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May 14, 2020

दो लघुकथाएँ

1. नि:शब्द
 -अर्चना राय 
अपनी साँसों की ऊपर -नीचे होती रिदम को संयत करते हुए, अनिल के कान केवल अनाउंसमेंट पर  टिके थे। उसकी तरह ही  अनेक सहकर्मी भी इसी ऊहापोह की स्थिति में खड़े थे। आज मंदी की चपेट में आई कंपनी से कर्मचारियों की छँटनी  होने वाली थी। इसलिए सभी अपने अपने भविष्य को लेकर चिंतित खड़े थे।
मिस्टर अनिल शर्मा यू आर नाउ इन, एण्ड  प्रमोटेड टू सीनियर पोस्ट”
  अनाउंसमेंट सुनकर उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि जहाँ उसके कई काबिल साथी नौकरी से हाथ धो बैठे थे, ऐसे में प्रमोशन होना, उसके लिए सपने से कम नहीं था। वजह थी कंपनी के दिए कार्य को, पूरी ईमानदारी से नियत अवधि में पूरा करना तथा कभी अनावश्यक छुट्टी न लेना था।
उसकी खुशी का पारावार नहीं था। इसलिए ऑफिस से निकलकर, रास्ते से एक सुंदर गुलाब के फूलों का गुलदस्ता खरीद कर, टैक्सी ड्राइवर को, कार तेज चलाने को कह जल्दी बैठ गया। उसका वश चलता तो, आज उड़ कर पहुँच जाता।
  कार के पहियों के साथ, उसका  मन भी कहीं तेजी से अतीत में घूमने लगा।
पत्नी उससे ज्यादा  पढ़ी- लिखी ही नहीं, उससे समझदार भी थी। यह बात वह शादी के कुछ दिन  बाद ही समझ गया था। क्योंकि उसने आते ही घर के साथ-साथ बाहर की भी आधे से ज्यादा जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर सहर्ष ले ली थी।
अपाहिज पिता को हर हफ्ते हॉस्पिटल ले जाने के लिए, छुट्टी लेने कि उसकी समस्या को पत्नी ने बिना किसी गिले-शिकवे के हल कर दिया, मिली राहत से, उसके दिल ने  थैंक यू कहना चाहा पर...
ये तो उसका फर्ज है”- सोच पुरुष अहं ने कहीं न कहीं रोक दिया।
   बैंक,बिजली- पानी बिल आदि की लंबी लाइनों में, खड़े होने की उबाऊ जद्दोजहद से भी उसे आजाद कर दिया , तब  उसके दिल ने खुश हो थैंक्यू बोलना चाहा तो
ठीक है, इतना बड़ा काम भी नहीं कर रही”- पुरुष अहं फिर आडे़ आ गया।
  बच्चों को लगातार मिल रही सफलता से पिता होने के नाते अपनी तारीफ सुन, वह गर्व से भर उठता और उसका दिल पत्नी को धन्यवाद कहने आतुर हो उठता,
तो क्या हुआ? ये तो माँ का ही फर्ज होता है”- पुरुष अहं ने एकबार फिर फन उठाकर उसे रोक लिया।
सर ..आपका घर आ गया”- ड्राइवर की बात सुनकर, वह अतीत से वर्तमान में लौटा। गेट के बाहर, पत्नी को बेचैनी से चहल कदमी करते देख, जल्दी उसके पास पहुँचकर, गुलदस्ता देते हुए मुस्कुराकर बस एक ही शब्द कहा
थैंक यू”
आज पुरुष अहं पहली बार दूर मौन खड़ा था।
2. संस्कार
ओके मॉम, चलता हूँ”- मोबाइल पर नजरें गड़ाए हुए ही बेटे ने कहा।
अरे बेटा! अभी  आए  और अभी जाने लगे , कुछ देर हमारे साथ भी बैठो”- गाँव से मिलने आई बड़ी दादी ने कहा।
सॉरी दादी, फ्रेंड्स के घर पार्टी है, लेट हो जाऊँगा”
मेरे मोबाइल में नेट पैक डलवा दिया? शाम तक खत्म हो जाएगा”- माँ ने कहा।
ओहो मॉम ‘डलवा दिया है, कितनी बार पूछेगी,और हाँ मुझे  रात को आने में देर हो जाएगी, आप बार-बार फोन करके डिस्टर्ब मत करनामेरे दोस्त आपकी इस आदत के कारण मुझे मॉम्ज़ बेबी कहकर चिढ़ाते हैं”
अच्छा ठीक है, नहीं करूँगी”
अरे! दादी क्या देख रही हैं? आप नहीं  जानती मोबाइल कितना जरूरी हैहम शहर वालों की तो यह जीवन रेखा  बन गया है। इसके बिना एक पल नहीं चलता ”-उन्होंने  कहा।
अच्छा” – बड़ी दादी ने आश्चर्य से मोबाइल को हाथ में लेते हुए कहा।
वे उस चौकोर जादुई डिबिया को बड़े अचरज से देख रही थी, जिस पर  उँगलियाँ फिराते ही एक अनोखी ही दुनिया में पहुँच जाते, जहाँ की हर चीज बहुत ही आकर्षक दिखाई दे रही थी। देखकर एकदम आँखें चौंधिया गई, “अरे!! अरे …यहाँ तो मैं भी हूँ  कितनी सुंदर, मुझे तो पता ही नहीं था कि मैं ऐसी भी दिख सकती हूँ”-सेल्फी की जादुई दुनिया का भ्रमण करते हुए बड़ी दादी कह उठी।
यह सब  देखकर उन्हें चिराग  की याद हो आई, जिसे घिसने पर प्रकट होने वाला जिन्न हर इच्छा को एक क्षण में पूरा कर देता था।
इस छोटे से खिलौने में पूरी दुनिया समाई हुई है। इसने हर काम को बहुत आसान बना दिया है। चाहे किसी को संदेश भेजना , बात करना  या  चलते फिरते देखनासब चुटकियों में हो जाता है”
क्या सच में?”- बड़ी दादी ने अचरज से कहा।
हाँ दादीकिसी चीज की जानकारी चाहिए या  कुछ खरीदना हो, सब कुछ एक टच में कर देता है, सुई से लेकर बड़ी चीज, सब आपके घर आ जाती है”
कपड़े होंगहने हो, रसोई का सामान…..।.”
बड़ी दादी ने बीच में टोकते हुए पूछा
और....  संस्कार?”

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