खुशी, संतोष और कामयाबी
- निशांत
संजय सिन्हा पेशे से पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं। फेसुबक पर उनके लंबे स्टेटस जिंदगी और उससे जुड़े मसलों पर संजीदगी से सोचने को मजबूर करते हैं। उन्हें पढ़ने पर यह अहसास गहरा होता है कि अपनी तमाम दुश्वारियों और लाचारियों के बावजूद हमारी जिंदगी और ये दुनिया यकीनन बहुत सुंदर है। प्यार, पैसा और हर तरह की ऊँच-नीच के दुनियावी मसले सदा से कायम हैं और कायम रहेंगें ज़िदगी और वक्त ऐसी शै हैं जिनपर आप ऐतबार नहीं कर सकते न जाने कब ये मुठ्ठी में बंद रेत की मानिंद बिखर जाएँ। इसलिए अपनी अच्छाइयों को बरकरार रखकर छोटे-छोटे लम्हों से खुशी चुराने की बात कहते हुए संजय अपने अनुभवों को साफ़गोई से बहुत रोचक अंदाज़ में बयां करते हैं। इन्हें पढ़कर आपको यकीनन बहुत अच्छा लगेगा-
जिन दिनों मैं जनसत्ता में नौकरी करता था और मेरी शादी नहीं हुई थी ,उन दिनों मेरे साथी अक्सर मुझसे पूछा करते थे कि तुम बेवजह इतना खुश क्यों रहते हो? हर बात पर हँसते हो और ऐसा लगता है कि तुम्हें दूसरों की तुलना में अधिक सैलरी मिलती है।
उन दिनों मैं बतौर उप संपादक नया-नया नौकरी पर आया ही था, और यकीनन मेरी सैलरी वहाँ मुझसे पहले से काम कर रहे लोगों से कम ही रही होगी। खैर, किसकी सैलरी कितनी थी, ये मुझे ठीक से तब भी पता ही नहीं चला और आज भी नहीं पता. मुझे हमेशा लगता है कि जितने पैसों की मुझे ज़रूरत है, उतना पैसा मेरे पास होना चाहिए. इसलिए मेरी हँसी और मेरी खुशी की वजह किसी को सैलरी लगी, किसी को मेरा तनाव रहित जीवन लगा, किसी को मेरा खिलंदड़पन लगा और किसी को लगा कि मैं ज़िदगी को सीरियसली नहीं लेता।
इतना पक्का है कि मैं दफ्तर जाता तो मस्ती, चुटकुले और ठहाके मेरे साथ ही दफ्तर में घुसते और चाहे-अनचाहे दिन भर की खबरों का तनाव, कइयों के घरेलू कलह कुछ समय के लिए काफूर हो जाते और अक्सर मेरे तत्कालीन बॉस हमसे कहा करते कि यार इतनी जोर- जोर से मत हँसा करो, लोग बेवजह दुश्मन बन जाएँगे। वो मुझे समझाया करते कि लोग अपने दुख से कम दूसरों की खुशी से ज्यादा तकलीफ में आते हैं, इसलिए तुम जरा सँभल कर रहा करो।
खैर, मैं दस साल जनसत्ता में रहा और एक दिन भी खुद को सँभाल नहीं पाया। काम के समय काम और बाकी समय फुल मस्ती। मेरा मानना है कि खुश रहना असल में एक आदत है। ऐसा नहीं है कि खुश रहने वाले की जिंदगी में दुखी रहने वाले की तुलना में कम समस्याएँ होती हैं। मैंने ही लिखा है कि बचपन में माँ को खो देने वाला मैं, भला जीवन के किस सिद्धांत के तहत खुश रह सकता था, लेकिन फिर यही सोच कर मन को मनाता रहा कि माँ जितनी तकलीफ में थी, उस तकलीफ से तो उसे मुक्ति मिल गई। और उसकी मुक्ति को अपने अकेलेपन पर मैंने हावी नहीं होने दिया और खुश रहने लगा।
इतना तो मैं दस या बारह साल में समझ गया था कि ज़िंदगी सचमुच उतनी बड़ी होती नहीं है, जितनी बड़ी लगती है। वक्त उतना होता नहीं है, जितना नजर आता है। मैं ये भी समझ गया था कि कोई नहीं जानता कि जिंदगी में कल क्या होगा। कोई ये भी नहीं जानता कि आखिर में इस ज़िंदगी के होने का अर्थ ही क्या है? जब मन में इतनी बातें समा गईं, तो फिर ज़िंदगी एक सफर ही लगने लगा, एक ऐसा सफर जिसमें सचमुच कल क्या हो, नहीं पता। और उसी समय से मैं खुश रहने लगा। बीच-बीच में मैं भी विचलित हुआ, लेकिन फिर मन को मना लेता। दुख के तमाम पलों में भी खुशी तलाशने को अपनी आदत बनाने लगा।
मेरी खुश रहने की इसी आदत से जुड़ा एक वाकया आपको बताता हूँ। जिन दिनों मैं कॉलेज में पढ़ता था, पिताजी के पेट का ऑपरेशन हुआ था, और अस्पताल के जिस कमरे में उन्हें रखा गया था ,उसी कमरे में रहकर मैं पिताजी की देखभाल करता था। एक दिन पिताजी सो रहे थे, और मेरा एक दोस्त मुझसे मिलने आया था. हम दोनों दोस्त बैठकर एक दूसरे को चुटकुले सुना रहे थे। हमें ध्यान नहीं रहा कि पिताजी कब जाग गए हैं, और हमारी बातें सुन रहे हैं। किसी चुटकुले पर अचानक वो जोरों से हँसने लगे। इतनी ज़ोर से कि नर्स अंदर चली आई। उसे लगा कि पिताजी को दर्द उठ आया है। डॉक्टर कमरे में आ गए। सबने देखा कि हम तीनों जोर -जोर से हँस रहे हैं। डॉक्टर तो आते ही हम पर पिल पड़ा। कहने लगा, आप लोग मरीज की जान ले लेंगे। इतनी जोर से पागलों की तरह हँसे जा रहे हैं।
डॉक्टर ने हमें कमरे से निकाल दिया। पिताजी को अभी अस्पताल में रहना था, लेकिन मैंने देखा कि पिताजी अपना डिस्चार्ज सर्टिफिकेट खुद ही बनवाने के लिए उठ गए थे। उन्होंने कहा, आपकी दवाइयों से ज्यादा मुझे इस हँसी की ज़रूरत है और आप वही छीन लेंगे ,तो फिर मैं जल्दी कैसे ठीक होऊँगा?
हमें दुबारा कमरे में बुलाया गया। डॉक्टर थोड़ा ठंडा पड़ चुका था। हम दोनों दोस्त अंदर गए ,तो डॉक्टर ने पूछा, आपने ऐसी कौन-सी बात कही थी ,जो सब के सब इतनी जोर से हँस रहे थे?
मैंने डॉक्टर से कहा कि आप एक मिनट बैठिए। एक चुटकुला सुनिए। फिर मैंने उसे ये चुटकुला सुनाया-
एक बार एक आदमी पागलखाने के पास से गुजर रहा था कि उसकी गाड़ी पंचर हो गई। उसने वहीं अपनी गाड़ी खड़ी की और उसका पहिया खोलकर बदलने की कोशिश करने लगा. तभी पागलखाने की खिड़की से झाँकता हुआ एक पागल उस आदमी से पूछ बैठा, “भैया आप क्या कर रहे हो?”
आदमी ने पागल की ओर देखा और मुँह बनाकर चुप रह गया. उसने सोचा कि इस पागल के मुँह क्या लगना? उसने उस पहिये के चारों स्क्रू खोल दिए, और टायर बदलने ही वाला था कि कहीं से वहाँ भैंसों का झुंड आ गया। वो आदमी वहाँ से भाग कर किनारे चला गया। जब भैंसे चली गईं, तो वह दुबारा गाड़ी के पास आया कि टायर बदल ले। जब वो वहाँ पहुँचा, तो उसने देखा कि जिस पहिए को उसने खोला था उसके चारों स्क्रू गायब हैं। वो बड़ा परेशान हुआ. उसकी समझ नहीं पा रहा था कि अब वो क्या करे. पहिया खुला पड़ा था, चारों स्क्रू भैंसों की भगदड़ में गायब हो गए थे।
वो परेशान होकर इधर-उधर तलाशने लगा. तभी खिड़की से फिर उसी पागल ने पूछा कि भैया क्या हुआ? परेशान आदमी ने झल्लाकर कहा, “अरे पागल मैंने पहिया बदलने के लिए चारों स्क्रू बाहर निकाले थे। अब मिल नहीं रहे। क्या करूँ समझ में नहीं आ रहा, ऊपर से तुम सिर खा रहे हो।”
उस पागल ने वहीं से कहा, “भैया स्क्रू नहीं मिल रहे ,तो कोई बात नहीं। आप बाकी तीनों पहियों से एक एक स्क्रू निकाल कर चौथे पहिए को तीन स्क्रू लगाकर टाइट कर लीजिए और फिर गैराज जाकर नए स्क्रू लगवा लीजिएगा। ऐसे परेशान होने से तो कुछ नहीं होने वाला।”
आदमी चौंका। बात तो पते की थी। चार की जगह तीन स्क्रू पर गाड़ी चल जाती। उसने पागल की ओर देखा और कहा, “यार बात तो तुमने ठीक कही है, लेकिन बताओ जब तुम इतने समझदार हो तो यहाँ पागलखाने में क्या कर रहे हो?”
पागल ने वहीं से जवाब दिया, “भैया, मैं पागल हूँ, मूर्ख थोड़े ही हूँ?”
डॉक्टर ने चुटकुला सुना और जोर- जोर से ठहाके लगाने लगा। फिर उसने कहा, गॉल ब्लैडर के ऑपरेशन के बाद कोई मरीज अगले दिन दर्द से कराहने की जगह इतना हँस पड़े ये तो कमाल ही है।
अपने तमाम गमों के बीच भी मैं ऐसे ही हँसी तलाशता रहा। खुशी तलाशता रहा। संतोष तलाशता रहा। आखिर में मैं इसी नतीजे पर पहुँचा कि संतुष्ट होना कामयाब होने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। कामयाबी का पैमाना दूसरे तय करते, जबकि संतोष का पैमाना आपके पास होता है। संतोष का पैमाना दिल होता है। कामयाबी खुशी की गारंटी नहीं होती, लेकिन संतुष्ट होना खुशी की गारंटी देता है। इसीलिए उस दिन अस्पताल में डॉक्टर ने हमें भले शुरू में पागल कहा, पर इतना तो वो भी समझ गया था कि ये मूर्ख नही हैं, और जो मूर्ख नहीं होते वो कामयाबी के पीछे नहीं भागते, वो खुशियों को गले लगाते हैं।
कामयाबी के पीछे भागने वाले अक्सर भागते रहते हैं, और जीवन भर अपनी गाड़ी के पहिए को फिट करने के लिए खोए हुए स्क्रू को तलाशते रहते हैं। जो समझदार होते हैं, वो बाकी पहियों से एक-एक स्क्रू लेकर आगे बढ़ चलते हैं। (हिन्दी ज़ेन से)
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