्रों में कई-कई दिन तक गायब रहना भी एक बीमारी है। ऐसे सेवाकालीन प्रशिक्षणों का भी अभाव है, जो उनको नवीनतम जानकारी लैस रख सकें। घिसी-पिटी प्रशिक्षण -विधियों से आज का शिक्षण सम्भव नहीं। अधिकारी भी निरीक्षण के नाम पर खानापूरी ही ज़्यादा करते हैं। तरह-तरह की रिपोर्ट और विवरण से कागजों का पेट भरने में शिक्षकों की शक्ति नष्ट हो जाती है। उच्च अधिकारी सही समय पर वेतन पाजाते हैं; लेकिन शिक्षक समुदाय को कई-कई महीने बाद वेतन के दर्शन होते हैं। सरकारी स्कूल एक जंग खाई मशीन है, जिसकी तरफ़ हमारे योजनाकारों ने ध्यान ही नहीं दिया है। ईमानदारी से प्रयास करने पर ही सुधार हो सकता है। सरकारी स्कूलों में कॉन्वेण्ट  और प्राइवेट स्कूलों से अधिक योग्य शिक्षक हैं; लेकिन इनका सदुपयोग नहीं किया गया।मध्याह्न भोजन से लेकर जनगणना आदि तक के शिक्षणेतर कार्यों में शिक्षक खप जा रहे हैं।शिक्षा की जड़ खोखली इसलिए की जा रही है; ताकि आम आदमी अच्छी शिक्षा से महरूम रहे। शिक्षा की दूकाने चलाने वाले मालामाल होते रहें और देश की बौद्धिक सम्पदा व्यर्थ के कामों में गर्क हो जाए।
 शिक्षा की समस्या को गम्भीरता से लेना होगा, तभी साधारण जन के साथ न्याय हो सकता है।                              

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