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Mar 23, 2012

...चला बिहारी ब्लॉगर बनने

उदंती के पिछले अंक से हमने एक नयी श्रृंखला की शुरूआत की है जिसके अंतर्गत निरंतर हम किसी एक ब्लॉग के बारे में आपको जानकारी दे रहे हैं। इस 'एकल ब्लॉग चर्चा' में ब्लॉग की शुरुआत से ले कर अब तक की सभी पोस्टों के आधार पर उस ब्लॉग और ब्लॉगर का परिचय रश्मि प्रभा जी अपने ही अंदाज दे रही हैं। आशा है आपको हमारा यह प्रयास पसंद आएगा। तो आज मिलिए... सलिल वर्मा के ब्लॉग http://chalaabihari.blogspot.com से। - संपादक

कई ब्लॉगों पर देखा था एक नाम- चला बिहारी ब्लॉगर बनने। मुझसे पहचान नहीं थी, न मैं कभी उनके दरवाजे गई, न उन्होंने मेरा घर देखा। लड़ाई नहीं, कोई अनबन नहीं, बस 'जतरा' नहीं बना तो एक दूसरे के ब्लॉग की यात्रा नहीं हुई। पहचान हुई इसी बुलेटिन पर और जब पहचान हुई तो पलक झपकते मैं दीदी हो गई और नाम भी जान लिया 'सलिल वर्मा' - एक तो अपना बिहार, उस पर से पटना, पहुंची इनके ब्लॉग पर और मन खुश! अरे बिहारी भाई ब्लॉगर क्या बनेंगे, अपनी भाषा के साथ अटूट रिश्ता कायम रखते हुए इन्होंने बताया- 'ये ब्लॉगर बिहारी है यानि बहुत दम है इस ब्लॉग में...'। मैं तो मान ही गई... आपमें से कितनों ने माना होगा और जो रह गए हैं- उनसे कहना है कि 'आइये आपको हम अपने बिहार की सैर कराएँ। अपनापन, जैसे को तैसा, वर्चस्व, ...सब मिलेगा हमारे बिहार में...'
21 अप्रैल 2010 से सलिल जी यानि बिहारी बाबू ने ब्लॉग http://chalaabihari.blogspot.com लिखना शुरू किया, दोस्तों के कहने पर, सुनिए इनकी ही कलम से -
'हमरा दु चार ठो दोस्त सब मिलकर, हमको फँसा दिया। बोला तुमरा बात सब बुड़बक जैसा लगता है, लेकिन कभी- कभी बहुत निमन बात भी तुम कर जाते हो। काहे नहीं ब्लोग लिखते हो तुम।' हम बोले, 'पगला गए हो का! ई सब बड़ा लोग का काम है। देखते नहीं हो, आजकल बच्चन भैया कोनो बात मुँह से नहीं बोलते हैं। सब बतवे ब्लोग में लिखते हैं। शाहरुख खान, आमिर खान जैसा इस्टार लोग ब्लोग लिखता है। ब्लोग का इस्पेलिंग देखो, उसमें भी क्च द्यशद्द है, माने बड़ा लोग। हम ठहरे देहाती भुच्च।'
ब्लॉग क्या बना शुरू हो गए बिहारी बाबू खरी- खरी बातों की धार में कलम की पतवार लेकर- सच्ची, इसे नहीं पढ़ा तो एक सच से आप महरूम रह जायेंगे... ब्लॉग पढ़ते हुए बार बार कहने का दिल करता है- 'मान गए आपकी पारखी नजर और बिहारी सुपर को'
सच पूछिए तो मेरी समझ से बाहर है कि किसे भूलूं , किसे याद रखूं । ...अब तक अपने बच्चों को, उनके मित्रों को मैं इस ब्लॉग से बहुत कुछ सुना चुकी हूँ- हास्य, व्यंग्य, सीख ...सब कुछ है इनकी लेखनी में! लिंक पर तो आप जायेंगे ही, जाने से पहले इस आलेख को, यूँ कहें संस्मरण को यहीं पढ़ लीजिये वरना मुझे लगेगा कि मैंने अपने बिहारी भाई के साथ न्याय नहीं किया- माना कि आप पढ़ चुके होंगे, परन्तु एक बार और ताजा होने में क्या जाता है ? तो लीजिये पढि़ए-
गुल्लक
अपने सोसाईटी में कोनो बच्चा का जनमदिन था, तो उसके लिये गिफ्ट खरीदने बाजार गए अपनी बेटी के साथ। दोकान में एतना खिलौना देखकर माथा घूम जाता है। एगो पसंद आया तो बेटी बोली, 'डैडी! ये तो पाँच साल से ज्यादा उम्र के बच्चों के लिये है। सक्षम तो अभी तीन साल का है।' हमको समझे में नहीं आया ई बात कि खिलौना खिलौना होता है अऊर बच्चा बच्चा होता है, अब तीन साल का अऊर पाँच साल का बच्चा में हमको तो कोनो फरक नहीं बुझाता है। ई भी जाने दीजिये, खिलौना के डिब्बा के ऊपर लिखा हुआ है 'खतरा चोकिंग हाजार्ड्स!' भाई जब एतने खतरा है तो बेच काहे रहे हो। खिलौना न हो गया, दवाई हो गया कि नोटिस लगा दिये हैं 'बच्चों के पहुँच से दूर रखिये।' अब घर में अगर अलग- अलग उमर का बच्चा हो, तो तीन साल वाला बच्चा को पाँच साल वाला के खिलौना से दूर रखना होगा! कमाल है!!
हम लोग का टाईम अच्छा था। खिलौना, खिलौना होता था। खिलौना में उमर का कोनो भेद नहीं होता था। बस एक्के भेद था कि लड़का अऊर लड़की का खिलौना अलग- अलग होता था। लड़की लोग मट्टी का बर्तन चौका के खिलौना से खेलती थी। चाहे गुडिय़ा गुड्डा से, जो माँ, फुआ, मौसी, चाची पुराना कपड़ा से बना देती थीं। उधर लड़का लोग के पास गंगा किनारे लगने वाला सावनी मेला से लाया हुआ लकड़ी का गाड़ी, ट्रक, मट्टी का बना हुआ सीटी, लट्टू, चरखी। सबसे अच्छा बात ई था कि खेलता सब लोग मिलकर था। अऊर कभी चोकिंग हैजार्ड्स का चेतावनी लिखा हुआ नहीं देखे।
ई सब खिलौना के बीच में एगो अऊर चीज था। जिसको खिलौना नहीं कह सकते हैं, लेकिन बचपन से अलग भी नहीं कर सकते हैं। लड़का लड़की का भेद के बिना ई दूनो में पाया जाता था। बस ई समझिये कि होस सम्भालने के साथ ई खिलौना बच्चा लोग से जुट जाता था। पकाया हुआ मट्टी से बना, एगो अण्डाकार खोखला बर्तन जिसमें बस एगो छोटा सा पतला छेद बना होता था। हई देखिये, एक्साईटमेण्ट में हम ई बताना भी भुला गये कि उसको गुल्लक बोलते हैं।
करीब- करीब हर बच्चा के पास गुल्लक होता था। कमाल का चीज होता था ई गुल्लक भी। इसमें बना हुआ छेद से खुदरा पईसा इसमें डाल दिया जाता था, जो आसानी से निकलता नहीं था। जब भर जाता, तो इसको फोड़कर जमा पईसा निकाल लिया जाता था। बचपन से फिजूलखर्ची रोकने, छोटा- छोटा बचत करने, जरूरत के समय उस पईसा से माँ बाप का मदद करना अऊर ई जमा पूँजी से कोई बहुत जरूरी काम करने, छोटे बचत से बड़ा सपना पूरा करने, एही गुल्लक के माध्यम से सीख जाता था। अऊर ओही बचत का कमाल है कि आज भी हम अपना याद के गुल्लक से ई सब संसमरन निकालकर आपको सुना पा रहे हैं।
इस्कूल में पॉकेट खर्च के नाम पर तो हम लोग को पाँच पईसा से सुरू होकर आठ आना तक मिलता था। बीच में दस, बीस, चार आना भी आता था। अब इस्कूल में बेकार का चूरन, फुचका, चाट खाने से अच्छा एही था कि ऊ पईसा गुल्लक में जमा कर दें। पिता जी के पॉकेट में जब रेजगारी बजने लगता, तो ऊ निकालकर हम लोग को दे देते थे, गुल्लक में डालने के लिये। त एही सब रास्ता से पईसा चलकर गुल्लक के अंदर पहुँचता था। ऊ जमा पूँजी में केतना इजाफा हो गया, इसका पता उसका आवाज से लगता था। अधजल गगरी के तरह, कम पूँजी वाला गुल्लक जादा आवाज करता था अऊर भरा हुआ रहता था चुपचाप, सांत। मगर प्रकीर्ती का नियम देखिये, फल से लदा हुआ पेड़ पर जईसे सबसे जादा पत्थर फेंका जाता है, ओईसहिं भरा हुआ सांत गुल्लक सबसे पहिले कुरबान होता था।
अब गुल्लक के जगह पिग्गी बैंक आ गया है। उसमें सिक्का के जगह नोट डाला जाता है। सिक्का तो खतम हो गया धीरे धीरे। पाँच, दस, बीस पईसा तो इतिहास का बात हो गया। बैंकों में चेक काटते समय पईसा नदारद, फोन का बिल, अखबार का बिल, रासन का बिल, तरकारी वाला का बिल सब में से पईसा गायब। लोग आजकल नोट कमाने के फेर में लगा हुआ है, पईसा जमा करना बहुत टाईम टेकिंग जॉब है। इसीलिये उनका याद का गुल्लक में भी कोई कीमती सिक्का नहीं मिलता है।
अब तो चवन्नी भी गायब हो गया। अब ऊ चवन्नी के साथ जुड़ा हुआ चवन्नी छाप आसिक, या महबूबा का चवनिया मुस्कान कहाँ जाएगा। बचपन से सुन रहे हैं किसोर दा का गाना 'पाँच रुपईया बारा आना' ...इसका मतलब किसको समझा पाईयेगा। अऊर गुरु देव गुलजार साहब का नज़्म तो साहित्य से इतिहास हो जाएगा:
एक दफा वो याद है तुमको
बिन बत्ती जब साइकिल का चालान हुआ था
हमने कैसे भूखे प्यासे बेचारों सी ऐक्टिंग की थी
हवलदार ने उल्टा एक अठन्नी देकर भेज दिया था।
एक चवन्नी मेरी थी, वो भिजवा दो।
बेटी अऊर बेटा का परीच्छा हो, चाहे किसी का तबियत खराब हो, हमरी माता जी भगवान से बतिया रही हैं कि अच्छा नम्बर से पास हो गया या तबियत ठीक हो गया तो सवा रुपया का परसाद चढ़ाएँगे। सोचते हैं माता जी को बता दें कि अब भगवान का फीस बढ़ा दीजिये अऊर अपना प्रार्थना में सुधार कर लीजिये।
2010 से धमाल मचाते मचाते सलिल जी 2012 में प्रवेश कर चुके हैं, लीजिये 2012 का लिंक-
http://chalaabihari.blogspot.com/2012/01/blog-post_10.html कन्फ्यूजन ने हमको एहसास दिया कि हम एक अच्छे ब्लॉग को मिस किये... आप न मिस करें तो हम हाजिर हो गए इस ब्लॉग के साथ ...तो अब- आइये मेहरबां, शौक से पढि़ए इस ब्लॉग को और बताइए खुले मन से कि सच बोले न हम... सच लगे तो हाँ कहना, झूठ लगे तो ना कहना, हाँ कि ना?
प्रस्तुति- रश्मि प्रभा, संपर्क: निको एन एक्स, फ्लैट नम्बर- 42, दत्त मंदिर, विमान नगर, पुणे- 14, मो. 09371022446
http://lifeteacheseverything.blogspot.in

5 comments:

दीपक कुल्लुवी की कलम से said...

WONDERFUL....

दीपक कुल्लुवी की कलम से said...

WONDERFUL.....

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

ए दीदी, कभी सोचबो की हैं कि एतना दुलार दीजिएगा त हम रक्खेंगे कहाँ... सरधा से आँख बंद करते हैं त लोर बनकर बरसने लगता है... एगो बात त हम कभी सायद बतइबो नहीं किये आप को.. आप हमको नहीं जानती थीं, मगर हम जानते थे... एक बार एगो फंक्सन में हम गए थे.. चुपचाप कोना में बइठे हुए थे.. लोग बाग रह-रह कर इस्टेज के तरफ देखता था अउर फुसफुसाता था लगता है रश्मिप्रभा जी आ गई हैं... एतना बार ई नाम हम सुने कि लगा जइसे अमिताभ बच्चन के आने का इंतज़ार हो रहा है..
खैर, जब जतरा बना तब्बे मिले कुम्भ के मेला में अलग हुए दुन्नो भाई-बहिन!!
आपका लिखला के बाद बुझाता है कि हम "अति-साधारण" आदमी से "असाधारण" आदमी हो गए हैं!!
चरण-स्पर्स!!

ऋता शेखर 'मधु' said...

वाह दी! बहुत अच्छे से परिचय दिया है|
जहाँ भी पटना और बिहार की बात आती है मैं टिप्पणी दिए बिना नहीं रह पाती.सलिल जी ने अपने ब्लॉग में पुष्पा आर्याणी जी का जिक्र किया है .मेंने उनकी सिस्टर किरण आर्याणी जी से फ़िज़िक्स पढ़ा है.
सलिल जी के ब्लॉग को फ़ौलो करती हूँ इसलिए सारे पोस्ट पढ़ पाती हूँ.
दी,आपकी कलम से परिचय पढ़कर अच्छा लगा|

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सलिल जी के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा .... आपने बहुत सुंदर ढंग से उनसे परिचय करवाया .....