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May 15, 2020

दु:ख

 दु:ख
-पृथ्वीराज अरोड़ा

उसने पास जाकर पुकारा, ‘माँ!’
माँ ने सिलाई– मशीन के रिंग को हाथ से रोकते हुए कहा, ‘क्या है बेटा?’
पिताजी कब लौटेंगे, माँ?’
आज तुम फिर वही रोना ले बैठे! वह अब क्या आएँगे बेटा?’ फिर थोड़ा मुस्कराकर बोली, ‘तू चिंता क्यों करता है….मैं अपने लाल को पढ़ा–लिखाकर बड़ा आदमी बनाऊँगी। मेरे ये हाथ और यह सिलाई–मशीन सलामत रहें, अपने बेटे के जीवन में कोई कमी नहीं आने दूँगी।’
माँ, पिताजी गए क्यों?’
क्या कहूँ!’
बताकर भी नहीं गए, माँ?’
नहीं।’
क्यों?….क्यों माँ?’
तूने सिद्धार्थ की कहानी सुनी है…नहीं? ले, तुझे सुनाती हूँ–सिद्धार्थ कपिलवस्तु के राजकुमार थे। उनकी एक सुन्दर पत्नी थी…’
तुम्हारी जैसी, माँ?’ बेटे ने बीच में टोका।
ऐसा ही समझ ले। उनका तेरे जैसा एक चाँद–सा बेटा था। सब–कुछ होते हुए भी सिद्धार्थ सांसारिक दु:खों को देखकर बहुत उदासी में रहते थे। इसलिए एक रात अपनी पत्नी और बेटे को सोते छोड़कर वन की ओर चले गए…संन्यासी हो गए…’
परन्तु माँ ! वह तो कपिलवस्तु के राजकुमार थे…..खूब धन–दौलत के मालिक!’
तो?’
पिताजी तो कहीं के राजकुमार नहीं थे। उनके घर में तो मुश्किल से दो जून का खाना पकता था। फिर वह क्यों चले गए?’

लगता है बेटे, दोनों ही दु:खों से डर गए।’ कहते हुए माँ ने मशीन के रिंग पर उँगलियाँ रखकर उसे घुमा दिया।

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