- अविनाश वाचस्पति
चुनाव और होली। नेता भर रहे हैं वोटों से झोली। वाह जनाब वाह। हाथी ढक दिए गए हैं। परदे कस दिए गए हैं। फेंकने वाले तो परदे लगने पर भी तानों के रंग फेंक रहे थे। तानों के रंग कौन से गुब्बारे में भरे जाते हैं और कौन सी पिचकारियों से फेंके जाते हैं। इस बारे में चाइना वाले भी नहीं बतला पा रहे हैं। इस पर शोध कार्य जारी हैं, कुछ रोषपूर्वक कर रहे हैं और अधिकतर धौंस में आकर कर रहे हैं। बच्चे बचपने के दवाब में करके खुश हैं और मजा मार रहे हैं। इस बार होली हाई टेक होकर आई है। हाई टेक और चुनावी भी। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें कितने ही तरह के रंग उगल रही हैं। चुनावों से पहले ही उनका अलग तरह के रंग खौफ छाया हुआ है। वोटर के मन में शंका है कि वोट राम को दूंगा तो कहीं मशीन उसे श्याम के खाते फारवर्ड तो नहीं कर देगी, इसकी क्या गारंटी है। जब इस जमाने में वारंटी किसी चीज की नहीं है। गारंटियों वाले जमाने तो ईद का चांद हो गए हैं। गारंटी- वारंटी की बात भर कर लो तो मंगल पर दंगल हो जाता है। जब होली के रंग ही गारंटिड नहीं रहे हैं कि आप लाल रंग डालेंगे तो लाल ही करेंगे, हो सकता है वो थोबड़े को हरा रंग दें। इसे होली का पर्यावरण कहा जा सकता है। नतीजे काले, लाल या स्याह सफेद भी आएंगे। वे भी तो होली मनाएंगे। आखिर चुनावी नतीजों के बीच में होली का आ धमकना, अकारण ही तो नहीं है। गुब्बारे का फूटना अब स्टिकी रंगीय बम का कमाल है। जो अपने आप में अपनी मिसाल है।
कभी आपने एक मेंढक को दूसरे मेंढक को गुब्बारा मारते देखा है, देखा तो आपने एक विजयी नेता को पराजित नेता को गुब्बारा मारते भी नहीं होगा। चाहे वे ऊपर से हार जीत जाएं पर उनके भीतर विजयी भाव सदा समाया रहता है। उस समाने में रंग काले नहीं होते, वे रंगीन होते हैं। जो सबको मुग्ध करते हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि नीला रंग करेंसी नोटों की नीली छटा बिखेर रहा है, लाल रंग भी करेंसी नोटों की लालिमा निखार रहा है और हरा रंग तो हरियाली सदा बिखेरने में सदा से निपुण ही है। सबने मिलकर सब तरफ सिर्फ धन और धन की बरसात ही कर रखी है और इसमें नहाने को हर कोई बेताब है। जब धन लबालब दिखलाई दे रहा हो तो फिर कोई भी कहीं ओर क्यों जाएगा। सब एक बार होली बिना खेले तो काम चला लेंगे परंतु नोटों की झोली भरे बिना उनके मन और तन को चैन नहीं मिलेगा। गुझिया और कांजी के बिना भी एक बार होली मना लेंगे परंतु धन पाने के बिना वासना का ज्वार कैसे शांत होगा।
अब तो कम्प्यूटर का जमाना है। आप कौन से रंग की होली खेलना चाहते हैं। बस एक बार जाहिर करें, आपका मोबाइल वही रंग उगलने लगेगा. आप घबरा रहे हैं कि सामने वाले के ऊपर रंग डाला तो उसका मोबाइल भीग जाएगा, लेकिन वही मोबाइल आपको ऊपर रंग उगलने लगता है। जिसका बटन दबाए बिना सिर्फ सोचने भर से ही सामने वाले के चेहरे की रंगीन फेसबुक बन जाती है। आप उस मोबाइल से संदेश भेजते हैं, तो उसमें से बतौर संदेश रंग भरे गुब्बारे निकलते हैं और पूछते हैं, बोल मुझे भेजने वाले, मेरे स्वामी, मेरे बिल को भुगतने वाले, जल्दी बतला मुझे, किसके फेस को रंगीन करना है, या रंगहीन करना है। मैं दोनों काम करने में भली- भांति सक्षम हूं। आजकल जिन्न दीये को रगडऩे से नहीं, मोबाइल के बटन को क्लिकाने से, निकलता है। होली का यह हाईटेकीय स्वरूप मोबाइल और कम्प्यूटर के मेल से ही संभव हो पाया है। होली पर रंग इतने नहीं होते हैं, जितनी उनकी उमंगें हसीन होती हैं। भंग की तरंग उतना असर नहीं करती जितना असर कंप्यूटर की वायरस की जंग करती है। उमंगों में बसी तरंगें उन्हें सदा युवा रखती हैं। उमंगों पर बुढ़ापे का असर नहीं होता है। जिस तरह काले रंग पर कोई दूसरा रंग असर नहीं करता है, बिलकुल उसी प्रकार उमंगों में सदा जवानी उफनती रहती है। होली हो या न हो, उमंग शरीर के प्रत्येक अंग से फूट पड़ती है किसी गीले रंग भरे गुब्बारे की तरह और आपको मस्ती से सराबोर कर देती है। इन उमंगों को लूटने के लिए सभी तैयार रहते हैं। आप भी तैयार हैं न सभी के अपने अपने रंग हैं। अलग- अलग स्टाइल हैं। आप कितनी ही होली खेल खिला लें, अगर आपने साली को रंग नहीं लगाया तो काहे की होली। वैसे महंगाई और भ्रष्टाचार मिलकर खूब भर रहे हैं झोली। होली खेल खिला रहे हैं। महंगाई इतरा रही है। सबने जबकि उसका चौखटा काला कर डाला है पर उससे बच न सका कोई साली या साला है। महंगाई अब पूरे वर्ष होली खेलती है, कभी प्याज से, कभी आलू से, कभी टमाटर से, आजकल नींबू से खेल रही है।
महंगाई जिससे भी होली खेले पर निचोड़ी जनता जाती है। वो होली खेलने में मगन रहती है। पर अपने ऊपर रंगों की फुहार से वो इतना ओत- प्रोत हो जाती है कि चारों तरफ से लिप- पुत जाती है। कहीं से कुछ नजर नहीं आता है। अंधाता नहीं है पर खुली आंखें भी मुंदी रहती हैं। चैन पल भर नहीं लेने देती है महंगाई, न होली पर, न दिवाली पर दिवाली की होली और होली की दिवाली ऐसे ही मनती है और जनता मतवाली रहती है और उसका दिवाला निकल जाता है। वह ईद के इंतजार में लगन लगा लेती है। सभी को ऐसे उत्सव ही भाते हैं। सभी रंगाते हैं और साथ में होली के फिल्मी गीत गुनगुनाते हैं। कहीं भांग सॉन्ग बनकर ओठों से फूटती है। होली अभी दरवाजे पर है। माहौल बन रहा है, मैं भी सोच ही रहा हूं कैसे इस बार हाईटेक होली का बेनिफिट उठाऊं। फेसबुकिया फ्रेंड्स को रंगों से कैसे नहलाऊं। कोई आइडिया हो तो बताना, मैसेज टाइप कर सेंड का बटन दबाना और अन्ना हमारे हैं परेशान, इस बार उनकी होली और तबीयत दोनों ढीली ढीली हैं। भ्रष्टाचार का रंग लाल गुलाल है, देखकर सारा देश अब हैरान है लेकिन यह सब हाईटेकीय होली का कमाल धमाल है। बच्चा देश के गुब्बारे फोड़ कर बन रहा नौनिहाल है। फेसबुक को लेकर मच रहा बवाल है।
संपर्क- साहित्यकार सदन, 195 पहली मंजिल, 195 सन्त नगर, नई दिल्ली 110065 मोबाइल 9718750843,
Email- nukkadh@gmail.com
इस बार होली हाई टेक होकर आई है। हाई टेक और चुनावी भी। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें कितने ही तरह के रंग उगल रही हैं। चुनावों से पहले ही उनका अलग तरह के रंग खौफ छाया हुआ है। वोटर के मन में शंका है कि वोट राम को दूंगा तो कहीं मशीन उसे श्याम के खाते फारवर्ड तो नहीं कर देगी, इसकी क्या गारंटी है।
कभी आपने एक मेंढक को दूसरे मेंढक को गुब्बारा मारते देखा है, देखा तो आपने एक विजयी नेता को पराजित नेता को गुब्बारा मारते भी नहीं होगा। चाहे वे ऊपर से हार जीत जाएं पर उनके भीतर विजयी भाव सदा समाया रहता है। उस समाने में रंग काले नहीं होते, वे रंगीन होते हैं। जो सबको मुग्ध करते हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि नीला रंग करेंसी नोटों की नीली छटा बिखेर रहा है, लाल रंग भी करेंसी नोटों की लालिमा निखार रहा है और हरा रंग तो हरियाली सदा बिखेरने में सदा से निपुण ही है। सबने मिलकर सब तरफ सिर्फ धन और धन की बरसात ही कर रखी है और इसमें नहाने को हर कोई बेताब है। जब धन लबालब दिखलाई दे रहा हो तो फिर कोई भी कहीं ओर क्यों जाएगा। सब एक बार होली बिना खेले तो काम चला लेंगे परंतु नोटों की झोली भरे बिना उनके मन और तन को चैन नहीं मिलेगा। गुझिया और कांजी के बिना भी एक बार होली मना लेंगे परंतु धन पाने के बिना वासना का ज्वार कैसे शांत होगा।
अब तो कम्प्यूटर का जमाना है। आप कौन से रंग की होली खेलना चाहते हैं। बस एक बार जाहिर करें, आपका मोबाइल वही रंग उगलने लगेगा. आप घबरा रहे हैं कि सामने वाले के ऊपर रंग डाला तो उसका मोबाइल भीग जाएगा, लेकिन वही मोबाइल आपको ऊपर रंग उगलने लगता है। जिसका बटन दबाए बिना सिर्फ सोचने भर से ही सामने वाले के चेहरे की रंगीन फेसबुक बन जाती है। आप उस मोबाइल से संदेश भेजते हैं, तो उसमें से बतौर संदेश रंग भरे गुब्बारे निकलते हैं और पूछते हैं, बोल मुझे भेजने वाले, मेरे स्वामी, मेरे बिल को भुगतने वाले, जल्दी बतला मुझे, किसके फेस को रंगीन करना है, या रंगहीन करना है। मैं दोनों काम करने में भली- भांति सक्षम हूं। आजकल जिन्न दीये को रगडऩे से नहीं, मोबाइल के बटन को क्लिकाने से, निकलता है। होली का यह हाईटेकीय स्वरूप मोबाइल और कम्प्यूटर के मेल से ही संभव हो पाया है। होली पर रंग इतने नहीं होते हैं, जितनी उनकी उमंगें हसीन होती हैं। भंग की तरंग उतना असर नहीं करती जितना असर कंप्यूटर की वायरस की जंग करती है। उमंगों में बसी तरंगें उन्हें सदा युवा रखती हैं। उमंगों पर बुढ़ापे का असर नहीं होता है। जिस तरह काले रंग पर कोई दूसरा रंग असर नहीं करता है, बिलकुल उसी प्रकार उमंगों में सदा जवानी उफनती रहती है। होली हो या न हो, उमंग शरीर के प्रत्येक अंग से फूट पड़ती है किसी गीले रंग भरे गुब्बारे की तरह और आपको मस्ती से सराबोर कर देती है। इन उमंगों को लूटने के लिए सभी तैयार रहते हैं। आप भी तैयार हैं न सभी के अपने अपने रंग हैं। अलग- अलग स्टाइल हैं। आप कितनी ही होली खेल खिला लें, अगर आपने साली को रंग नहीं लगाया तो काहे की होली। वैसे महंगाई और भ्रष्टाचार मिलकर खूब भर रहे हैं झोली। होली खेल खिला रहे हैं। महंगाई इतरा रही है। सबने जबकि उसका चौखटा काला कर डाला है पर उससे बच न सका कोई साली या साला है। महंगाई अब पूरे वर्ष होली खेलती है, कभी प्याज से, कभी आलू से, कभी टमाटर से, आजकल नींबू से खेल रही है।
महंगाई जिससे भी होली खेले पर निचोड़ी जनता जाती है। वो होली खेलने में मगन रहती है। पर अपने ऊपर रंगों की फुहार से वो इतना ओत- प्रोत हो जाती है कि चारों तरफ से लिप- पुत जाती है। कहीं से कुछ नजर नहीं आता है। अंधाता नहीं है पर खुली आंखें भी मुंदी रहती हैं। चैन पल भर नहीं लेने देती है महंगाई, न होली पर, न दिवाली पर दिवाली की होली और होली की दिवाली ऐसे ही मनती है और जनता मतवाली रहती है और उसका दिवाला निकल जाता है। वह ईद के इंतजार में लगन लगा लेती है। सभी को ऐसे उत्सव ही भाते हैं। सभी रंगाते हैं और साथ में होली के फिल्मी गीत गुनगुनाते हैं। कहीं भांग सॉन्ग बनकर ओठों से फूटती है। होली अभी दरवाजे पर है। माहौल बन रहा है, मैं भी सोच ही रहा हूं कैसे इस बार हाईटेक होली का बेनिफिट उठाऊं। फेसबुकिया फ्रेंड्स को रंगों से कैसे नहलाऊं। कोई आइडिया हो तो बताना, मैसेज टाइप कर सेंड का बटन दबाना और अन्ना हमारे हैं परेशान, इस बार उनकी होली और तबीयत दोनों ढीली ढीली हैं। भ्रष्टाचार का रंग लाल गुलाल है, देखकर सारा देश अब हैरान है लेकिन यह सब हाईटेकीय होली का कमाल धमाल है। बच्चा देश के गुब्बारे फोड़ कर बन रहा नौनिहाल है। फेसबुक को लेकर मच रहा बवाल है।
संपर्क- साहित्यकार सदन, 195 पहली मंजिल, 195 सन्त नगर, नई दिल्ली 110065 मोबाइल 9718750843,
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