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May 15, 2020

पाँच लघुकथाएँ

1. तिलिस्म
-डॉ. शील कौशिक
 साल भर से अलग रह रहे विनय ने अनुष्का को कॉल किया,
“क्या कल तुम ओम सिने गार्डन में मिलने आ सकती हो?” यह पूछते हुए विनय का दिल जोरों से धड़क रहा था।
“हाँ,” अनुष्का के दिल में वैसी ही धड़कन बजी, वैसी ही चाहत उभरी।
“ठीक है, कल शाम को पाँच बजे।”
साल भर पहले पाश्चात्य सोच उन्हें विपरीत दिशा में ले गई थी।
वे दोनों इस नवनिर्मित सिने गार्डन के रेस्टोरेंट में गोल मेज के आमने-सामने एक दूजे पर नजर टिकाए बैठे हैं। विनय ने अनुष्का की पसंद की कोल्ड कॉफ़ी फ्रेंच फ्राइज़ के साथ आर्डर की और अपने लिए लिम्का। अनुष्का के मन में हूक-सी उठी और यह सोच कर आँखें नम हो गई कि विनय को आज भी उसकी पसंद का कितना ख्याल है।
“पता है तुम्हें! दीपक बहुत चालाक है... वह एक नम्बर का झूठा है... उसके कई लड़कियों के साथ अफेयर्स हैं... मैं भी उसके झांसे में आ गई,” यह कहते हुए अनुष्का के मुँह में कॉफ़ी की कड़वाहट घुल गई, ‘पर... तुम तो हमेशा समर्पित और ईमानदार रहे...’ ये शब्द उसके मुँह में ही रह ग। विनय को लिम्का में कुछ अतिरिक्त मिठास लगी।
“अनुष्का! सेम इज हेयर, वो मेरी कुलीग नेहा है न... बिलकुल बकवास है... एकदम लापरवाह... कहते हुए विनय का मुँह का स्वाद कसैला हो गया,‘पर... तुम तो बहुत केयरिंग... सब काम समय पर टिपटॉप रखने वाली,’ ये शब्द उसके मुँह में रह गये। अबकी अनुष्का को कॉफ़ी का घूँट मीठा लगा।
“वीनू ! (विनय के लिए अनुष्का का प्यार का सम्बोधन) पापा कह रहे थे कि...”
“हाँ अन्नू! (अनुष्का के लिए विनय का प्यार का सम्बोधन) मेरी मम्मी कह रही थी कि...
“चलो! फिर साथ घर चलें...” एक साथ सहमति के स्वर प्रस्फुटित हुए । सिने गार्डन के बराबर में खड़ी पुरानी बिल्डिंग की आभा द्विगुणित हो गई थी ।
2.अंतिम यात्रा
        मित्र के देहांत की सूचना से रोहन को गहरा धक्का लगा। उसे किसी तरह यकीन ही नहीं हो रहा था- “बिलकुल तंदुरुस्त था वह...कोई बीमारी नहीं...कोई हर्ट ब्लाकेज नहीं...फिर भी डॉक्टर कहते हैं हार्ट फेल हो गया... सब झूठ बोलते हैं... अरे! बहुत बड़े दिल वाला था मेरा दोस्त।”
पत्नी ने दिलासा देते हुए उनके यहाँ चलने को कहा। कुछ देर बाद वह सदमे से उबरा। उनका घर करीब चार किलोमीटर की दूरी पर था। पीछे बैठी उमा ने स्कूटी की इतनी धीमी चाल देख कुछ कहने के लिए मुँह खोला, पर रुक गई। वह हैरान थी... हमेशा तो ये स्कूटी इतनी तेज चलाते थे कि वह पीछे बैठी टोकती रहती थी- ‘थोड़ा धीरे चलाओ जी... ध्यान से चलाओ... आगे स्पीड ब्रेकर है जी, पर आज रोहन कभी स्कूटी के साइड वाले शीशे ठीक करने लग जाए... कभी स्पीड ब्रेकर नजदीक आते ही बिलकुल डैड स्लो स्पीड कर दे... अपने में खोया हुआ रोहन चले जा रहा था। उसके समक्ष मित्र के साथ बिताया एक-एक क्षण चित्रित हो उठा –“भाभी जी के साथ बस अभी की अभी आ जाओ और हाँ रास्ते से सेवकराम के यहाँ से पकोड़े लाना मत भूलना।” कोई भी ख़ुशी की बात होती तो वह पार्टी लेने वाली सूची में जोड़ता जाता और कहता, “ दस पार्टियाँ जमा। एक-एक करके बोझ उतारते जाओ वरना भार बढ़ जायेगा। चलो कुछ भार मैं तुम्हारा कम कर देता हूँ, जगह तुम्हारी और मेन्यु हमारा।” रूमाल निकाल कर उसने नम हो आई आँखों को पोछा। रास्ते में पड़े पोलिटेक्निक कालेज, मालगोदाम, रेल की पटड़ी एक-एक को रोहन ऐसे निहार रहा था जैसे अंतिम बार दर्शन कर रहा हो।
     उसे पता है कि मित्र का भरा-पूरा परिवार है। दो लड़कियाँ अपने-अपने घरबार की हो गई हैं। बेटा-बहू बेंगलूर में जॉब करते हैं। शहर से दूर यहाँ मियाँ-बीबी खुली और बड़ी कोठी में अकेले रहते हैं। कोठी का नाम भी क्या खूब रखा है-‘अपनी कोठी’। हर आने वाले को यह अहसास कराती कि यह उनकी अपनी ही कोठी है...यारों का ऐसा ही यार था वो, आत्मीयता से भरा। अब भाभी जी भी बेटे के पास चली जायेंगी। यह सोच कर उसका दिल बैठा जा रहा था।
पन्द्रह मिनट का वही रास्ता आज काटे नहीं कट रहा था। आखिर उमा से रहा न गया, “थोड़ी जल्दी करो जी, अंतिम यात्रा की तैयारी हो चुकी होगी, ले जाने का समय हो रहा है।”
“ मेरा दोस्त ही नहीं रहा तो मैं क्या करूँगा? इस रास्ते पर मेरी भी यह अंतिम यात्रा है उमा।” सारा दर्द उमड़ कर आँखों से बहने लगा हो जैसे...वह फूट-फूट कर रोने लगा।
3.खेल
पूर्वोत्तर क्षेत्र में यह माता का एक सुप्रसिद्ध मन्दिर है। भक्तों और दर्शनार्थियों की भीड़ से बेखबर आठ से दस वर्ष आयु की वे तीन लड़कियाँ मन्दिर के विशाल प्राँगण में छुपम-छुपाई खेल रही थीं। तभी गेरुआ वस्त्रधारी पण्डितजी ने आवाज लगाई, ‘सिया, इधर आ!
 ‘पापा! अभी थोड़ी देर में आती हूँ, खेलकर।
 ‘नहीं, अभी इधर आ, यजमान तेरी पूजा करने के लिए इन्तजार में बैठे हैं।पण्डितजी ने कड़ककर कहा।
  दोनों सहेलियों की ओर निहारती सिया पण्डितजी की ओर चल दी। उसकी आँखों से बेबसी झलक रही थी। उसकी दोनों सहेलियाँ भी खेल छोड़कर उसके पीछे हो लीं।
सिया पटड़े पर बैठ चुकी थी। उसके सामने बैठे नि:सन्तान दम्पती ने सर्वप्रथम उसके पाँवों को गंगाजल से धोया, साड़ी के पल्लू से पोछा, पैरों में आलता लगाया और हाथों में चूड़ियाँ पहनाकर माथे पर बिन्दी लगा सिर पर चुन्नी ओढ़ाई। उसकी गोद में वस्त्र, फल, मिठाई के साथ ही पाँच सौ का एक नोट रखा। इस बीच पण्डितजी निरन्तर मन्त्रोच्चार कर रहे थे। इन सब क्रियाओं से बेखबर माता का रूप धरे सिया कभी अपनी सहेलियों की ओर देखकर मुस्कराती रही और कभी इशारों में उनसे बतियाती रही। उन तीनों का मूक वार्तालाल जारी था।
 पूजा अब अन्तिम चरण में थी।
सिया उठने को अधीर हो उठी। उसने स्वचालित यन्त्र की तरह अपने गले से मालाएँ उतारकर उस दम्पती के गले में पहनाई... दोनों की झुकी पीठ पर आशीर्वाद की थपकी लगाई... गोद में रखे वस्त्र, फल, मिठाई और रुपये पिता की गोद में पटककर जल्दी से अपनी सहेलियों के साथ मन्दिर के प्राँगण में खेलने दौड़ गई।
 ‘बेटी, जल्दी आ, पूजा के लिए यजमान आए हैं...तभी दूसरी बच्ची मुन्नी के बापू की आवाज ने उनके खेलते पैरों पर ब्रेक लगा दिए।
4. हाईटेक रिश्ते
“दीदी इस महीने की 22 तारीख को आपकी भतीजी की रिंग सेरेमनी तय हुई है। प्रोग्राम लखनऊ में होना है, आप और जीजा जी तैयार रहना।” शिल्पा की भाभी ने फोन पर सूचित किया ।
“ठीक है।”
“देख लो दीदी! एक दिन पहले यहाँ घर आना पड़ेगा और यहाँ से इक्कीस को दिल्ली से सभी की एक साथ रिजर्वेशन होगी । इस तरह आपको चार-पाँच दिनों की छुट्टियों का इन्तजाम करना पड़ेगा।” भाभी ने खोल कर बताया।
“ठीक है।” शिल्पा ने सहज भाव से कहा।
फोन उधर से डिसकनेक्ट हो गया।
शिल्पा सोचने लगी भैया के घर में उनकी बिटिया की पहली शादी है, उन्हें तो आग्रहपूर्वक और हक से कहना चाहिए था कि आपको और जीजाजी को अवश्य चलना है। अभी से अपनी छुट्टियों का प्रबंध कर लो और तैयारी शुरू कर दो। लगता है भाभी बस ऊपर के मन से औपचारिकतावश ही जाने के लिए कह रही थीं...
तो हम भी कौन से जाने को तैयार बैठे हैं? इस गर्मी के मौसम में दो दिन का सफर... चार-पाँच छुट्टियाँ बेकार करना और फिर रितेश के बिजनेस का भी नुकसान होगा।
थोड़ी देर बाद फिर भाई का फोन आया, “तो आप दोनों का आना पक्का समझूँ? राजधानी में टिकट बुक करानी है, अभी तय करना होगा।”
“हाँ भाई, हमारे लायक और कोई काम हो तो वह भी बता देना।”
प्रत्युत्तर में दूसरी ओर से कोई आवाज़ न सुन कर शिल्पा बोली, “देख भाई क्यों बोझ मर रहे हो, नहीं ले जाना तो बेशक मत ले जाना। रही बात लोगों की, रिश्तेदारों की तो कह देना, हमने तो सादर बुलाया था... टिकट भी करा दी थी... जीजाजी को कोई जरूरी काम आन पड़ा।” यह कह कर शिल्पा ने सुख की साँस ली।
“हाँ यही ठीक रहेगा दीदी! आप लोग नहीं शामिल हो सकते, तो कोई बात नहीं... आपको रिंग सेरेमनी की वीडियो भेज देंगे।”
मोबाइल डिसकनेक्ट होते ही दोनों ही के सिर से जैसे मन का भार उतर गया हो।
 5.फेफड़ों की वर्कशॉप
रामकृष्ण दो दिन पहले ही गाँव से शहर अपनी पत्नी का इलाज कराने आया था। वह अपने दोस्त मधुदीप के यहाँ ठहरा था। गाँव में नित्य सवेरे खेतों में घूमने के आदी रामकृष्ण को यहाँ घुटन महसूस होने लगी। वह सुबह जल्दी उठा और इस पाश कालोनी में सैर करने निकल पड़ा। पर उसे ताजगी का अहसास न हुआ। तभी उसने एक ताजगी भरी हवा का झोंका महसूस किया और वह उस ओर बढ़ चला। उसे कुछ दूरी पर भिन्न-भिन्न प्रकार के पेड़ों का झुरमुट दिखाई पड़ा। वह उनके समीप गया। चारों तरफ ऊँची दीवार और गेट देख कर ठहर गया लगता है। “यह तो कोई बड़ा पार्क है।” वह खुश हो गया। गेट के पास लगे बोर्ड को देख कर वह चौंका –“ हैं! ‘फेफडों की वर्कशॉप,’ मोटर-गाड़ी की वर्कशॉप तो सुनी है पर ये फेफडों...”
तभी एक आदमी हाथ में रजिस्टर लिए दौड़ कर आया, “ये लो साहब एंट्री भर दो।”
“एंट्री भर दो! मतलब।”
“एंट्री नहीं भरोगे तो पता कैसे चलेगा कि आप किस समय अंदर आए और कितनी देर पार्क में रहे?”
“क्यों! पाबंदी है क्या? जितनी मर्जी देर तक यहाँ रहूँ मैं! पार्क तो सार्वजनिक यानी सबके लिए होते हैं।”
“नहीं साहब! यहाँ ऐसा नहीं है, प्रत्येक मिनट के हिसाब से पैसा चुकाना पड़ता है।” 
“अजीब नियम है यह।” परस्पर उनकी बहस सुन कर एक सूटेड-बूटेड आदमी जो पार्क का मालिक लग रहा था, आया और बोला,
“ इसमें अजीब क्या है भाई! बच्चे स्कूल बैग के साथ आक्सीजन सिलेंडर ले जाते हैं, वह क्या मुफ़्त आता है?”
“बस रहने दो! ये शहर के चोचले हमें समझ नहीं आते, हमें ज्ञान मत दो, हम अज्ञानी ही भले।” यह कह कर वह पलटा और बुदबुदाया- हूँ...! ‘फेफड़ों की दुकान!’        

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