शिवरीनारायण
में तांत्रिक परम्परा
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी के त्रिधारा संगम के तट पर स्थित
प्राचीन, प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण और छत्तीसगढ़ की जगन्नाथपुरी के नाम से विख्यात शिवरीनारायण अप्रतिम
सौंदर्य और चतुर्भुजी विष्णु की मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे
श्री पुरुषोश्रम और श्री नारायण क्षेत्र कहा गया है। हर युग में इस नगर का अस्तित्व
रहा है और सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर और द्वापरयुग में विष्णुपुरी तथा
नारायणपुर के नाम से विख्यात यह नगर मतंग ऋषि का गुरुकुल आश्रम और शबरी की
साधना- स्थली भी रहा है।
भगवान श्रीराम और लक्ष्मण शबरी के जूठे बेर यहीं खाए थे और उन्हें मोक्ष
प्रदान करके इस घनघोर दंडकारण्य वन में आर्य संस्कृति के बीज प्रस्फुटित किए थे। शबरी की स्मृति
को चिरस्थायी बनाने के लिए शबरी-नारायण नगर बसा है। भगवान श्रीराम का नारायणी रूप
आज भी यहाँ गुप्त रूप से विराजमान हैं। कदाचित् इसी कारण इसे गुप्त तीर्थधाम कहा
गया है। याज्ञवल्क्य संहिता और रामावतार चरित में इसका उल्लेख है।
भगवान जगन्नाथ की विग्रह मूर्तियों को यहीं से पुरी (उड़ीसा) ले जाया गया था।
प्रचलित किंवदन्ती के अनुसार प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को भगवान् जगन्नाथ यहाँ विराजते
हैं। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। शिवरीनारायण की महत्ता जगन्नाथपुरी से
किसी प्रकार कम नहीं है। कदाचित् इसी कारण इस दिन यहाँ अपार भीड़ होती है। इसी दिन
से यहाँ मेला लगता है।
स्कंदपुराण में शबरीनारायण (वर्तमान शिवरीनारायण) को श्रीसिंदूरगिरिक्षेत्र
कहा गया है। प्राचीन काल में यहाँ शबरों का शासन था। द्वापरयुग के अंतिम चरण में शापवश जरा नाम के शबर के
तीर से श्रीकृष्ण घायल होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। वैदिक रीति से उनका दाह
संस्कार किया जाता है। लेकिन उनका मृत शरीर नहीं जलता। तब उस मृत शरीर को समुद्र
में प्रवाहित कर दिया जाता है। आज भी बहुत जगह मृत शरीर के मुख को औपचारिक रूप से
जलाकर समुद्र अथवा नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इधर जरा को बहुत पश्चाताप
होता है और जब उसे श्रीकृष्ण के मृत शरीर को समुद्र में प्रवाहित किये जाने का
समाचार मिलता है तब वह तत्काल उस मृत शरीर को ले आता है और इसी श्रीसिंदूरगिरि
क्षेत्र में एक जलस्रोत के किनारे बाँस के पेड़ के नीचे रखकर उसकी पूजा-अर्चना
करने लगा। आगे चलकर वह उसके सामने बैठकर तंत्र -मंत्र की साधना करने
लगा। इसी मृत शरीर को आगे चलकर नीलमाधव कहा गया। इसी नीलमाधव को 14 वीं शताब्दी के
उडिय़ा कवि सरलादास ने पुरी में ले जाकर
स्थापित करने की बात कही है। डॉ. जे. पी. सिंहदेव और डॉ. एल. पी. साहू ने
कल्ट ऑफ जगन्नाथ और कल्चरल प्रोफाइल ऑफ साउथ कोसला में लिखते हैं-भगवान नीलमाधव की
मूर्ति को शबरीनारायण से पुरी लाने वाले पुरी के राजपुरोहित विद्यापति नहीं थे; बल्कि उन्हें
तांत्रिक इंद्रभूति सँभल पहाड़ी की एक गुफा में ले जाकर उसके सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना
किया करता था। यहीं उन्होंने वज्रयान बुद्धिज्म की स्थापना की। उन्होंने तिब्बत
जाकर लामा सम्प्रदाय की भी स्थापना की थी। बंगाल की राजकुमारी लक्ष्मीकरा ,जिसने बाद में पटना के राजा
जैलेन्द्रनाथ से विवाह किया, वह इंद्रभूति की बहन थी। इंद्रभूति के वंशज तीन पीढ़ी तक नीलमाधव के सम्मुख
बैठकर तंत्र -मंत्र की साधना करते रहे बाद में उस मूर्ति को पुरी
में ले जाकर भगवान् जगन्नाथ के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। पहले जगन्नाथ पुरी के इस मंदिर में
तांत्रिकों का कब्जा था
जिसे आदि गुरु शंकराचार्य ने उनसे शास्त्रार्थ करके उनके प्रभाव से मुक्त कराया।
इधर जरा अपने नीलमाधव को न पाकर खूब विलाप करने लगा और अन्न जल त्यागकर
मृत्यु का वरण करने के लिए उद्यत हो गया। तभी भगवान नीलमाधव ने अपने नारायणी रूप का उन्हें
दर्शन कराया और यहाँ गुप्त रूप से विराजित होने का वरदान दिया। उन्होंने यह भी
वरदान दिया कि प्रतिवर्ष माघपूर्णिमा को जो कोई मेरा दर्शन करेगा, वह मोक्ष को प्राप्त
कर सीधे बैकुंठधाम को जाएगा। तब से यह गुप्तधाम के रूप में पाँचवा धाम कहलाया। आज
भी यहाँ भगवान नारायण का मोक्षदायी स्वरूप विद्यमान है और उनके चरण को स्पर्श करता
'रोहिणी कुंड’ विद्यमान है जिसकी
महिमा अपार है। प्राचीन कवि श्री बटुकसिंह ने रोहिणी कुंड को एक धाम माना है- 'रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर’ जबकि सुप्रसिद्ध
साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने शबरीनारायण माहात्म्य में मुक्ति पाने का एक
साधन बताया है:
रोहिणि कुंडहि स्पर्श कर चित्रोत्पल जल न्हाय।
योग भ्रष्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय।।
तथ्य चाहे जो हो, पुरी के जगन्नाथ मंदिर और शबरीनारायण मंदिर में बहुत
कुछ समानता है। दोनों मंदिर तांत्रिकों के कब्जे में था, जिसे क्रमश: आदि गुरु शंकराचार्य और स्वामी
दयाराम दास ने शास्त्रार्थ करके ताँत्रिकों के प्रभाव से मुक्त कराया। शबरीनारायण
में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों का कब्जा था। चूँकि शबरीनारायण से होकर जगन्नाथपुरी जाने का मार्ग
था। पथिकों को यहाँ के तांत्रिकों शेर बनकर डराते और अपने प्रभाव से मारकर खा जाते थे। इसलिए इस मार्ग
में जाने में यात्रिगण भय खाते थे। एक बार स्वामी दयाराम दास ग्वालियर से तीर्थाटन के लिए घूमते हुए रतनपुर
पहुँचे। उनकी विद्वत्ता और पांडित्य से रतनपुर के राजा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें शबरीनारायण के
मंदिर और मठ की व्यवस्था करने का दायित्व सौंपा। स्वामी दयाराम दास जब शबरीनारायण
पहुँचे तब वहाँ के तांत्रिक उन्हें भी डराने के लिए शेर बनकर झपटे लेकिन ऐसा
चमत्कार हुआ कि शेर के रूप में तांत्रिक उनका कुछ नहीं बिगाड़ सके। बाद में
तांत्रिकों के गुरु कनफड़ा बाबा के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ ,जिसमें कनफड़ा बाबा को
पराजय का सामना करना पड़ा और डर के मारे वे जमीन के भीतर प्रवेश कर गए। इस प्रकार
शबरीनारायण के मठ और मंदिर नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों के प्रभाव से मुक्त हुआ, जगन्नाथ पुरी जाने
वाले यात्रियों को तांत्रिकों के भय से मुक्ति मिली और यहाँ रामानंदी सम्प्रदाय के
वैष्णवों का बीजारोपण हुआ। यहाँ के मठ के स्वामी दयाराम दास पहले महन्त हुए और तब से आज तक
इस वैष्णव मठ में 14 महन्त हो चुके हैं जो एक से बढ़कर एक धार्मिक, आध्यात्मिक और ईश्वर
भक्त हुए। उनकी प्रेरणा से अनेक मंदिर, महानदी के किनारे घाट और मंदिर की व्यवस्था के लिए
जमीन दान में देकर कृतार्थ ही नहीं हुए; बल्कि इस क्षेत्र में
भक्ति भाव की लहर फैलाने में मदद भी की। जिस स्थान पर कनफड़ा बाबा जमीन के भीतर
प्रवेश किये थे उस स्थान पर स्वामी दयाराम दास ने एक गाँधी चौरा का निर्माण
कराया। प्रतिवर्ष माघ शुक्ल तेरस और अश्विन शुक्ल दसमी (दशहरा) को शिवरीनारायण के महन्त इस गाधी चौरा में
बैठकर पूजा-अर्चना करते हैं और प्रतीकात्मक रूप से यह प्रदर्शित करते हैं कि
वैष्णव सम्प्रदाय तांत्रिकों के प्रभाव से बहुत ऊपर है। शिवरीनारायण के
दक्षिणी द्वार के एक छोटे से मन्दिर के भीतर तांत्रिकों के गुरू कनफड़ा बाबा की
पगड़ीधारी मूर्ति है और बस्ती के बाहर एक नाथ गुफा के नाम से एक मन्दिर है जिससे इस तथ्य की
पुष्टि होती है।
सम्पर्क: राघव, डागा कालोनी, चाम्पा-495671 (छ.ग.) Email-
ashwinikesharwani@gmail.com
No comments:
Post a Comment