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Oct 20, 2014

बालकथा

दीए की सीख
 - प्रियंका गुप्ता
रामनगर के चन्दनपुरा मोहल्ले में एक अमीर परिवार का इकलौता बेटा था, दीपक। पिता एक सरकारी बैंक में अफसर थे और माँ एक विद्यालय की प्रधानाचार्या। इकलौता होने के कारण उसका लाड़-प्यार कुछ अधिक ही था, जिसकी वजह से न केवल वह बेहद हठी हो गया था, बल्कि हद दर्जे का खुरा$फाती भी हो गया था। कोई भी त्योहार आता, उसकी हर $फरमाइश पूरी होनी चाहिए यदि त्योहार दीपावली का हो तो कहना ही क्या...।
और सच में दीपावली बिल्कुल सिर पर ही तो थी। उसके स्कूल की छुट्टियाँ हो चुकी थी सो अपने माता-पिता के साथ जाकर वह खूब ढेर सारे पटाखे ले आया। पटाखों में अनार, चकरघिन्नी, फुलझडिय़ाँ वगैरह तो थी ही, पर सबसे ज़्यादा जो था, वह था बड़े वाले बमों के कई डिब्बे और दस हजार बमों की कई लडिय़ाँ...।
देखते-देखते दीपावली का दिन भी आ गया। शाम को पूजन के बाद माँ मेहमानो आदि के स्वागत में जुट गई और दीपक बाहर निकल गया पटाखे छुड़ाने के लिए।
कुछ खुशी और कुछ दंभ में दीपक पटाखों से भरा झोला पूरा ही उठा कर बाहर ले गया। माँ कहती ही रह गई कि बेटा आराम से, एक-एक कर के पटाखे ले जाओ पर अपनी मर्जी और जि़द के आगे दीपक ने उनकी एक न सुनी। इससे पहले कि माँ उसकी इस हरकत के चलते गुस्से में आती, पिता भी उसके पीछे बाहर आ गए। दीपक की तो आज बस इतनी सी चाह थी कि पूरा मोहल्ला देखे कि उसके पास कितने ढेर सारे पटाखे हैं...और सच में, जब उसके पिता ने एक के बाद एक पटाखे छुड़ाने शुरू किए तो मोहल्ले के सारे बच्चे आसपास जमा होने लगे। यह देख कर दीपक फूल के कुप्पा हो गया। वह घमण्ड में पूरा पैकेट फुलझड़ी एक साथ लेकर छुड़ाने लगा । पिता ने टोका तो दीपक ने तपाक से मना कर दिया। त्योहार के वक़्त वह कोई क्लेश न कर दे, इसलिए वे खामोश हो गए।
दीपक फुलझड़ी, मेहताब, हंटर आदि जला कर नचाता और अपनी मस्ती में डूबा, $गैर उसके बुझने का इंतज़ार किए, उसे दूर फेंक दूसरी जला लेता। अपनी इस दंभ भरी मस्ती में वह यह भी भूल गया कि पटाखों से भरा झोला भी वहीं रखा है।
अंदर माँ खाना लगा दोनों को बुलाने बाहर आ ही रही थी कि अचानक एक जोर का धमाका हुआ और फिर एक के बाद एक होते धमाकों से पूरा मोहल्ला काँप उठा। घबरा कर लोग अपने-अपने घरों से बाहर आ गए। पहले तो किसी को समझ ही नहीं आया कि हो क्या रहा है, पर जब समझ आया तो अफ़रा-तफ़री मच गई। पटाखा छुड़ाते दीपक को मानो लकवा मार गया। दर-असल अपनी मस्ती में डूबे दीपक ने कब जलता हुआ हंटर पटाखों वाले झोले पर फेंक दिया था, उसे ध्यान ही नहीं। वह तो पटाखे छुड़ाने के चक्कर में थोड़ा दूर भी हट गया था, पर पापा तो वहीं खड़े थे। विस्फोटों की चपेट में आए पापा बुरी तरह तड़प रहे थे। कुछ हिम्मती लोगों ने दसियों बाल्टी पानी डाल कर धमाके शान्त किए और फिर आनन-फानन में पापा को अस्पताल पहुँचाया गया। पापा के साथ एम्बुलेंस में चली गई मम्मी को हड़बड़ाहट में दीपक को अपने साथ ले जाने का ख्याल ही नहीं आया। अफरा-तफरी थमने के बाद जब शर्मा आँटी ने उसे वहीं एक कोने में दुबक कर रोते पाया तो उन्होंने उसे अपने घर ले जाना चाहा पर दीपक ने मना कर दिया।
घर में एकदम सन्नाटा पसरा था। मोहल्ले वालों ने भी सारे पटाखे बंद कर दिए थे। चारो तर$फ जैसे एक मातमी $खामोशी फैली थी। पूरा घर जगमग कर रहा था पर दीपक के आँसुओं ने सब धुँधला दिया था। यह क्या हो गया? उसकी शरारत, जि़द व दंभ ने उसके अपने पिता की जान ही ख़तरे में डाल दी?
भगवान के आगे बैठ कर रोते हुए वह लगातार पिता की जि़न्दगी की भीख माँग रहा था। दुआ करते-करते कब उसकी आँख लग गई, उसे पता ही नहीं चला। सहसा उसे लगा मानो सामने जलते हुए उस बड़े से दिए ने उससे कुछ कहा है, इतने दु:खी क्यों हो दीपक...? तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारा नाम दीपक तो यही सोच कर रखा होगा कि तुम अपने नाम को सार्थक करते हुए सब के जीवन में खुशी का प्रकाश बिखेरोगे...। पर तुम तो वह दीपक बन गए जिससे अपने ही घर में आग लगती है। किन्तु $गलती तुम्हारे माता-पिता की भी है। तुम्हें रोकने-टोकने से उपजे क्लेश से बचने के लिए उन्होंने तुम्हारी हर जायज़-नाजायज़ बात मानी जिसका परिणाम उन्हें आज भुगतना पड़ रहा है।
सच कहते हो...मैं ही बहुत जि़द्दी हूँ, दीपक नींद में ही बड़बड़ाया, पर ग़लती उनकी नहीं, मेरी है। मम्मी-पापा तो मेरे प्यार में मेरी बात मानते रहे ताकि मुझे उनके किसी इंकार से कोई दु:ख न पहुँचे, पर मैने ही उनके इस प्यार का ग़लत फायदा उठाया।
चलो, देर आयद...दुरुस्त आयद...। अब आईन्दा अपनी बात याद रखना और सही मायनो में दीपक बन कर दिखाना। कह कर दिए की लौ गायब हो गई तो हड़बड़ा कर दीपक भी उठ बैठा।
सुबह हो चुकी थी। जल्दी से नहा-धोकर दीपक शर्मा अंकल के साथ अस्पताल पहुँचा तो यह जान कर उसे चैन मिला कि पापा घायल ज़रूर थे पर उनकी जान को कोई $खतरा नहीं था।
इससे पहले कि माँ उससे कुछ कह पाती, वह उनसे लिपट गया, मुझे माफ़ कर दो मम्मी...। मैं वायदा करता हूँ कि आईन्दा मैं एक बहुत ही अच्छा इंसान बन कर रहूँगा और अपने नाम के सच्चे अर्थ को सार्थक करूँगा...।
माँ दीपक की बात पूरी तौर से समझी या नहीं, यह तो उसे नहीं पता पर उसे इस बात का संतोष जरूर था कि वह दिए की बात पूरी तरह समझ चुका था।
सम्पर्क: एमआईजी-292, कैलास विहार, आवास विकास योजना संख्या- एक, कल्याणपुर, कानपुर- 208017,    Email- priyanka.gupta.knpr@gmail.com


2 comments:

Anita Lalit (अनिता ललित ) said...

बहुत अच्छी प्रेरणा देने वाली कहानी... प्रियंका जी।

~सादर
अनिता ललित

ऋता शेखर 'मधु' said...

बहुत ही सीख भरी कहानी...बधाई लेखिका साहिबा को !