वैश्विक संस्कृति की समन्वयक है
दीपावली
- राजेश कश्यप
दीपावली पर्व हमारा सबसे प्राचीन धार्मिक पर्व है। यह प्रकाश पर्व प्रतिवर्ष
कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। देश-विदेश में यह बड़ी श्रद्धा, विश्वास एवं समर्पित
भावना के साथ मनाया जाता है। इस पर्व के साथ अनेक धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं। मुख्यतया यह पर्व लंकापति रावण पर विजय
हासिल कर और अपना चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके राम के आयोध्या लौटने की खुशी में
मनाया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार अयोध्यावासियों ने श्रीराम के वनवास से लौटने पर घर-घर दीप जलाकर खुशियाँ
मनाईं थीं। चिरकालिक मान्यता रही है कि तभी से दीपावली पर्व पर लोग दीप जलाते हैं
और जश्न मनाते चले आ रहे हैं।
दीपावली पर्व पर्व से कई अन्य मान्यताएँ, धारणाएँ एवं ऐतिहासिक
घटनाएँभी जुड़ी हुई हैं, जोकि इस पर्व की महत्ता को और भी कई गुणा बढ़ाती हैं।
कठोपनिषद में यम-नचिकेता का प्रसंग आता है। जन्म-मरण का रहस्य यमराज से जानने के
बाद नचिकेता के यमलोक से मृत्युलोक लौटने की खुशी में भू-लोकवासियों ने घी के दीप
जलाए थे। किंवदन्ती है कि यही
आर्यवर्त की पहली दीपावली थी।
एक अन्य पौराणिक घटना के अनुसार इसी दिन लक्ष्मी जी का समुद्र-मन्थन से आविर्भाव हुआ था। इस पौराणिक प्रसंगानुसार
ऋषि दुर्वासा द्वारा देवराज इन्द्र को दिए गए शाप के कारण लक्ष्मी जी को समुद्र
में जाकर छिपना पड़ा था। लक्ष्मी जी के बिना देवगण बलहीन व श्रीहीन हो गए। इस
परिस्थिति का फायदा उठाकर असुर सुरों पर हावी हो गए। देवगणों की याचना पर भगवान
विष्णु ने योजनाबद्ध ढंग से सुरों व असुरों के हाथों समुद्र-मन्थन करवाया। समुद्र-मन्थन से अमृत सहित चौदह रत्नों में श्री लक्ष्मी जी
भी निकलीं, जिसे श्री विष्णु ने ग्रहण किया। श्री लक्ष्मी जी के पुनार्विभाव से देवगणों
में बल व श्री का संचार हुआ और उन्होंने पुन: असुरों पर विजय प्राप्त की। लक्ष्मी
जी के इसी पुनार्विभाव की खुशी में समस्त लोगों में दीप प्रज्ज्वलित करके खुशियाँ
मनाई गईं। इसी मान्यतानुसार प्रतिवर्ष दीपावली पर्व पर श्री लक्ष्मी जी की
पूजा-अर्चना की जाती है। मार्कंडेय पुराण के अनुसार समृद्धि की देवी श्री लक्ष्मी
जी की पूजा सर्वप्रथम नारायण ने स्वर्ग में की। इसके बाद श्री लक्ष्मी जी की पूजा
दूसरी बार श्री बह्मा जी ने, तीसरी बार शिव ने, चौथी बार समुद्र-मन्थन के समय विष्णु जी ने, पांचवीं बार मनु ने और छठी बार नागों ने की थी।
दीपावली पर्व पर एक पौराणिक प्रसंग भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी प्रचलित है। इसके अनुसार भगवान श्रीकृष्ण
बाल्यावस्था में पहली बार गाय चराने के लिए वन में गए थे। संयोगवश इसी दिन
श्रीकृष्ण ने इस मृत्युलोक से प्रस्थान किया था। एक अन्य पौराणिक प्रसंगानुसार इसी
दिन श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक नीच राक्षस का वध करके उसके द्वारा बन्दी बनाए गए
देव,
मानव और
गन्धर्वों की सोलह हजार कन्याओं को मुक्ति दिलाई थी। इसी खुशी में लोगों ने दीप
जलाकर खुशियाँ मनाईं थीं, जोकि बाद में यह एक
परम्परा के रूप में परिवर्तित हो गई। दीपावली पर्व से भगवान विष्णु के वामन अवतार
की लीला भी जुड़ी हुई है। दैत्यराज बलि ने परम तपस्वी गुरु शुक्राचार्य के सहयोग से देवलोक के राजा इन्द्र को
परास्त करके स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। तब भगवान विष्णु ने अदिति के गर्भ से
महर्षि कश्यप के घर वामन रूप में अवतार लिया। जब राजा बलि अश्वमेघ यज्ञ कर रहे थे
तो वामन ब्राह्मण वेश में राजा बलि के यज्ञ मंडप में जा पहुंचे। राजा बलि ने वामन
से इच्छित दान माँगने का आग्रह किया। वामन ने बलि से संकल्प लेने के बाद तीन पग
भूमि माँगी। संकल्पबद्ध राजा बलि ने वामन को तीन पग भूमि मापने के लिए अनुमति दे
दी। भगवान वामन ने पहले पग में भूमण्डल और दूसरे पग में त्रिलोक को माप डाला।
तीसरे पग में बलि को विवश होकर अपने सिर को आगे बढ़ाना पड़ा। राजा बलि की इस
दान-वीरता से भगवान वामन अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने बलि को सुतल लोक का राजा
बना दिया और इन्द्र को पुन: स्वर्ग का स्वामी बना दिया। देवगणों ने इस अवसर पर दीप
प्रज्ज्वलित करके खुशियाँ मनाईं और पृथ्वीलोक में भी भगवान वामन की इस लीला के लिए
दीप मालाएँ जलाईं।
देवी पुराण के अनुसार इसी दिन माता दुर्गा ने महाकाली का रूप धारण किया था
और असंख्य असुरों सहित चण्ड और मुण्ड को मौत के घाट उतारा था। इस दौरान महाकाली क्रोध के मारे बेकाबू
हो गईं और देवी महाकाली ने देवों का भी सफाया करना शुरू कर दिया तो भगवान शिव
महाकाली के समक्ष प्रस्तुत हुए। क्रोधवश महाकाली शिव के सीने पर भी चढ़ बैंठीं।
लेकिन,
शिव-शरीर का
स्पर्श पाते ही उनका क्रोध शांत हो गया। किवदन्ती है कि तब दीपोत्सव मनाकर देवों
ने अपनी खुशी का प्रकटीकरण किया।
दीपावली पर्व के साथ धार्मिक व पौराणिक मान्यताओं के साथ-साथ कुछ ऐतिहासिक
घटनाएँ भी जुड़ी हुई हैं। इसी दिन राजा विक्रमादित्य ने राज्याभिषेक के बाद अपना सम्वत् चलाने का निर्णय किया
था। इसी दिन आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने निर्वाण प्राप्त किया था।
स्वामी रामतीर्थ का जन्म और देहत्याग, दोनों ही इसी दिन हुआ था। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध के समर्थकों व अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व
हजारों-लाखों दीप जलाकर उनका स्वागत किया था। आदि शंकराचार्य के निर्जीव शरीर में
जब पुन: प्राणसंचार की घटना से हिन्दू- जगत अवगत हुआ था ,तो समस्त हिन्दू समाज
ने दीपोत्सव से अपनी आत्मिक खुशी को दर्शाया था। इन सबके अलावा दीपावली के दिन ही
सिखों के छठे गुरु हरगोविन्द सिंह जी ने
स्वयं को और अन्य बंदी राजाओं को अपने पराक्रम के बल पर मुगल सम्राट जहाँगीर की
कैद से मुक्त करवाया था। इस प्रकार कार्तिक मास की अमावस्या का दिन समाज के हर
वर्ग,
धर्म एवं सम्प्रदाय
के लिए पूजनीय व प्रकाशमय होता है।
यदि दीपावली को वैश्विक संस्कृति की समन्वयक कहा जाए, तो कदापि गलत नहीं
होगा
; क्योंकि दीपावली को विश्व भर में भिन्न-भिन्न रूपों में बड़ी श्रद्धा और
उमंग के साथ मनाया जाता है। पड़ोसी देश नेपाल में भी दीपावली पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। तिब्बत में
चाँदी की थाली में दीप सजाकर बौद्धों की देवी तारा की
पूजा-अर्चना की जाती है। कोरिया में भी इसी प्रकार की परम्परा का निर्वहन किया
जाता है। श्रीलंका में इस अवसर पर हाथियों को सजाकर जुलूस निकाला जाता है और
चीनी-मिट्टी के खिलौनों की प्रदर्शनियाँ भी लगाई जाती हैं। म्याँमार (बर्मा) तो
दीपोत्सव राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। इंग्लैण्ड में 'गार्ड फारस डे’के नाम से दीपोत्सव
बनाया जाता है और खूब आतिशबाजी की जाती है। थाईलैण्ड में दीपोत्सव पर्व 'लाभ क्रायोंग’नाम से मनाया जाता है।
चीन व जापान में इस पर्व को 'लालटेन का त्योहार’ के नाम से मनाया जाता है। इन सबके अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश, अमेरिका, इंग्लैण्ड, आस्टे्रलिया, मलेशिया, बाली द्वीप, इंडोनेशिया आदि सभी
देशों में हिन्दू धर्म के अनुयायियों और वहाँ रहने वाले भारतीयों द्वारा दीपावली
पर्व बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। यूनान के प्रसिद्ध कवि होमर के महाकाव्यों 'ओडेसी’, 'इलियट’आदि में दीपोत्सव का
जिक्र कई जगह मिलता है। ईसा के पाँचवीं शताब्दी पूर्व मिश्र व यूनान के मंदिरों में मिट्टी व धातु के दीपक
प्रज्ज्वलित करने के साक्ष्य भी प्राप्त हो चुके हैं। मेसोपोटामिया की सभ्यता के
पुरातात्विक अवशेषों में भी दीपक प्राप्त हो चुके हैं। इस प्रकार दीपावली वैश्विक
स्तर पर मनाई जाती है।
दीपावली पर्व 'लक्ष्मी’से भी जुड़ा हुआ है और यह निर्विवादित सत्य है कि वैश्विक संस्कृति में लक्ष्मी जी
चिरकाल से पूजनीय रही हैं। ऐश्वर्य, समृद्धि, उन्नति, प्रगति आदि सबकुछ 'धन-धान्य’पर निर्भर है। इन सबकी
दात्री लक्ष्मी जी हैं। दीपवली के दिन समुद्र-मन्थन के दौरान चौदह रत्नों के साथ
लक्ष्मी जी का पुनर्जन्म हुआ था। इसी दोहरी खुशी एवं श्रद्धा के चलते दीपावली पर्व
की संध्या को महालक्ष्मी जी की पूजा-अर्चना की जाती है। ग्रामीण समाज में भी
लक्ष्मी जी को धन-धान्य की देवी के रूप में अगाध श्रद्धा व विश्वास के साथ पूजा
जाता है। भारत में किसान लक्ष्मी को अपनी धान की फसल के रूप में देखते हैं। इन
दिनों किसानों की धान की फसल पककर तैयार हो चुकी होती है और धान बेचने के बाद
किसान के घर लक्ष्मी का आगमन होता है।
इसी सन्दर्भ में बाली द्वीप के लोगों का विश्वास है कि हिन्देशिया के राजाओं
की लक्ष्मी उनकी रानी के रूप में रहती थीं ; लेकिन जब उनका विष्णु
से प्रेम हो गया तब उसकी मुत्यृ हो गई। पृथ्वी पर जहाँ उनकी समाधि बनीं, उस स्थान पर कई पौधे
उग आए। इनमें धान का पौधा उनकी नाभि से उत्पन्न हुआ। अत: वह श्रेष्ठ माना जाता है।
सूडान में भी लक्ष्मी को धान उत्पन्न करने वाली देवी माना गया है। ग्रीस में
सामाजिक सम्पन्नता की देवी के रूप में 'री’की उपासना का प्रचलन
है। 'री’ की तुलना रेवती
नक्षत्र से इस अर्थ में की जाती है कि संस्कृत शब्द 'रेई’अथवा 'रायी’ एवं खेती का अर्थ 'धन’ होता है। अत: खेती तथा
यूनानी देवी 'री’को लक्ष्मी का समानार्थी
माना गया है।
पुरातात्विक सामग्रियों में विभिन्न रूपों में अंकित लक्ष्मी जी की कलात्मक
छवियाँ इस तथ्य का ठोस प्रमाण हैं। लक्ष्मी जी के कलात्मक रूप का इतिहास कुषाणों
के शासनकाल से आरंभ हुआ बताया जाता है। ईसा की पहली शताब्दी के उत्तरार्ध
में जब कुषाणों
ने उत्तरी भारत पर अधिकार किया तो उन्होंने अपने सिक्कों पर भारतीय, यूनानी, ईरानी आदि देवी-देवताओं का अंकन किया। भारतीय
देवी-देवताओं शिव समूह और लक्ष्मी रूपी अनोखी प्रतिमा को अंकित किया।
माना जाता है कि लक्ष्मी के स्वरूप की कल्पना वैदिक काल के बाद की गई। मध्ययुग
में 'श्री’चक्रधारी मूर्तियाँ
तांत्रिक सिद्धि के उद्देश्य से बनीं। इसके बाद विश्व-संस्कृति में लक्ष्मी को
विभिन्न मुद्राओं में दर्शाया जाने लगा। समुद्रगुप्त के सिक्कों पर लक्ष्मी जी
मंचासीन हैं, जबकि उसके भाई काच गुप्त के सिक्कों पर उन्हें खड़ी
दिखाया गया है।
दिगी के प्रथम सम्राट मोहम्मद बिन कासिम के सोने के सिक्कों पर गजलक्ष्मी
अंकित हैं, जबकि यूनानी सिक्कों में लक्ष्मी को नृत्य मुद्रा में अंकित किया गया है।
चोल सम्राट के सिक्कों पर लक्ष्मी साधारण मुद्रा में अंकित है। रोम से प्राप्त एक
चाँदी की थाली पर लक्ष्मी को 'भारत-लक्ष्मी’ के रूप में और
कम्बोडिया से प्राप्त एक प्रतिमा में लक्ष्मी जी को भगवान विष्णु के पैर दबाते हुए
दर्शाया गया है। जापान में मिले सोलहवीं सदी के लक्ष्मी मन्दिर में जापानी महिला
के रूप में लक्ष्मी को चित्रित किया गया है। श्रीलंका के पोलोमरूवां नामक स्थान पर
खुदाई के दौरान अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ लक्ष्मी जी की मूर्तियाँ भी
मिली हैं।
कौशाम्बी से प्राप्त शुंगकालीन लक्ष्मी कमल पर आसीन हैं, तक्षशीला में प्राप्त
प्रतिमा में लक्ष्मी जी एक हाथ में दीप धारण किए हैं। रामायण में यह उल्लिखित है कि पुष्पक विमान
में कमल लिये हुए लक्ष्मी जी की
प्रतिमा अंकित थी। यह पुष्पक विमान रावण ने कुबेर से प्राप्त किया था।
गुप्तकालीन अभिलेखों पर लक्ष्मी को 'श्री’ के रूप में भी अंकित
हुआ मिलता है। चिर पुरातन वैदिक शब्द 'श्री’आज भी प्रचलित है। मानव-व्यक्तित्व को समुन्नत, सुविकसित और कांतिवान
बनाने का सम्पूर्ण श्रेय 'श्री’को ही प्राप्त है। जब व्यक्ति श्रेष्ठ कर्म करता है
तभी उसे 'श्री’की प्राप्ति होती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि लक्ष्मी (धन) के बल पर ही
विश्व की प्रगति एवं समृद्धि की नींव टीकी हुई है। लक्ष्मी के बलपर ही व्यक्ति को
ऐश्वर्य एवं ख्याति का अपार भण्डार मिलता है। इसीलिए दीपावली पर्व पर लक्ष्मी जी
की पूजा अर्चना की जाती है और दीपावली पर्व को पूरी वैश्विक संस्कृति का समन्वयक
पर्व माना जाता है।
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