चलो
लोहा मनवायें
- सुशील
यादव
लोहा
मनवाने की परम्परा समूची दुनिया में अनादिकाल से है।
जो बलवान हैं अपने
बल का, जो बुद्धिमान हैं, अपनी बुद्धि का, जिसके
पास योग है वो अपने योग का जिनके पास भोग है वो अपनी भोग का, यानी
जिनके पास जो हुनर है उसी का लोहा मनवा लेते हैं, बशर्ते थोड़ी मेहनत
थोड़ी लगन, जऱा सा उत्साह अपने काम के प्रति रखें।
भारत ने लाल गृह के घेरे में अपना सेटेलाईट
छोड़ कर, अपना लोहा मनवा लिया। थी पिछली सरकार की योजना
पर पीठ अपनी थपथपवा ली।
कहते हैं करोड़ों
मील दूर की योजना पर साढ़े चार सौ करोड़
की लागत आई वो भी दीगर मुल्कों के खर्चे के न के बराबर है, इसमें
हर भारतीय के औसतन चार रुपये लगे ।
हम लोग नाहक गणेश, दुर्गोत्सव, होली
का हजारों में चँदा देते रहे हैं। चँदा उगाहने वाले खेल- तमाशों में पैसा फूँक
जाया कर देते हैं ।
आने वाले दिनों में कम से कम नजदीक के चाँद पर
गणपति बिठाने का कोई सार्थक प्रयास करे तो मैं चंदे की रकम में सौ गुना इजाफा करने
के लिए तैयार हूँ। अपने गणपति का दुनिया
एक बार तो लोहा माने। लोग जाने तो सही
हिदुस्तान के खजाने में क्या क्या है ?
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBHzmW7pQqIgc_D2zF-BGJmkBFfzh4CXI53F1Tsg8QYARNUaZ0E8gKAq6pV7u5qljGYWHtTwVMhWEdmFsvUvBAMyCpR2GJh6-WSjw3YHBJNrT2WpyuvpF-4tPDSPf0xh7_iv0y2yBKABs/s1600/Mars-Cartoon-1.jpg)
राधेश्याम जी अब
मौके-बेमौके अपनी पत्नी को सोने हीरे की बजाय ,'लोहे की रिंग'
गिफ्ट करते रहते हैं। ये उनके प्यार का
टोटका बन गया है। बीबी को यूँ सस्ती गिफ्ट देने का रिवाज हो तो आदमी बेशक चार के
गले लगते फिरे।
उन्होंने अपना नुस्खा देशी स्टाइल में यूँ बता
रखा है कि रसे-तरी वाली भी चीज को खाने से
पहले अँगूठी निकाल के डुबाया जाए, रात को फकत एक लोटे पानी में अँगूठी डूबी रहे और
दिन भर उस पानी का सेवन करें। आयरन की कड़ाही में सब्जी वगैरह बनाने- खिलाने का अलग टोटका आजमाया जा रहा है।
सेठ राधेश्याम पत्नी के शरीर में आयरन पहुँचाने की भरपूर कोशिश में लगे रहते हैं। वे सब अपना 'लोहा
इलाज'
मार्फत लोहा मनवा
रहे हैं। सेठ की पत्नी ऊपर सोने और भीतर आयरन से लद रही हैं। रात को वे चुम्बक लिए
मिलते हैं ।
हम लोग जब हायर
सेकेंडरी में थे, हमारे इरादे रोज बदला करते थे। हमारी धुन रहती थी
कि कोई तो फील्ड हमारे लिए बनी होगी जिसमे हम अपना लोहा मनवा लें ।
किसी स्टेडियम में
दारासिंग रंधावा की कुस्ती देख आते तो, अगले दिन अखाड़ा में दिखते। उस्ताद मुआयना करके
कह देते कुछ खा- पी के आया करो। वो सीक से बदन पर, दो-चार दंड बैठक या मुदगर घुमाने की भी इजाजत नहीं
देते ।
फिल्मी पोस्टर देख
कर, स्टाइल और नए फैशन की दीवानगी बढ़ी रहती। डायलाग, गाने,और
स्क्रिप्ट लिखने का बुखार चढ़ा रहता, गोया ज़माना हमे आसमान में एक दिन जरूर बिठा देगी।
ज़माना जितना हम
समझते हैं उतना सीधा-सादा है नहीं। उसने समय को देखा है। उसके सामने हम जैसे कई पतंगबाज आये, गए, झोल
खा गए, या कट गए होंगे ? इतिहास पे इतिहास रच गए है लोहा मनवाने के लिए ट्राई
मारने वाले लोगों की।
समय की निगाह इन
ट्राई मारने वालों पर तेज होती है। अच्छे बुरे कामों का परिणाम तत्काल दे
देता है, लिहाजा मेट्रिक में हम बड़े करीबी मार्जिन से पास
हुए इस फील्ड में लोहा तो क्या प्लास्टिक
भी न मनवा सके।
बनते बिगड़ते इरादों
के साथ, कभी इच्छा शक्ति को मजबूत कर लिया तो बी ए ,एम
ए में तीर, कमान में चढ़ पाई और हमारा निशाना, उचे
परिणाम पर लग गया। जिस किसी ने हमारे प्रति अपनी धारणा ये बना ली थी, कि
ये तो कोई काम बन्दा है ही नहीं! उसे हमने बदला। नौकरी लग गई, दाल
रोटी के जुगाड़ ने कम से कम इस काबिल तो
बना दिया कि, एक पिछड़ा परिवार ही सही हमारा लोहा मान ले।
मन में अभी भी, 'आज
कुछ तूफानी करते हैं', वाली बात पैदा होते रहती है।
आप बताओ, इतने
उम्र वाले आदमी के पास लिम्का बुक्स ऑफ रिकार्ड में जाने लायक कुछ करने की
योग्यता-क्षमता है?
इस पुस्तक को पढ़
देखो तो लोग अजीब- अजीब से आश्चर्य चकित कर देने वाले कारनामे किये बैठे लगते हैं।
इनमे से एक आध हम कर
लेवे तो हाथ पैर तुड़वा के पट्टी बधवाने, हास्पिटल में
एडमिट होने की नौबत आ जायेगी । हम चुपचाप बुक्स ऑफ लिम्का बंद करके रख देते
हैं। बेटर- हाफ अक्सर पूछती हैं इस पुस्तक में ऐसा क्या पढ़ लेते हो जो गहरी- गहरी
साँस लेने की नौबत आ जाती है? कुछ आरती,
भजन या चालीसा वगैरा पढऩा चाहिए
आपको...!
हमें लोहा मनवाने का
पुराना स्टाइल बहुत पसंद आता है।
भगवान राम ने हजार
दो हजार वानर सेना लेके लंका जीत ली। मनवा लिए। भगवान हनुमान के नेतृत्व में, बिना
सरकारी ठेके- घपले की पुनीत परम्परा का निर्वाह किये, समुंदर
में पुल बँध गया। वे भी मनवा लिए। बिना
किसी चार्टेड प्लेन के संजीवनी बूटी आ गई । भाई वाह...? बिना
चीरफाड़ के मिस्टर लक्ष्मण कोमा से जीवित हो गए । न केवल जीवित हुए, वरन
-किसको टपकाना है-, की
मुद्रा में योद्धा माफिक तन के खड़े हो गए ।
लोहा ही लोहा.., हजारों पीढिय़ां गुजर गई, मानते हुए।
विज्ञान में भी लोहा
गलाने, ढालने, पीटने के
करोड़ों कारनामे हैं ।
गिरते हुए सेब को
देख के किसी ने 'गुरुत्वाकर्षण' ढूढ़ निकाला। हमारे
तरफ विडम्बना ये है कि कभी गिरते हुए 'आम' को आम आदमी
देख लें तो माली दौड़ा देता है।
चिंतन का समय नहीं मिलता।
आइन्स्टीन ने 'प्रकाश
की गति'
को नाप दिया। फिर
वही विडम्बना, हम लोग एक प्लाट नापने वाली चकरी के सौ फीट में
दो-दो जोड़ लिए रहते हैं । ख़ाक लोहा मनवाएँगे ?
ये तो अच्छा हुआ कि, कोलंबस
भाई और वास्कोडिगामा जी ने अपने अपने समय में अमेरिका और हिन्दुस्तान को खोज लिया, वरना
हमारे पीएम अपना लोहा मनवाने कहाँ जाते ?
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