- रमेश गौतम
‘‘अम्मा, थोड़ी खीर और लाओ,’’ प्रिसिपल ने कहा,
‘‘थोड़ा राजमा, चावल भी ले आना।’’
गेम्स टीचर ने चटकारे लिये, हिन्दी टीचर ने पूरी
कचौड़ी और पालक पनीर की फरमाईश की तो इंगलिश टीचर ने डकार लेते हुए आइसक्रीम लाने
को कहा ।
अम्मा बहुत हैरान और परेशान उनकी सेवा में जुटी थी ।
अम्मा का मन रो रहा था कि ‘बाल दिवस’ पर ऐसा क्यों होता है।
बच्चों को भूलकर अपना ही पेट भरने में लगे है। पुरानी नौकरानी थी तो बच्चों से
सम्बंधित सभी बातों और स्कूली गतिविधियों की अच्छी समझ थी, सारे बच्चे भी उन्हें
अम्मा कहते थे। वह थी भी ममतामयी । आठवें तक पढ़ी लिखी अम्मा अब अकेली ही थी । पति
को मरे बीस साल हो गए, बच्चा कोई हुआ नहीं, स्कूल के बच्चे ही उनके बच्चे थे। मन में गुस्सा भरे इधर से उधर भाग
रही थी, बच्चों
का दिन भी बच्चों के लिए नहीं होता । सुबह से बच्चों की प्रतियोगिताएँ हो रही हैं
। कोई फैन्सी ड्रेस में, कोई खेल कूद में, कोई आर्ट में और कोई भाषण प्रतियोगिता में अपना हुनर दिखा रहा है ।
निर्णायकों के लिए चाय नाश्ता सब कुछ है पर बच्चों के भूख की किसी को चिंता नहीं, अब लंच पहले करने बैठ
गए, अम्मा
बेचैन हो गईं । उन्होंने सोचा नौकरी रहे या न रहे, कुछ तो करना ही होगा ।
उन्होंने युवा चपरासी को पास बुलाया-‘‘मुकेश बेटा धर्म
संकट में हूँ, मदद करो।’’
अम्मा के रुआँसे चेहरे को देखकर मुकेश घबरा गया । अम्मा ने उसे हमेशा
अपना बेटा समझा सो बहुत मानता था उन्हें, ‘‘अम्मा बोलो तो क्या हुआ?’’
‘‘बेटा, सारे टीचर लंच ले रहे है और बच्चे पंडाल में भूखे बैठे है, मुझे उनकी बहुत चिंता
हो रही है ।’’
अम्मा की बाते सुनकर मुकेश भी व्याकुल हो गया ।
‘‘तुम स्टाफ का खाना देखो, मैं बच्चों को आर्ट
रूम में ले जा रही हूँ, वही कमरा भोजनालय के निकट है, चुपचाप उन्हें खाना
खिला दूँगी फिर जो होगा देखा जाएगा ।’’
अम्मा का दृढ़ निश्चय देख मुकेश का भी हौसला बढ़ा, ‘‘ठीक है अम्मा, आप जाओ बाकी मैं सँभाल
लूँगा।’’
अम्मा ने सब बच्चों को ड्राइगरूम में ले जाकर हाथ धुलवाए, फिर
भोजन परोसा। छोटे बच्चों को अपने हाथ से पहला कौर खिलाया तो सारे बच्चे चींख पड़े,
‘‘अम्मा, हमें भी अपने हाथ से खिलाओ… हमें भी… मुझे भी…’’
सारे बच्चों ने खाना खा लिया, अब अम्मा का चित्त
शांत था न कोई डर न कोई आशंका ।
‘‘बाय-बाय अम्मा!’’ खिलखिलाते बच्चे
बाहर निकल गए ।
मोबा- 9411470604
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