जिस पथ जाएँ वीर अनेक...
वीरता का पथ विश्वशांति और सौहार्द
की ओर जाता है और युद्ध में मानवीयता का एक महत्वपूर्ण पक्ष भी होता है। पाकिस्तान
की फौज ने बार-बार इन नियमों का उल्लंघन कर युद्ध की नैतिकता को खुली चुनौती दी
है।
इस संदर्भ में मैं आपसे एक ऐसा दृष्टांत बाँटना
चाहूँगी जो पाकिस्तानी सेना की बर्बरता के बिल्कुल विपरीत भारतीय सेना के नैतिक
मूल्यों, भारतीय संस्कृति के आदर्शों पर प्रकाश डालता है । वर्ष 1971 के भयंकर भारत-पाक युद्ध
के समय भारतीय सेना की पलटन (स्पेशल फोर्सिस की एक इकाई) जम्मू कश्मीर में छम्ब
क्षेत्र में तैनात थी। वहाँ 17 दिन के भयानक युद्ध के समय हमारी पलटन तथा पाक सेना की एक पलटन की
आपसी मुठभेड़ में शत्रु पक्ष के बहुत सारे सैनिक बुरी तरह घायल हो गए। परिस्थिति
ऐसी थी कि वे सभी उस समय घायल अवस्था में
भारतीय सीमा से लगे हुए क्षेत्र में थे; जिन्हें पाकिस्तानी सेना रात के अँधियारे में वहीं छोड़ कर चली गई
थी। हमारे सैनिकों ने उन सभी पाकिस्तानी घायलों को उठा कर पास के मेडिकल कैम्प तक
पहुँचाया; जहाँ डाक्टरों ने उनकी मरहम पट्टी करने के बाद में युद्धबंदियों के
कैम्प में भेजा। उन घायल शत्रु सैनिकों में एक पाकिस्तानी सेना के कर्नल भी थे, जिनकी अवस्था काफी गंभीर
थी। उनकी मरहम पट्टी करते समय भारतीय
डाक्टरों को पता चला कि उनके शरीर को भारी मात्रा में रक्त पूर्ति की आवश्यकता थी, इसके बिना उनकी मृत्यु भी
हो सकती थी। उस चिकित्सा शिविर में हमारे वीर सैनिकों ने मानव धर्म की उच्चतम
मिसाल देते हुए उनके लिए अपना रक्त दान किया।
ऐसे में न केवल हमारे चिकित्सा कर्मियों ने, अपितु केवल एक रात पहले इन्हीं के साथ युद्ध में संलग्न सैनिकों ने
रक्त दानकर के भारतीय सेना के उच्चतम आदर्शों का परिपालन किया।
- शशि पाधा

कुछ
दिन पहले समाचार पत्रों में एक दिल दहलाने वाली खबर पढ़ी। भारत पाक सीमा के उत्तरी
क्षेत्र जम्मू कश्मीर में सीमा रक्षा में संलग्न एक पलटन के दो वीर सैनिकों की
पाकिस्तान सैनिकों ने नृशंस हत्या कर दी।
उस क्षेत्र में सर्दियों के दिनों में पाक सीमा की ओर से आतंकवादी छद्म वेश
में भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करने का प्रयत्न करते रहते हैं ताकि आतंक का वातावरण
बना रहे। एक रात जब भारतीय सैनिक नियंत्रण
रेखा के पास पेट्रोलिंग कर रहे थे तो
नियंत्रण रेखा के नियमों का उल्लंघन करते हुए पाक सैनिकों ने घात लगाकर
हमारे दो सैनिकों को घायल कर दिया। केवल इतना ही नहीं वे उन घायल सैनिकों में से एक का
सर काट कर सीमा के पार ले गए तथा उनके शवों को क्षत-विक्षत करके फेंक दिया। यह
पाकिस्तान की 29 बलोच रेजीमेंट के जवान थे।
इस शर्मनाक एवं निर्मम काण्ड से सारा भारत क्षुब्ध है। ऐसे बर्बर व्यवहार को कैसी सैनिक कारवाई का नाम
दिया जा सकता है? इसका उत्तर क्या किसी
मानवाधिकार संस्था के अधिकारियों के पास है?
युद्ध
के भी कुछ नियम होते हैं। युद्ध क्षेत्र
में अस्त्र-शस्त्र उठा कर शत्रु का सामना करना , स्वयं को उसके वार से बचाना, शत्रु को निरस्त्र करके उसे हराना आदि-आदि बातें तो पढ़ी और सुनीं थी; किन्तु घायल सैनिकों को पकड़कर उनके साथ अमानवीय
व्यवहार करना, उन के अंग-भंग करना ,घायलों का गला काट कर उनके शरीर को क्षत-विक्षत अवस्था में छोड़ देना, विश्व में किसी भी सैनिक
प्रशिक्षण की किताबों में नहीं लिखा गया है।
बर्बरता का ऐसा व्यवहार कोई मानव नहीं शैतान ही कर सकता है। इससे पहले भी
पाक सेना के दानवतापूर्ण व्यवहार के ऐसे समाचार आए हैं। 1965 के भारत पाक युद्ध के समय
डेरा बाबा नानक की सीमा रेखा के पास एक भारतीय सैनिक अधिकारी के शरीर के
टुकड़े-टुकड़े कर के उन्हें भारतीय सीमा
के अन्दर भिन्न-भिन्न स्थानों पर फेंक
दिया गया था। कारगिल युद्ध के दौरान
कैप्टन सौरभ कालिया तथा उनके अन्य साथियों के साथ पाकिस्तानी सेना ने जो अमानवीय व्यवहार किया
गया था, उसे लेकर सौरभ कालिया के दु:खी माता-पिता आज तक मानवाधिकार संस्थाओं
का द्वार खटखटा रहे हैं। इसी दर्दनाक व्यवहार के विपरीत उसी कारगिल युद्द के दौरान भारतीय सेना के
द्वारा पाक शहीदों के प्रति युद्ध के
नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण सद्वयवहार के
एक दृष्टान्त से अपने पाठकों को परिचित करवाना चाहूँगी । कारगिल क्षेत्र की ऊँची चोटियों पर पाक सेना के
कुछ सैनिक भारतीय क्षेत्र में मृत पाए गए थे। उनके पास जो दस्तावेज पाए गए थे, उनसे पता चला कि यह
पाकिस्तान की 'नर्दर्न
लाईट इन्फेंट्री के जवान थे , जिन्हें आम नागरिक के कपड़े पहना कर घुसपैठियों के रूप मे कारगिल की
चोटियों पर भेज दिया गया था। जब भारतीय अधिकारियों ने उनके शवों को पाकिस्तान को
सौंपना चाहा तो उन्होंने उनके शव लेने से केवल इसलिए इन्कार कर दिया ताकि वे
संयुक्त राष्ट्र संघ की रक्षा समिति को तथा पूरे विश्व के सम्मुख यह साबित कर सकें
कि उनकी सेना ने नियंत्रण रेखा का उल्लघन नहीं किया है । तब मानव मूल्यों में आस्था रखने वाले हमारे
सैनिकों ने पूरी इस्लामिक रीति के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया था। ये भारतीय सेना के प्रशिक्षण तथा उनके हृदय में
बसी हुई संवेदनशीलता के ज्वलंत दृष्टाँत हैं।
आज की
ऐसी दुखांत परिस्थितियों में मुझे इतिहास के उस पन्ने का स्मरण हो आया जहाँ युद्ध
-बंदी पोरस से सिकंदर ने पूछा, आप मेरे बंदी हैं, आप के साथ कैसा व्यवहार किया
जाए? वीर पोरस ने कहा , जो एक वीर राजा दूसरे बंदी
राजा के साथ करता है। यह सुनकर सिकंदर को
अपना सैनिक धर्म याद रहा और उसने पोरस को ना केवल रिहा कर दिया; अपितु उसकी वीरता को ध्यान
में रखते हुए उसे उसका राज्य लौटा दिया। आज विडम्बना यह है कि भारत-पाक की जिस
सीमा क्षेत्र में यह अमानवीय घटना हुई है, उसी क्षेत्र के कुछ ही दूर नदी के किनारे सिकंदर तथा पोरस का युद्ध
भी हुआ था। तब दो शत्रुओं का परस्पर सद्भावना पूर्ण व्यवहार आने वाले युग के लिए
एक उदाहरण बन गया था।
यह तो
हुई इतिहास की बात। युद्ध क्षेत्र में शत्रु पक्ष के साथ मानवता एवं सद्भावना के
व्यवहार का एक अन्य उदाहरण आपके साथ साँझा करना चाहूँगी। द्वितीय महायुद्ध के समय
जर्मन जनरल इर्विन रौमेल जर्मन अफ्रीका कोर का नेतृत्व कर रहे थे। इस युद्ध के समय जर्मन सेना ने शत्रु पक्ष के
सैंकड़ों सैनिकों को युद्ध बंदी बना लिया था। अफ्रीका के जिस क्षेत्र में इन युद्ध
बंदियों को रखा गया था, वहाँ पीने के पानी तथा खाने के राशन की बहुत कमी हो गई थी। किसी
अधिकारी के यह सुझाने के बाद कि युद्ध बंदियों की पानी तथा अन्न की सप्लाई कम कर
दी जाए, जनरल रौमेल ने कड़े स्वर में कहा, अब वे शत्रु नहीं, युद्धबंदी हैं और हमारे क्षेत्र में हैं। उनके और हमारे राशन-पानी की
सप्लाई एक जैसी रहेगी। ऐसा आदेश एक ऐसा वीर सैनिक ही दे सकता है; जिसके हृदय में मानव प्रेम
की भावना की अविरल धारा बह रही हो।
युद्ध
क्षेत्र में युद्ध के समय शत्रु को परास्त करने की भावना प्रबल होती है। उस समय
अर्जुन द्वारा केवल पंछी की आँख देखने की तरह केवल एक ही उद्देश्य होता है कि किस
प्रकार दृढ निश्चय के साथ शत्रु को नष्ट किया जाए। ऐसी प्रक्रिया में दोनों पक्षों में जान-हानि
होना स्वाभाविक है। ऐसी मुठभेड़ में अगर
शत्रु-पक्ष का कोई सैनिक घायल हो जाए, पलट कर वार करने में अक्षम
हो जाए, अथवा युद्ध बंदी हो जाए तो वहाँ मानव धर्म सर्वोपरि हो जाता है। तब
वो शत्रु नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में
विश्व की हर सेना को जेनेवा कन्वेंशन के नियमों का पालन करना पड़ता है। और फिर मानवता, दया तथा सौहार्द के भी कुछ अलिखित नियम होते हैं। यह बात मैं अपने
सैनिक जीवन के अनेक अनुभवों के बाद पूरे अधिकार से कह सकती हूँ।

हमारे
पाठक यह भी जानते हैं कि वर्ष 1971 के भारत-पाक युद्ध के उपरान्त पाक सेना के आत्म समर्पण के बाद लगभग 90,000 (नब्बे हजार) युद्ध बंदियों
को भारत में बहुत सद्भावनापूर्ण व्यवहार के साथ रखा गया था। इन्हें किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाई गई और
'शिमला एग्रीमेंट के बाद
इन्हें सकुशल इनके देश भेज दिया गया। ऐसे ही देश के सैनिकों द्वारा ऐसे निर्मम
व्यवहार को देख कर प्रत्येक भारत वासी का हृदय क्षोभ तथा ग्लानि से भर जाता
है।
भारतीय
सेना की वीरता के उदाहरणों की साथ कई ऐसे वृत्तांत हैं जिन्हें जानकर यह स्पष्ट हो
जाता है कि हमारे सैनिकों को युद्ध प्रशिक्षण के साथ-साथ मानव मूल्यों में दृढ़
आस्था रखने की शिक्षा भी दी जाती है। आज भारतीय सैनिकों के क्षत-विक्षत शव को देख
कर मानव धर्म में विश्वास रखने वाले विश्व
के प्रत्येक प्राणी के मन में दु:ख, आक्रोश के साथ यह प्रश्न अवश्य उठ रहा है कि पाकिस्तान के सैनिकों को
सांस्कृतिक परंपरा, मानव धर्म और मानवीय मूल्यों से किस तरह वंचित रखा गया है।
सैनिक की
संवेदना शांति से युद्ध तक असीमित विस्तार लिये होती है। जहाँ वह एक ओर जानलेवा
भीषण संग्रामों के दुर्धर्ष आक्रमण में अपने साहस की कठिनतम परीक्षा से गुजरता है, दूसरी ओर घायल साथियों के
प्रति करुणा की गहरी खाइयों से गिरते हुए अपने को धैर्य को सँभालता है तो तीसरी ओर
शत्रु सैनिकों के प्रति नफरत से ऊपर उठकर मानवता के उच्चतम आदर्शों का प्रदर्शन
करते हुए उनका सम्मान करता है। भारतीय सेना संवेदना के इस विस्तृत त्रिकोण पर
सफलता के साथ संतुलन साधने की योग्यता रखने वाली विश्व की महानतम सेना है। अंत में
मैं यही कहना चाहूँगी कि वीरता का पथ केवल संग्राम नहीं होता, सेवा, सहयोग, निर्माण, धैर्य सेना की कुछ अन्य
महत्त्वपूर्ण गुण होते हैं। इन उच्च
मूल्यों के पीछे हमारी समृद्ध दार्शनिक परंपरा ही सैनिक शिक्षा का आधार है। आज हम
भारतवासियों को अपनी वीर सेना पर गर्व है किन्तु हम सब को एक जुट होकर पाकिस्तान
सेना के इस नृशंस कृत्य का अपनी वाणी से तथा लेखनी से विरोध करना चाहिए ताकि ऐसा
कुकृत्य भविष्य में न हो। हमें कैप्टन सौरभ कालिया, हेमराजसिंह, सुधाकर सिंह जैसे वीर सैनिकों के साथ-साथ उन अनगिनत शहीदों के बलिदान को स्मरण करते हुए यह दृढ़
प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि जिस किसी भी परिस्थिति में हम हों, हम अपनी आवाज़ मानवाधिकार संस्थाओं
तक पहुँचा सकें।
बचपन में राष्ट्रकवि माखन लाल चतुर्वेदी की
कालजयी रचना पुष्प की अभिलाषा पढ़ते थे तो हृदय में सैनिकों के प्रति अथाह सम्मान
और गौरव का भाव उमड़ता था। वर्ष 1965 तथा 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय भारतीय सैनिकों के अदम्य उत्साह एवं वीरता
के वृत्तान्त जान कर गौरव के साथ-साथ कृतज्ञता भाव भी जुड़ गया। सारा भारत जानता
है कि अगर इस समय भारत प्रगतिशील देशों में अग्रणी है तो सफलता के इस अभियान में
सैनिकों का बहुत बड़ा योगदान है। जब तक भारत की सीमाएँ सुरक्षित हैं, देश में आंतरिक शान्ति का वातावरण रहेगा और निश्चिन्त भारत प्रगति
एवं उन्नति के उच्चतम शिखरों पर विराजमान
रहेगा। भारतीय सेना के प्रति कृतज्ञ जन मानस की भावना के साथ-साथ एक कोमल पुष्प के
हृदय की अभिलाषा का वर्णन कवि माखन लाल चतुर्वेदी ने अत्यंत सुन्दर शब्दों में
किया है ----
मुझे
तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेक,
मातृभूमि
पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक
Email- shashipadha@gmail.com
Shashipadha.blogspot.com
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