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Apr 16, 2018

मूल्यांकन पद्धति पर उठते सवाल?

मूल्यांकन पद्धति पर उठते सवाल?
-स्वराज सिंह
सभी साक्षर बनेंगे तभी समाज की उन्नति होगी और देश आगे बढ़ेगा। निरक्षरता पग-पग पर व्यक्ति को अहसास कराती है कि यदि हम भी पढ़ लिए होते तो अच्छा होता। निरक्षर व्यक्ति बैंक में पैसा जमा करने जाए या निकालने या किसी कार्यालय में, वह सहायता के लिए दूसरों का मुँह ताकता है। अपनी निरक्षरता के कारण उसे पग-पग पर हानि उठानी पड़ती है।
 6 से 14 साल बच्चों को साक्षर बनाना, साक्षरता अभियान का लक्ष्य है। यह सरकार और शिक्षकों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। विद्यालय से छात्रों का पलायन आज भी नहीं रुक रहा है। अभी कुछ दिन पहले नेशनल अचीवमेंटसर्वे(NAS)  की रिपोर्ट आई है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली में दिल्ली नगर निगम और दिल्ली सरकार के स्कूलों में अभी भी ऐसे अनेक छात्र हैं, जो पढऩा-लिखना भी नहीं सीख पाए। इसके पीछे के कारणों की गंभीरता से खोज करने की आवश्यकता है। सरकार सभी छात्रों को साक्षर बनाने के लिए एक लक्ष्य निर्धारित करती है ,परंतु इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सबसे बड़ी समस्या आती है, छात्रों का स्कूल ही न आना। आज तक कोई भी प्रलोभन छात्रों को स्कूल तक लाने में पूरी तरह कारगर सिद्ध नहीं हुआ। सरकार अथक प्रयास करती है कि सभी बच्चें पढ़े। दिल्ली सरकार इस बार गर्मियों की छुटटियों में मिशन बुनियाद कार्यक्रम चला रही है। इस कार्यक्रम के लिए पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया। शिक्षा विभाग का लक्ष्य है कि छठी से आठवीं तक का हर बच्चा अपनी कक्षा के स्तर तक का पढऩा-लिखना सीख जाए। परंतु यहाँ भी विद्यालय प्रमुख और अध्यापकों के लाख बार बुलाने के बाद भी छात्रों के विद्यालय न आने की समस्या आने वाली है। गर्मियों के अवकाश में अनेक अभिभावक अपने बच्चों के साथ अपने गाँव लौट जाते हैं और वे जाने से पहले पूछना भी जरूरी नहीं समझते। अभिभावकों का सहयोग नहीं मिलने के कारण इच्छित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता।
प्राथमिक स्तर की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। प्राथमिक और माध्यमिक स्तर कई वर्षों  से NDP( No Detention Policy) चल रही है। आठवीं तक कोई छात्र फेल नहीं हो सकता, इसलिए छात्रों ने पढऩा-लिखना बिलकुल छोड़ दिया। आठवीं तक तो छात्र स्कूल में नाम लिखवाकर वर्ष भर स्कूल न भी आए, तो भी वह पास हो जाता है। बस उस छात्र को एक दिन आकर उत्तर पुस्तिका पर केवल रोल नम्बर लिखने की ज़रूरत है। परीक्षक द्वारा उसकी उत्तर पुस्तिका पर शून्य अंक दे देने पर भी वह अगली कक्षा में चला जाएगा। आठवीं तक के छात्रों के माता-पिता चाहें तो भी उसे फेल नहीं कर सकते। छात्रों में पढऩे की आदत बिल्कुल भी नहीं रही या ये कहे कि आदत पड़ी ही नहीं। पढऩे की उम्र में जिसने नहीं पढ़ा वह आगे चलकर क्या पढ़ेगा? 14 वर्ष तक का छात्र पढऩे- लिखने में अच्छी तरह पारंगत हो जाना चाहिए परंतु NDPपॉलिसी ने छात्रों की नींव को पूरी तरह खोखला बना दिया। नौंवी कक्षा में वह कमज़ोर नींव के साथ आता है। कमज़ोर नींव पर भला मज़बूत भवन कैसे बन सकता है। पिछले दो तीन वर्षोँसे 9वीं कक्षा की SA (संकलित मूल्यांकन) में 25प्रतिशत अंक लाना अनिवार्य कर दिया। छात्रों की पढऩे की आदत  है नहीं; अतरू  मैं जिस विद्यालय की बात कर रहा हूँ ,वहाँ 9वीं में 300 में से केवल 78 छात्र ही SA परीक्षा में 25प्रतिशत अंक ले पाए। बाकी बच्चे फेल हो गए।
हमारी शिक्षा व्यवस्था में अनेक खामियाँ आ चुकी हैं। यदि शिक्षा व्यवस्था में खामियों की सही जानकारी चाहिए तो शिक्षकों से अवश्य बात करनी चाहिए। शिक्षकों से ही क्यों; बल्कि विद्यालय के छोटे-बड़े हर कर्मचारी से। हर व्यक्ति कोई न कोई गहरी बात बताता है और अच्छा सुझाव भी देता है। परंतु विडम्बना यह है कि पॉलिसी ऐसे लोग बनाते है, जो स्कूली शिक्षा से जुड़े हुए नहीं होते। शिक्षक छात्रों का हित चाहते है। वे चाहते है कि सभी छात्र पढ़े ,परंतु जब छात्र स्कूल ही न आएँ, किताब कॉपी न लाएँ तो अध्यापक किसे और कैसे पढ़ाएँ? अभिभावक बुलाने से भी बच्चे के बारे में बात करने स्कूल नहीं आते। उनकी भी अपनी मजबूरी है, उन्हें अपनी दैनिक दिहाड़ी छोड़कर आना पड़ता है।
आज का अध्यापक औपचारिकताओं के बंधन में पूरी तरह जकड़ा हुआ है। अध्यापक को अध्यापक कम, काम करने की मशीन ज्यादा समझा जाता है। अध्यापक और छात्र के बीच के संबंध न जाने कहाँ खो गए हैं। भावात्मक संबंधों का ह्रास हो रहा है।
हमारी शिक्षा व्यवस्था की परीक्षा प्रणाली परीक्षार्थी का सही मूल्यांकन करने में असमर्थ है। इस वर्ष सीबीएससी बोर्ड ने इस प्रणाली में सुधार की कोशिश की तो इस परीक्षा- प्रणाली की विद्रूपता सामने आया। मैं खुद मुख्य परीक्षक के रूप में मूल्यांकन स्थल पर था। सीबीएससी के निर्देशानुसार एक ही आंसर सीट को फोटो कॉपी कराकर सभी परीक्षकों से मूल्यांकन कराया गया। एक ही छात्र की आंसर सीट पर भिन्न- भिन्न परीक्षकों ने भिन्न-भिन्न अंक दिए। अंकों का अंतर हैरान कर देने वाला था। एक परीक्षक ने 46 अंक दिए ,जो सबसे कम थे और दूसरे परीक्षक ने उसी आंसर सीट पर 73 अंक दिए जो सर्वाधिक थे। ऐसी मूल्यांकन पद्धति छात्रों के साथ भला कहाँ न्याय कर सकती है। मूल्यांकन पद्धति को न्यायकारी बनाने के लिए अब और कदम भी उठाने की आवश्यकता है।
वर्तमान समय में जो शिक्षा व्यवस्था है, उससे लाख बेहतर हमारी पहले की शिक्षा व्यस्था थी। हमने आधुनिक बनने के चक्कर में पुराने को छोड़ दिया और नए को ढंग से अपना नहीं पाए। हमारी स्थिति वही हो गई,धोबी का कुत्ता घर का न घाट का। अब आवश्यकता है निरन्तर खोखली होती शिक्षा की जड़ को नष्ट होने से बचाया जाए। अपने देश की परिस्थिति एवं परिवेश के अनुरूप ही शिक्षा-नीति निर्धारित की जाए। छात्रों की उपस्थिति सुनिश्चित की जाए। स्कूल में 20 प्रतिशत उपस्थिति वाला छात्र 70 प्रतिशत अंक कैसे लाएगा? उसके खराब परीक्षा-परिणाम के लिए किसी शिक्षक को कैसे उत्तरदायी ठहराया जाएगा? अभिभावक की सक्रिय भागीदारी ज़रूरी है। बोर्ड अपना परीक्षा-परिणाम सुधारने के लिए क्या रचनात्मक काम कर रहा है, उस पर भी नज़र रखना ज़रूरी है। हमारी पूरी पीढ़ी के भविष्य का सवाल है। अगर आज हम इस पर ध्यान नहीं देंगे तो कल पछताने के लिए समय नहीं मिलेगा। कमोबेश यही स्थिति पूरे देश में मिलेगी। हमें जाग जाना चाहिए, अन्यथा फिर वही होगा-सब कुछ लुटाकर होश में आए तो क्या किया?
सम्पर्क: 61, दिल्ली सरकार आवासीय परिसर,सैक्टर-11 रोहिणी दिल्ली 110085

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